एकेबेर एहन नहि भेलैये
अहू शहरक ठोरसँ
मुक्तिगीत बहराइत रहलैये बेर-कुबेर
उन्मादी बाटकेँ ठाठल जाइत रहलैये
विरोधक बाँस द्वारा
ओना ई दीगर बात थिकै
जे हमरालोकनि
पछिला रोटी खयबाक आदी भऽ गेल छी
शहरक टोल-पड़ोसमे
जखन लहकै छै ज्वाला
हमर परबरदिगार
हमरा सभकेँ शान्तिक पाठ पढ़बैत छथि
आ अपने 'फाइव-स्टार-होटल’मे पड़ल
कोनो सुन्दरीक ठोरक उपमा तकैत रहैत छथि
वास्तविकता छै जे
हमर बादशाहलोकनि
आंतरिक कलहमे फँसि गेल छथि
अपन आसनक बचावमे
हुनका पलखति कतऽ
जे प्रजाक धंधि करथि!
असलमे
एहि ठामक शासन-संस्कृतिमे
एखन बहुत रास चरित्र जनमि आयल अछि
जेना
एगो चरित्र एहन छथि
जनिक कनगुरियापर नचैत छथि साहेब
पमरियाक तेसरक एत्ता नहि अछि
जे, हिजड़ा-सखाक संगे एतऽ प्रवेश केने छल
एकर अतिरिक्त
नेपथ्यक बहुत रास चरित्रक खाम्हपर
टिकल छथि हमर साहेब/परबरदिगार
हमरालोकनिक नियम-कानून, आचार-विचार
ओत्तहिसँ संचालित होइछ
राजासाहेबक अनुशासित प्रजा हमरालोकनि
ताही डाँरिपर चलना हेतु विवश छी
मुदा,
एकेबेर एहन नहि भेलैये
अहू शहरक राजमार्गपर
शहीद होइत रहलैये मुक्तिकामी
ओना ई नगर
अपन संस्कार गमा चुकल अछि
एकर स्वरूपपर बहुत रास हवा-बिहाड़ि
अपन-अपन आकृति बनयबाक प्रयास करैत रहलैये
ई बिसरि चुकल अछि
जे कहियो हमर आंगनमे
चाणक्य विराजैत छलाह
चण्डाशोक एही ठां
प्रियदर्शी अशोक भेल छलाह कहियो
कहियो एही ठां
सम्पूर्ण क्रांतिक सपना देखल गेल छलै
एकेबेर एहन नहि भेलैये
अठारह मार्चक बिगुल एतहि फूकल गेल रहै
ओना से सब मोन रखबाक
पलखति कतऽ छै लोककेँ
लोक आब जखन लोके नहि रहि गेल अछि
अपन अतीत कोनाकऽ स्मरण करत!
ई लोक तँ पिसाइत रहल सभदिन
कहियो टोपसँ
कहियो टोपीसँ
कहियो जमीन्दारसँ
कहियो जमादारसँ
से
जखन एहि ठामक लोक
मृतवत रहैत आयल अछि
जीबाक सपना कोना पोसि सकैछ?
ओ किये मोन राखत—
शहीद-स्तम्भ
आकि, गांधीबबाक चम्पारण
आकि, कुंवर सिंहक कीर्त्तिगाथा
आकि, सूरज बाबूक शहादत
आकि, भोजपुरक गाम
आकि, सेलीबेली
आकि, भटसिम्मरिक लहुआयल धाम
किये मोन राखत?
