बाल इंदु

baal indu

मदन वात्स्यायन

और अधिकमदन वात्स्यायन

    रजनी की नीली धारा, संध्या

    का धवल कगार—

    बुद्धि-वासना का संगम

    तम पर प्रकाश की धार,

    पट पर 'तारा' के 'ग्लैमर'-सा

    एक अंग से, दो घंटों को,

    दर्शनीय लग गया दीखने

    वह विमान चमकार।

    दिवस-प्रभा की आँख झपकती,

    रति-सुस्मित का द्वार,

    रवि-कर-सुर की कड़ी, निशा का

    अमल धराउ हार,

    किसी जरठ शकुनी की लिप्सा

    की वेदी पर चढ़ी हुई है,

    असमय में टूटी प्रकाश की

    यह कलिका सुकुमार।

    यौवन अदम अ-दम बन कर ही

    जिसका पाता प्यार,

    छौड़ सुरभि जिसके तन की बू

    करता रहे प्रसार,

    तिल-तिल कर या असुर-यंत्रणा

    में डैने पीटता रहे—

    अहो, कुमार मेघ का कैसा

    यह निर्मम व्यापार।

    बना रहे समता-समाज

    हज्जारी मनस-बदार

    लाठी के हाथों विरचेंगे

    स्नेह-भरे परिवार।

    मेम साहिबा दुलराती है

    बच्चे को अँग्रेज़ी में,

    मियाँ देश की नई ऊषा को

    करते मंत्रोच्चार।

    नए हिंद का बाग़ लगाते

    पटा दूध (जल-धार।)

    अपने-अपने प्रांत, जाति के

    भव्य पोश सरदार।

    मुँह सी दिया अगर जनता का

    तो सुख-चैन हुआ क़ायम,

    सबका पेट भर गया, इनको

    आई अगर डकार।

    सारी प्रजा सर्वहारा है

    सोशलिज़्म तैयार;

    ज़र, ज़मीन, जोरू, जीवन

    सब पर इनका अधिकार।

    माया-ममता के तटस्थ हैं,

    पर घूस, घर-नारी से।

    सबका दर्द हृदय में, जिनका

    दुर्लभ है दीदार।

    एक हाथ यम-दंड, दूसरे

    में पैसे की मार,

    अगली पीढ़ी को मिट्टी में

    मिला रहे हथियार।

    कर्ज़ काढ़ कर कर्ज़ सधाते,

    क्लिक-बंदी से ऐक्य-सृजन,

    नोंच-नोंच कर ईंट बिठाते,

    टूटी जहाँ दीवार।

    सच है, बाहुबली है, जाता

    विघ्नों के उस पार;

    सच है, बुद्धि बड़ी है, रचती

    नरता के शृंगार।

    बाहु, बुद्धि भी झुक जाते हैं

    वैसे गहन ज़माने में,

    टिम-टिम जलती है आशा, वह

    हृदय-देवता-द्वार।

    सोशलिज़्म एक बड़ी चीज़ है।

    गंगा का अवतार,

    इसे चाहिए तपस्वियों की

    सत्य-पूत सरकार।

    हाय नेहरू, तेरे दीमक

    तेरी पूँजी चाट रहे,

    राम-राज्य की जगह लग रहा

    रावण का दरबार।

    मगर तोड़ कर ही लाते हैं

    पर्वत गंगा-धार,

    मगर तोड़ कर ही जाते हैं,

    अंधकार का भार।

    फूलों की शैया पर लेटा

    यौवन अदम अदम क्या है।

    जो काँटों का ताज पहने

    प्रलय-तड़ित् का हार।

    पूरब में घिर रही कालिमा,

    अग-जग में अँधियार,

    मौन दिशाएँ हुईं, कि जैसे

    मुर्दा है संसार।

    पर प्रकाश की लिए पताका

    प्रहरी अभी पुकार रहा,

    डूब रहा तिल-तिल पश्चिम में,

    मुँह में जय-जयकार।

    कठिन मोल है—धरे शीश को

    पिए गरल का सार,

    धरे नखों में, असुर-शक्ति का

    सके कलेजा फाड़

    कर्ण-वलय उसका यह, जिसने

    रिपु को विजय लुटाया की,

    धरे कंठ जो मना रहा

    अपनी बलि का त्योहार।

    दिग्गज-दंत, धरे ऊषा के

    स्वर्ग-लोक का भार,

    दाँत उठा, कर ही लाता जो

    भूमि प्रलय के पार

    हृदय-हीन शून्योदर दानव

    लील नहीं पाता जिसको,

    वंदनीय उस बाल इंदु को

    नमस्कार शत बार।

    (क)

    सहसा जाग उठे जैसे

    विस्मृति के श्यामल हार

    सुखद याद का जुगनू निश्चल,

    जाग उठी सँझियार,

    दे संदेश निशा को रवि का

    नीड़ देर से लौट रहा खग—

    तार ज्योति का तार ज्योति का

    तार ज्योति का तार।

    [तार—सिलसिला, टेलिग्राम (संक्षिप्त पत्र), तार (वुलक या कुंडल के योग्य), कान का गहना]

    (ख)

    रोर - ‘रुर - रौ रोरी रर - रु।'

    ‘रु ! ? रु ! ? - र, रिर रार;

    रर्रा रो रो ररा - ‘र रु' !

    रोरा - रु - रोर - रार !

    सुरसरि-सारस सी सु-रौस,

    सर-सरा सरिस रु-सार—

    सरसा रस, रोसी रर्रा, सर

    रुस, रसी सरसार,

    सरसी सु-रु, सुरा-सरसा सुर,

    सिर स-सुरुर, सुरासुर सुर,

    -रीस-रास, रस-रसा, संसरी

    रसा-सार, रस-सार।

    [र–र अक्षर और रेफ़, अग्नि, कामाग्नि। सर-सरा = अप्-सरा

    रसा-सार—एक मत है कि चंद्रमा पृथ्वी का ही एक हिस्सा है जो निकल कर अलग जा पड़ा है।

    रार = रार। रुस = रूठ]

    (ग)

    उपल-दाँत दिन की दादी का

    दंतमंजन-दमकार,

    मिस रजनी की जूती पर

    पालिस का बढ़ा निखार,

    नभ बंजर को जोत रहा है

    शाम राँड़ का इकला हल,

    बीड़ी जला यूँ माचिस फेंकी

    स्वर्ग-नरक का यार।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शुक्रतारा (पृष्ठ 27)
    • रचनाकार : मदन वात्स्यायन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2006

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