भग्न देवालय

bhagn dewalay

जानकी बल्लभ पटनायक

जानकी बल्लभ पटनायक

भग्न देवालय

जानकी बल्लभ पटनायक

और अधिकजानकी बल्लभ पटनायक

    अचानक नींद टूट गई

    खिड़की की फाँक से मैंने देखा

    पूर्वी आकाश का क्षितिज चीर

    एक अपूर्व नगरी सामने

    उसके भवनों की कतारें रंगी हैं

    लाल गुलाबी

    और सुनहले रंगों में।

    मैं रहता हूँ जिस शहर में

    गंदे नाले और कचरे की कतारें

    किल्ली-सी मोटी

    और रुपए के सिक्के जैसे गोल मच्छरों के झुंड

    रास्तों के बदन पर सैकड़ों गड्ढे

    लगे हैं पैबंद

    पैबंद लगी टाट पहने

    भिखारी की तरह।

    इस शहर में यायावर

    स्थिर और अस्थिर लोगों के समूह

    संसार के भाग्यहीन

    जीवन के जूए में

    इकट्ठे हुए हैं।

    वहाँ इस क्षितिज के किनारे

    ऐसी ही एक स्वर्ण नगरी में

    स्वप्नातुर चलता रहा मैं

    एक नया आविष्कार करता हुआ।

    जितना रास्ता चला

    बढ़ी उतनी ही दूरी

    सिर्फ़ पैबंद लगे रास्ते

    स्वप्न और वास्तविकता के बीच मन्वंतर

    बीत गई सुबह की बेला

    प्रचंड सूर्य का ताप बढ़ा

    रास्ते के किनारे खड़े ताड़ के पेड़

    बरगद और पीपल हो गए बूढ़े

    महज़ बदरंगे विज्ञापन

    पानी नहीं, मृगतृष्णा

    धूसर दिगंत सीमाहीन।

    फिर समय बीतता गया

    आसमान में काले बादल घुमड़ आए

    बहने लगी आँधी

    छा गया क्षितिज में अंधकार।

    तितर-बितर यात्री दल

    निर्जन मैदान

    भग्न देवालय को आश्रय

    बना मैं रुक गया,

    पनपा है पीपल एक

    पत्थर चीरकर

    मिट गया है सिंदूर

    है प्रतिमा का रूप

    बहुत दिनों से मुरझाए हैं

    पूजा के फूल

    शांत है पक्षियों की चहचहाहट

    क्षितिज आसमान पृथ्वी को

    ढक दिया है आँधी के संगीत ने।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सिंधु उपत्यका (पृष्ठ 19)
    • रचनाकार : जानकी बल्लभ पटनायक
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस

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