निमाती कन्या

nimati kanya

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ

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निमाती कन्या

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ

और अधिकलक्ष्मीनाथ बेजबरुआ

    एक

    रतनपुर के राजा की थी वह इकलौती बिटिया

    रूपसी-बिटिया, घर की उजियाली, नाम था 'निमाती कन्या'

    जब से जन्मी, बात बोली खिली हँसी भर अधरों पर

    हर-क्षण उजली, मान-अभिमान नहीं केतकी की पंखुड़ी-सी

    बुद्धि की ज्योति, ज्ञान की दीप्ति फैली थी, दोनों नयनों में

    भावना में अमृत, रूप में लावण्य बिखर रहे थे चारों ओर

    कौन कहेगा गूँगी उसको, नहीं निशानी गूँगेपन की, अंग-अंग में मोहक बोल

    चलने-फिरने में वचन खुलते शब्दहीन केवल कल्लोल

    मात-पिता के मन में था दुख, इकलौती उनकी कन्या

    बोलती नहीं, क्यों, कैसा यह दुर्भाग्य हुआ? कहाँ करें अब कौन उपाय?

    वैद-ओझा, ज्ञानी के सारे हो गए यत्न विफल

    राजा-रानी रहे व्याकुल

    दुख-ताप से जल रहा हृदय, पूजा-सेवा, दान-दक्षिणा हुए विफल।

    दो

    आया यौवन छलका, निमाती के रूप से जगमग होता घर

    राजा-रानी की बढ़ी सोच 'कहाँ मिलेगा कोई वर'?

    देश-विदेश में फैला समाचार, 'निमाती कन्या मिलेगी उसे दान

    जो युवा अनबोली कन्या को करेगा वचन-प्रदान।’

    कन्या पाने के लालच में राजकुमार उमड़े आए ज्यों भौंरों के दल

    तरह-तरह के युक्ति-तरीक़े उपाय, सभी प्रयास गए हार,

    सबने ली राहें अपनी। राजा परेशान कन्या भी परेशान

    ढोल बजवा राजा ने फिर घोषणा करवाई, जो प्रयास से रहेगा विफल

    चढ़ाया जाएगा उसे शूली पर

    सुन आदेश, जो जैसे आए वैसे ही भागे राजकुँवर सारे

    कोई हिम्मत बाँधे आता यदि, भेजा जाता कारागार में हारने पर

    तीन

    कमतापुर का था वह एक कुँवर, 'आलसुवा' था उसका नाम

    सदा दिन-रात बजाता वीणा, राज-कार्य से कोई काम

    बाप हारा, मंत्री हारे, हार गए गुरु पढ़ाने वाले

    वीणा बजा बस समय गुज़ारे, नहीं था और किसी पर मन

    बावला-सा बजाता वीणा, नहीं करता ज़्यादा बात

    जीवन का उद्देश्य, सृष्टि का भेद ज्यों वीणा में हों गूँथे सभी—

    राजा ने छोड़ी आशा, कुँवर की, मंत्री-सामंतों ने छोड़ी आशा

    पानी अंजुरी भर दे देती माँ, बस मंझले पर टिकी सभी की आशा

    सो राज-पद, कुँवर को हुआ संतोष मिटा जंजाल झमेला, बढ़ा उत्साह दूना होकर

    तल्लीन हृदय सब कुछ भूला, बजाता फिरता वीणा दिन भर

    चार

    कौवों-चीलों ने उसे सुनाया समाचार, निमाती के पिता का प्रण

    कौन जाने, किसलिए मचला वहाँ जाने को कमता-कुँवर का मन?

    केवल वीणा थी, पथ की संगिनी, जा पहुँचा कुँवर वहाँ—

    नमस्कार कर कहा राजा से, महाराज अनबोली की जगाऊँगा मैं बोली।

    नृपमणि, लौकी-तुंबी और काठ की वीणा मेरी,

    सूखी खाल से बनी, जगाती सुधामयी स्वर लहरी।

    कन्या यह आपकी तो अतुल सुंदरी, रक्त-मांस से निर्मित

    यह बोले, कौन बड़ी बात? मेरा कहना नहीं ज़रा भी अनुचित

    पाँच

    नृप वर ने नख-शिख तक सब कुछ देख, कुँवर को विस्मित

    स्नेह-रस से हृदय पिघला, उमड़े आँखों में आँसू संचित।

    सोचा, अनुपम शुभ लक्षण-किशोर, होते दर्शन से शीतल-नयन।

    निमाती बिटिया अगर बोले, तो होगा अनर्थ सघन

    बोला, राजा, मेरे बेटे, मत करो ऐसी हिम्मत, वापस जाओ घर

    बड़ा निर्मम कठोर प्रण है मेरा, दुख मिलेगा असफल होने पर।

    रहने दो वैसी ही बिटिया को, ज़रूरत नहीं बुलवाने की, तुम्हें दूँगा जब दुख

    नहीं सुनता, वचन अगर, नहीं सुनता मधुभरा स्वर

    मिले नैन से ही लिखकर सुख।

    छह

    कर प्रणाम, कहा कमता कुँवर ने, मुझे करें निराश

    परखूँ भाग्य में बदा मेरा, आया हूँ इसी हेतु, परखने दें, तोड़ें विश्वास

    विवश नृपति ने दे दी अनुमति, कन्या को वहाँ बुलवाकर

    प्रसन्न कुँवर ने लगाई उँगली, तिरछी पकड़े वीणा पर;

    बरसाने लगी वीणा, सारंग, गांधार, कामोद रागिनी के अमृत-स्वर

    'निमाती कन्या' का हृदय डूबा, खोया अमृत रस में, सभी हुए स्तंभित लखकर

    ध्वनि-प्रतिध्वनि का स्वर फूटा, आनंद-छंद से नाचे प्राण

    कर आलिंगन कुँवर को उठी कुँवरी पुकार, 'ओ मेरे प्राणप्रिय, जीवन-धन'

    उठकर उल्लसित नृप ने दोनों को भर बाँहों में, सूँघे दोनों के सिर सहास

    ‘वीणा-कुँवर’ को किया कन्या प्रदान, मुदित रंगों में डूबा पुर, फैला मधुमय प्रेम सुवास।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बेजबरुआ की चुनी हुई रचनाएँ (पृष्ठ 16)
    • संपादक : नगेन सैकिया
    • रचनाकार : लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ
    • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
    • संस्करण : 2008

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