डैरेन एरोनोफ़स्की की फ़िल्म ‘मदर’ देखकर
मेरी कोई इच्छा नहीं थी
कि अचानक चमक उठे कोई धूम और बनने लगे सृष्टि
लेकिन यह बनी
और बनते बनते फैल गई हर तरफ़
मेरी कोई इच्छा नहीं थी
कि अनंत में तिनके की तरह भटकता
यह आग का गोला
एक दिन ठंडा हो
यहाँ बनने लगे समुद्र
समुद्र में जन्मे जीवन
और वह धरती आकाश हर जगह पहुँच जाए
मेरी कोई इच्छा नहीं थी
मेरी आकांक्षा के बिना ही बात आई वानरों तक
मेरी आकांक्षा के बिना ही
बात मनुष्यों तक पहुँची
मैंने कभी नहीं चाहा
कि जीवन लड़ाई बन जाए
और यह लड़ाई हो जाए इतनी इकतरफ़ा
कि एक प्रजाति
सारी प्रजातियों की चिता पर बैठी गाती रहे मनुष्यता के गीत
लेकिन गीत गाये जाते रहे
मैं पृथ्वी भूनकर नहीं खोजना चाहता दूसरी दुनिया
लेकिन वह खोजी जा रही है
मुझसे किसी ने नहीं पूछा
कि हम कैसे बनाएँ ऐसी मशीनी मेधा
जो कभी हमको ही मिटा दे
लेकिन वह बनती जा रही है
और यह देखकर भी नहीं रोक रहा
मैं किसी को कुछ भी करते हुए
मैं नहीं चाहूँगा
कि हमारा यही प्रतिनिधि एक दिन जा भिड़े
ब्रह्मांड में किसी और सभ्यता से
लेकिन शायद यह होगा
मैं क़तई नहीं चाहूँगा कि एक दिन सूर्य बुझ जाए
गृह-नक्षत्र सारे समा जाए किसी काले भँवर में
लेकिन यह होगा
जब कुछ नहीं रहेगा
तो न हो कोई धमाका
और न हो फिर से सृष्टि का आरंभ
बस यही इच्छा है मेरी
एकमात्र!
लेकिन कौन सुनेगा मेरी बात
यहाँ कौन किसकी मानता है
यह कैसी गड़बड़ है
कैसा वबाल
कि कुछ नहीं होने के बाद भी
फिर से होने लगेगा सब कुछ
और सब कुछ ऐसे ही
बिना आस और अनिच्छा के चलता रहेगा लगातार
बार-बार-बार!
मुझे इस बार भी कुछ नहीं आएगा रास
लेकिन हर बार की तरह फिर से पोछूँगा अपनी आँख
ताकि फिर से रो सकूँ
एक और बार
- रचनाकार : बलराम कांवट
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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