एतऽ तँ लोककेँ सीतो नहि मोन पड़ैत छथिन
भले जीहपर टङल रहथु हरदम
हमर सरकार/हमर जहाँपनाह
हमर अप्पन/हमर आन
की-की नहि केलनि हिनका संग
गाम सँ लऽ कऽ एहि नगर धरि
टुग्गरि जकाँ नचैत रहलीह सीता
अपन कपारपर
कनैत रहलीह सीता
ओना
से एकेबेर एहन नहि भेलैये
अहू शहरक राजमार्ग पर/भाषाक नामपर
रक्त-तिलक लागल रहै कहियो
मौगियाह मैथिल
राजपथपर आयल रहै कहियो
से हम कहऽ चाहैत रही बहुत रास बात
जेना कि—
ई शहर पाटलिपुत्र
आब तमाम अपाटक-पुत्रलोकनिक
विश्रामागार बनि गेल अछि
श्रमजीवीक सिसोहल पसेना
एही ठां सुरा आ सुन्दरीक बीच गमाओल जाइछ
कागजी घोड़ापर सबार भऽ
दुलकैत चलैये एहि ठांक विधानसभा
न्याय-सभा आब
हमर साहेब धौरबी बनि
रहब स्वीकारि नेने अछि
आ, ताही सभक बीच
चानमुठ्ठी बनल ठाढ़ अछि जनता जनार्दन
बैशाखनन्दन बनल/ढो रहल अछि व्यवस्थाक दुर्गन्धकेँ
ओना
एकेबेर एहन नहि भेलैये
कहियो काल एहि राजमार्गपर
तीर आ धनुषक हुजूम देखल जाइत छै
भाला आ गराँसक प्रवाह देखल जाइत छै
गबाह बुढ़ा गांधी मैदान
कहैत छै बहुत रास विचारकक
मुक्तिकामी विचारक आँखि देखल हाल
मुदा,
कतौ ने कतौ तैयो गड़बड़ी छै
ओरियानी लगा अड़काकऽ ठाढ़ छै जेना सभक चेतना
गोटपगड़ा टिक्कड़ जकाँ बरिसैये ई लोक
एखनो ई नगर पाटलिपुत्र
कोटि-कोटि मनुक्खक संग खेलौड़ि कैये रहल छै
सभक छातीपर मूंग दरड़िये रहल छै
से कतौ ने कतौ गड़बड़ी छै
छुट्टा सांढ़ जकाँ उमकैये ई व्यवस्था
लोककेँ कोल्हुमे कुसियार जकाँ पेड़ैये ई व्यवस्था
ई लोक एखनो सिठ्ठी जकाँ चूसल जाइये
कोनो नेना जकाँ बूझल जाइये
भाषण आ आश्वासनक खेलौना लऽ खेलाइये ई लोक
से हम कहऽ चाहैत रही
बहुत रास गप्पक संग एकटा गप्प
जे एकेबेर एहन नहि भेलैये
पानि रहरहाँ निच्चे मूँहें नहि बहलैये
मेहनतिकशक पसेना पहाड़ सेहो तोड़ऽ लगलैये
लोक आब, से लोक नहि रहि गेल छै
घूर तरक गप्पमे आकि चौक परक गप्पमे
नून-तेलक गप्पमे आकि टेबुल परक गप्पमे
देखल जाइत छै अक्सरहाँ
जे एहि लोकक अन्तरमे
पनगि रहल छै अपन श्रीमानक प्रतिये उपेक्षा-भाव
लोक नहि चाहैये जे बहु भऽ कऽ रही
लोक नहि चाहैये जे महु भऽ कऽ रही
मुदा एकेबेर एहन नहि भेलैये
जे मालिकश्री निसभेर होथि
आंतरिक कलहसँ लऽकऽ कुर्सीक संकट धरि
हुनका बिकोटने जाइत छनि
जागलोमे चेहाकऽ उठि बैसैत छथि ओ
एसगर निकलऽमे घमाइ छथि ओ
से हम कहऽ चाहैत रही
अपन एहि गोसाउनि घरक अन्तर्कथा
जागल लोकक अन्तर्व्यथा
हम कहऽ चाहैत रही बहुत रास कथा
जे,
लोकक नाड़ी टो कऽ पढ़ल जा सकैछ
असमय बूढ़ भेल लोककेँ देखिकऽ कहल जा सकैछ
आब लोकक आँखिमे जनमि रहल छै ज्वालामुखी
कष्ट आ घृणाक पर्वतमाला आब चनकि रहल छै
सचिवालयक आगूक छोटकी मीनारमे घोंपल समय
आब चेता रहल छै एहि रंगमहलकेँ
मुक्तिकामीक बढ़ैत लपटमे
जड़िकऽ स्वाहा भऽ जायत ई प्रतीक
समाजवादी व्यवस्था लेल गोलबंद ई मुक्तिकामी
अपना संग हुजुमकेँ कऽ रहलैये तैयार...
से कहैत रही—
एकेबेर एहन नहि भेलैये
उपक्रम होइत रहलैये बहुत
मुदा
क्यारी-क्यारीमे बँटायल अछि
एखनो लोक बुझनूक...!
- पुस्तक : उपक्रम (पृष्ठ 42)
- रचनाकार : बिभूति आनन्द
- प्रकाशन : भवानी प्रकाशन
- संस्करण : 1984
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