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बौक दुष्यन्तक बिन ब्याहलि शकुन्तला

bauk dushyantak bin byahali shakuntala

गंगेश गुंजन

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गंगेश गुंजन

बौक दुष्यन्तक बिन ब्याहलि शकुन्तला

गंगेश गुंजन

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    छल संपूर्ण समय

    आत्मबोधवत्।

    सभ अतीत वस्तु उठा लेल गेल

    बाँचल अछि रिक्त उदास वर्त्तमान।

    क्षण तरल माटिक

    पाथर बनल अछि।

    ओकर बाद आओर कोनो चेन्ह नहि बनैत अछि चरण केर

    अहाँ कहियो चलल रही आत्मलीन।

    एहि पाथरपर कोनो बाट निकालऽ चाहैत छी,

    पयरक चेन्ह नहि बनय अहाँक द्वारि तक पहुँची।

    मुदा, अहाँ

    चौखटि पाथरक

    मोड़ि बैसलि छी।

    दिशा नहि अछि हमर पहचान केर।

    हमरहि देल पाथरसँ स्वयंकेँ नऽव कऽ कऽ ओढ़ब

    जीवन अहाँक, देखइत छी हम, कहक अछि बात एकटा

    अहाँ घरक पछुआरसँ उठैत हमर स्वर

    कतेक होयत अशुभ अहाँक देह, दिन दुःखकेँ।

    सोचियो कऽ नहि पबै छी बनि कनीको बौक।

    पयर केर पाथरकेँ अखनहुँ तोड़ि दैके अछि, अछि मनमे।

    किन्तु टुटलासँ चेन्हकेँ मिटि जाइक भय अछि,

    रहि-रहि मोन पड़ैत अछि

    देल चेन्ह केर अँगुठी

    गर्भमे चट्टान पोसू शकुन्तला।

    हम स्वयं आइ लेने छी घुमा

    (राजाक खजानामे आब पड़ल अछि)।

    सोझाँ पड़ि कऽ नहि चीन्है के दम्भ नहि होयत,

    मात्र एक बात होयत घोषणा

    आइ राजा जीहसँ लाचार छथि, बजताह नहि।

    भरतक माँ

    अहाँक कामना पाथर बना देत अहाँकेँ।

    टूटब नहि स्वयं आओ जंगलमे नहि शहरमे

    घर बनायब (किन्तु चौखटि पाथरक दोसर दिस मुँह कऽ कऽ)

    कतहु निर्णय नहि बदलब।

    नहि बदलब। चेन्ह टूटत पयर केर

    आओर स्वर फेर

    फूटि सकैतछि हमर...

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 142)
    • संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
    • रचनाकार : गंगेश गुंजन
    • प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, सुपौल, बिहार
    • संस्करण : 1971

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