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बिसात

bisat

अब शब्दों की बिसात ही क्या रही

हत्या शब्द पढ़ता हूँ तो

साथ में चाय के लिए आवाज़ लगा रहा होता हूँ

आत्महत्या शब्द सुनता-पढ़ता हूँ

तो रस्सी, फंदा, करंट, पुल, नदी, रेल-पटरी वग़ैरह याद आते हैं

आदमी का चेहरा याद नहीं आता।

विशेषण हो तो

शब्दों की अपनी कोई औक़ात बची नहीं है

जैसे हत्या के आगे सामूहिक लगे

तो कुछ हथियार, दराती, रंदा याद आते हैं

मरने वाले फिर भी याद नहीं आते

सामूहिक आत्महत्या पर भी

ज़हर का नाम ही पढ़ता हूँ

कितने थे

कौन थे

कौन पढ़ता है

कवि तक नहीं पढ़ता

इन दिनों

हमें संवेदनशील बनाने की क्षमता

थोड़ी-बहुत बची है तो शब्द

सामूहिक बलात्कार में

यह शब्द आते ही मुझे वह लड़की याद जाती है

उम्र लिखी हो तो अनुमानता हूँ लंबाई

राज्य लिखा हो तो खोज लेता हूँ गाँव

समय खोजता हूँ

रात लिखा हो

तो दुपहरिया में ही रात कर लेता हूँ

बारिश लिखी हो

तो अपना भी छाता फेंक देता हूँ

खेत लिखा हो तो कंकरीट के जंगल बीच

इतनी जगह बना ही लेता हूँ कि

गन्ने का खेत सोच सकूँ

इतना संवेदनशील हो जाता हूँ

कि उसी क्षण

कपड़े उतार कर वही पहुँच जाता हूँ

एकाध घंटे बाद

एक लाश के मुड़वारी बैठकर

कविता लिखता हूँ

कविता में नख-शिख लिखता हूँ

बस यह नहीं लिखता

कि एक लाश ने

दूसरी लाश पर कविता लिखी।

स्रोत :
  • रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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