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बेरी

beri

अनुवाद : रमेश कौशिक

व्लादिमीर सोलोऊखिन

अन्य

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और अधिकव्लादिमीर सोलोऊखिन

    हरी-भरी जंगल की घास में

    तीन क़दम हट करके पंथ से

    एक बेरी उग आई

    पक करके लाल हुई

    अब इसके तोड़ने का वक़्त है...

    किंतु जंगल में और बहुत बेरी हैं

    मैं नहीं आया हूँ इसके हित...

    तीन क़दम...और नीचे झुकते हुए

    यूँ ही इसे झूलने दो

    होगी बरसात जब

    तब यह बौछार से

    भूमि पर गिरेगी अपने आप से

    या कोई चिड़िया ही चोंच मारेगी

    किंतु कहा बेरी ने मुझसे यों :

    आलस को छोड़ो और इधर आओ

    झुककर के नीचे प्राण प्रिय मुझे लूट लो

    तुम वक़्त पर सुस्त हो

    मुझको अब तोड़ लो

    थोड़ा आनंद लो

    ठीक है मैं अभी छोटी हूँ

    किंतु ग्रीष्म की वन-सुगंध

    प्रातः की सूर्य-रश्मि

    धरती पर गिरी हुई वर्षा की बूँदे

    मिलकर सब एक हो मुझमें समाई हैं

    रखिए मुझे मुख में

    धीरे से जीभ पर दबाइए

    शीतलता मेरी दाँतों से गुज़ारिए

    देखते अनिच्छा से धूप में

    आप जो आगे बढ़े जा रहे

    क्या मुझे बताएँगे

    अब और कितनी बेरियाँ हैं आपके सामने

    लोग यह कहते हैं

    जब हम मरते हैं

    तब अपने सारे अतीत को याद करते हैं

    कि हमने क्या-क्या देखा

    कहाँ-कहाँ रहे

    हम कब ग़लत थे और कब सही थे

    दूसरी सारी चीज़ों के बीच

    उन्हें एक ओर धकेलते या ढकते हुए

    शायद मैं तुम्हें याद आऊँगी

    घास में झूमती हुई

    शायद मैं याद आऊँगी

    सफ़ेद चित्तियों वाली चमकीली

    लाली के रूप में

    ठीक उससे पहले

    जब अँधेरे का आख़िरी परदा

    गिर रहा होगा

    तुम अफ़सोस नहीं करोगे

    कि तुमने कहीं कुछ किया नहीं

    आज के दिन मुझे तोड़ा नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक सौ एक सोवियत कविताएँ (पृष्ठ 255)
    • रचनाकार : व्लादिमीर सोलोऊखिन
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
    • संस्करण : 1975

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