भिक्षा

bhiksha

रघुनाथ चौधरी

और अधिकरघुनाथ चौधरी

    हे प्रभु, तुम्हारा ऐश्वर्य विभूति राजपद सम्मान गौरव

    मुझे नहीं चाहिए। दरिद्रता का भिक्षापात्र ही मेरा अतुल वैभव है॥

    सयम का कंठहार मैं अत्यंत तुच्छ समझता हूँ।

    अत: उसे गले नहीं लगाऊँगा। अपमान अपयश लांछना

    बड़े आग्रह के साथ शिरोधार्य कर लूँगा॥

    मेरे इस हृदय में उच्चाकांक्षा नहीं है। मुझे सबसे

    छोटा बना दो! उसी तरह जैसे मैदान के बीच पत्र-पुष्प-फलहीन

    वृक्ष अकेला खड़ा रहता है॥

    हे प्रभु, दो दिन के सुख की सामग्रियाँ या तुम्हारी पार्थिव

    संपदा मुझे नहीं चाहिए। क्योंकि ये सभी बीच रास्ते में ही

    मुझे अकेला छोड़कर कभी-न-कभी चली जाएँगी॥

    मुझे सुंदर शरीर कमनीय कांति दाँव-पेंच आनंद

    विलास नहीं चाहिए। ये सभी मोह के विकार है—रूप की

    छलनाएँ मात्र हैं—उन्हें पाने की मेरी अभिलाषा नहीं है॥

    पियाची कामना को मैंने बहुत दूर भगा दिया है। उसने मुझे

    बहुत से दुख दिए हैं। उस राक्षसी के विकराल मुख का स्मरण

    होते ही मेरा शरीर सिहर उठता है॥

    अभाव की यत्रणाएँ भोगकर चिरदिन में चिरदुखी बनकर

    रहूँगा। परंतु सम्मुख में धन का जो अंधकूप है उसमें मेरे पैर

    फिसलने पाएँ॥

    यद्यपि भ्रम में हलाहल पीते हुए मेरा हृदय भी काला हो जाए,

    फिर भी मैं उसे चुपचाप सहूँगा। संसार में और भी जितनी

    ज्वालाएँ हैं, मुझे दे दो॥

    इस दग्ध हृदय में शत-शत वृश्चिक दंशन भोग रहा हूँ

    और भोगता रहूँगा। फिर भी दुख नहीं करूँगा। तुम्हारे

    पास रहकर सदा आनंद में मग्न रहूँगा॥

    मेरे मुँह की हँसी यदि रहे और आशा की लता अगर टूट

    भी जाए—तब भी मुझे सांत्वना देने वाले विषाद के आँसू

    मेरे साथी रहेंगे॥

    आशा-सुख शांति-भ्रम वासना-तृप्ति ये सभी मृगतृष्णाएँ

    हैं। बहुरूपी बनकर ये मुझे सिर्फ़ धोखा देती हैं और अंतर में

    भ्रम उत्पन्न करती हैं॥

    इसलिए, मैं सुख नहीं चाहता, प्रकाश मुझे नहीं चाहिए

    और उसकी याचना भी नहीं करूँगा। सभी प्यारी वस्तुओं को

    मैंने फेंक दिया है—मेरे लिए तो अंधकार ही अच्छा है॥

    चाहे कितने ही दुख-दन्य मेरे कंधों पर क्यों लाद दो,

    मन में दुख नहीं करूँगा। इन सबको तुम्हारी विभूति

    समझकर उन सबको सहता जाऊँगा॥

    सुख-दुख हास्य-अश्रु हर्ष या विषाद—सभी कुछ तुमसे ही

    उद्भव होते हैं तुममें ही मय भी होते हैं। जीवन का अनुकूल-प्रतिकूल

    सब कुछ तुम्हीं हो—मैं सभी में तुम्हारा ही दर्शन करता हूँ॥

    हे दयामय! तुमसे मैं एक भिक्षा माँगता हूँ—मुझे

    आश्वासन दो—पत्थर की लकीर की तरह तुम्हारे प्रति मेरा

    अटल विश्वास चिरकाल तक बना रहे॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि-श्री माला (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : कवि के साथ संपादक-अनुवादक परेश चंद्र शर्मा और लोकनाथ मराली
    • प्रकाशन : राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा
    • संस्करण : 1962

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