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बूढ़ी आँखें

buDhi ankhen

अरविंद यादव

अरविंद यादव

बूढ़ी आँखें

अरविंद यादव

और अधिकअरविंद यादव

    अहाते के विशाल वक्षस्थल पर

    हाथों में अपने नाम की तख़्ती थामे

    सुंदरता का ढिंढोरा पीटता मुस्कुराता घर

    तथा घर के बग़ल में

    रेशमी कपड़े पर पैबंद की तरह

    अपनी कुरूपता और नियति पर

    आँसू बहाती उदास कोठरी

    जिसमें औंधे मुँह पड़ी कुर्सियाँ

    वर्षों से बीमार साइकिल

    तथा दीवार पर छाती पीटते कैलेंडर के साथ

    टूटी चारपाई की गोद में

    सासों का हिसाब जोड़तीं

    वे असहाय बूढ़ी आँखें

    जो कभी सूरज से भी करती थीं बातें

    नज़रें मिलाकर

    आसमान भी जिसकी ऊँचाई को देख

    हो उठता था शर्मिंदा

    पहाड़ों ने भी कर दिया था आत्मसमर्पण

    जिसके सामने विवश होकर

    आज देख रही हैं उस अंधी कोठरी में बैठी

    दीवारों से सिर फोड़ती अपनी उस आवाज़ को

    जिसकी एक आवाज़ पर दौड़ पड़ती थी कभी

    टी.वी. पर चलते सीरियल

    सास भी कभी बहू थी की बहू

    पूजा की अलमारी में जलता दीपक

    और आँगन में खेलते गमलों से फूल

    बर्फ़ के मुँह पर कालिख मलती रात में

    मुँह खोले खिड़कियों से खाँसता देख उलटकर

    पाँव पसार बेफ़िक्र सोती वह रजाई

    जिसके पैर में चुभे काँटे को देख

    जो लहू जमाती रात में

    नाप आतीं थीं कोसों ज़मीन

    जाने कितने नदी-नालों को करते हुए पराजित

    आज कछुए की भाँति

    हम दो हमारे दो के खोल में

    सिकुड़ता प्रेम और संवेदनाएँ देख

    दरक रहा है अंतर का वह पहाड़

    जो रहा था अविचल भयंकर तूफ़ानों में

    मुट्ठी से रेत की तरह फिसलते अधिकार

    और कोठरी के द्वार पर खिंची लक्ष्मणरेखा

    जहाँ से एकटक उस घर को निहारती आँखें

    जिसकी एक-एक ईंट आज भी करती है बयान

    उन दमित अनगिनत इच्छाओं को

    जिनके कारण उसे मिली है इतनी मुस्कुराहट

    किंतु आज वह मुस्कुराता घर उसे

    लग रहा है स्कूल में पढ़ा संदेह अलंकार

    और हाथों की वह तख़्ती

    जिस पर खुदे बड़े-बड़े अक्षर

    जो कर रहे हैं उसकी भव्यता का गुणगान

    लगते हैं उसे ठीक वैसे ही

    जैसे लिखे हैं बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार पर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरविंद यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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