साल मुबारक

saal mubarak

रामनारायण पाठक

रामनारायण पाठक

साल मुबारक

रामनारायण पाठक

और अधिकरामनारायण पाठक

    —साल मुबारक! अभिनंदन! अभिनंदन का,

    यह बरसगाँठ का शुभ प्रसंग

    अनेक वर्षो तक आए।

    —अरे, इसमें साल मुबारक क्या?

    और यह अभिनंदन क्या?

    जहाँ तक यह जीना है, वहाँ तक बरसगाँठ तो

    बार-बार आती ही रहती है।

    और सबके सम्मुख अनौचित्य के होते हुए भी

    मुझमें—इस जन के जीने का मिथ्यात्व का—

    विषाद-भाव पैदा हुआ।

    और वहाँ विषाद का मौन परिव्याप्त हुआ।

    तभी हमारी एक पड़ोसी बहन अचानक आई,

    शुभ्रवस्त्रा, अल्पाभरणा,

    जिसका सौभाग्य अभी कुछ ही मास से

    स्मृति में सीमित हो रहा था।

    वह तनिक सत्वर गति से आई;

    मेरे सामने गुलदस्ता रखकर,

    पास ही खड़ी सखी के पीछे जाकर,

    शीपवस्त्र को ज़रा खिसकाकर,

    प्रफुल्ल पुष्पों की उसने वेणी बाँधी,

    फिर शुभेच्छा के सुमनों की भाँति उसने स्मित बिखेरा।

    हम इस सबको समझ समझे—

    तब तक तो वह शीघ्र अपने घर चली गई।

    मैंने सोचा यह मेरी बरसगाँठ

    नहीं क्या हमारे सहजीवन की भी गाँठ,

    जिसे व्यक्त किया इस बहिनी ने पुष्प-काव्य में?

    तो क्या यह गाँठ अभिनंदन के योग्य नहीं?

    और... इसमें जीना क्या नहीं धन्य और पुण्य

    कि जहाँ मनुष्य अपनी व्यथा को छिपाकर

    अन्य के स्नेह-सौख्य में आनंदित होता है और उसे अभिनंदित

    करता है?

    और मैं विचार करता हूँ : सहजीवन क्या मात्र लग्न में ही संभव?

    अन्य किसी संबंध में यह नहीं संभव

    यह पुष्प-काव्य हम दोनों के जीवन में बुन नहीं गया क्या?

    और वैसे तो मैं कभी भी जान सकूँ

    इस तरह कई लोगों की गाँठें

    मेरे जीवन के साथ बँध ही जाती होंगी।

    मेरे जीवन के साथ?

    अरे! यह मैं का अभिमान कैसा!

    मानो सर्वलोक, समस्त विश्व

    मेरे ही आस-पास घूमता रहता है।

    कैसा यह दृष्टिभ्रम? कैसी धृष्ठता?

    कैसी अल्पता? कैसी विपरीत दृष्टि?

    यहाँ तो विश्व का अद्भुत पट गूँथा जा रहा है,

    चैतन्य का, समस्त चराचर जीवों का।

    जिस समग्र की नित्य नूतन छाप

    मनुष्य कभी जान ही सके,

    फिर भी उसमें तन्मय रहे; दूसरों के साथ निज छंद से

    खेलता रहे।

    जो सबके कल्याण के लिए, सबके शाश्वत आनंद के लिए है।

    मैं तो उसका एक तंतु-मात्र, एक रोम बनकर धन्य हुआ हूँ।

    और ये सभी जो मुझे चाहते हैं, अभिनंदन करते हैं,

    यह भाई उठकर मुझे बस में जगह देते हैं।

    और यह बहन, जिन्हें मैं पहचानता नहीं,

    फिर भी हँसकर हाथ का संपुट रचती हैं,

    वह मुझे नही, किंतु उसे जहाँ सब गूँथे जाते हैं!!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 271)
    • रचनाकार : रामनारायण पाठक
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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