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भँवर

bhanvar

बलराम कांवट

और अधिकबलराम कांवट

    उन दिनों वैशाख में

    धरती पर ऐसे अंधड़ और बवंडर नहीं उठते थे

    जैसे आज उठते हैं

    उन पुराने दिनों में

    सिर्फ़ छोटे भँवर आते थे

    कहीं दूर से चलते हुए आहिस्ता

    और खेतों को बुहारते हुए

    पास से गुज़र जाते थे

    उनके आने का पूर्वानुमान

    थमी हुई हवा को

    भाँपकर

    खलिहानों में

    अनाज बरसातीं

    तिपाहों पर खड़ी स्त्रियाँ लगाती थीं

    और सचमुच

    थोड़ी ही देर में

    दूर किसी पगडंडी को पार करता हुआ

    आता दिखाई देता

    कोई भँवर

    सूखी पत्तियों और धूल को

    साथ समेटता हुआ

    उनके आने से अवश्य ही होती थीं

    कुछ असुविधाएँ

    जैसे आकाश में उड़ते पक्षियों को

    डगमगाकर

    पेड़ों पर उतरना पड़ता था

    पेड़

    मरोड़े खाते हुए

    झुक जाते थे

    आक और घापात के पौधों को वह झिंझोड़ देता था

    खेतों में डोलते रोजड़ों

    और खलिहानों में खेलते बच्चों को

    आँखें मींचनी पड़ती थीं

    लेकिन जब वह गुज़र जाता

    और उसकी ओट

    खुल जाती

    तो पूर्ववत् बहने लगती थीं हवाएँ

    और फिर से

    खलिहानों में हिलती हुई तसलियों से

    अनाज बरसने लगता था

    इन्हें थोड़ी-थोड़ी देर में

    आते-जाते देख

    वहीं बैलगाड़ियों की छाँव में

    हथेलियों पर रोटी रखकर खाते किसान कहते थे

    ये गोल घूमती हवाएँ

    वे आत्माएँ हैं

    जिन्होंने अपने जीवन में

    कोई छोटे-मोटे पाप किए थे

    अब ये भटकती हुई

    कैलामाता की जात करने

    जा रही हैं

    प्रायश्चित के लिए

    उन किसानों को सुने हुए अब बीस बरस बीत चुके हैं।

    इस दरमियान

    ये छोटे भँवर आने

    धीरे-धीरे

    बंद हो चुके हैं

    इनकी जगह

    अब आते हैं

    धरती और आकाश को डराते धमकाते

    ऊँचे-बड़े विशाल बवंडर

    ऐसे में सोचता हूँ

    ये कौन आत्माएँ हैं

    जो इतने बड़े पापों को लेकर

    घूमती फिर रही हैं पृथ्वी पर

    और प्रायश्चित के लिए

    अब ये कहाँ जाएँगी

    किस देवी या देवता के थान पर!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम कांवट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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