अलमारी और उसमें रखे एलबम

almari aur usmen rakhe elbam

शचींद्र आर्य

शचींद्र आर्य

अलमारी और उसमें रखे एलबम

शचींद्र आर्य

और अधिकशचींद्र आर्य

    भले एक कमरा था,

    वह हमारा घर था।

    उसी में थी एक अलमारी,

    दीवार में चुनी हुई।

    लकड़ी के दरवाज़े थे उसके

    सीमेंट और सरिये की एक ही स्लैब

    उसे दो भागों में बाँट देती थी।

    उसकी ऊँचाई रही होगी

    कुछ सात-आठ फुट

    उसी में थे, साल में एक बार खुलने वाले

    लोहे के बक्से, कुछ कनस्तर,

    एक छोटा सा लोहे का ट्रंक

    अम्मा की अटैची,

    पिता का बहुत सारा ज़रूरी सामान।

    वहीं उसकी दीवार पर

    गोंद से चिपकी हुई दो तस्वीरें।

    उनमें बाबा और दादी थे

    उन दोनों तस्वीरों में रंग नहीं थे

    काले और सफ़ेद के अलावा।

    इसी अलमारी के ऊपर वाले ताखे में

    रखे हुए थे बहुत सारे एलबम

    बहुत सारी, बहुत पुरानी तस्वीरों वाले

    थोड़े फटे

    पर सँभाल कर रखे हुए एलबम।

    अक्सर गर्मियों में जब नहीं जा पाते थे,

    हम सब गाँव

    तब किसी अलसाई,

    गरम दुपहर में,

    जब पिता नहीं होते थे घर पर

    अम्मा से पूछ कर हम खोल लेते थे,

    यह सारी खिड़कियाँ

    यह खिड़कियाँ ले जाती थी,

    समय में बहुत पीछे

    इतना पीछे,

    जब हम भी नहीं थे,

    इस दुनिया में कहीं।

    शाम जब पिता लौटते,

    तब तक हम वहीं होते,

    कुछ-कुछ अपने अंदर से बहुत भरे हुए,

    कुछ रुआँसा,

    कुछ ऐसे जैसे भीग गई हो एक ईंटिया दीवार,

    अंदर गई हो सीलन

    जैसे हम अभी वक़्त में पीछे जाकर लौटे हों

    इस लौटकर आने में समझ पा रहा हो,

    हमारे साथ वहाँ क्या हो गया

    थोड़े-थोड़े हम वहीं छूट जाते

    साथ ला ही नहीं पाते ख़ुद को।

    इतने सालों बाद,

    जब इस बात की याद को सोच रहा हूँ

    तो लगता है, सब वहीं वक़्त में पीछे दर्ज है।

    आज अलमारी को ख़ुद में

    समेटे रख पाने वाला वह घर कहीं नहीं है।

    उसे पाँच साल पहले तोड़ दिया,

    वो सारी खिड़कियाँ वहीं रह गईं।

    तब से वह सारे एलबम कहाँ है,

    किसी को नहीं पता।

    किसी को नहीं पता,

    कहाँ गुम हो गए हमारे सारे दिन।

    इसी में ख़ुद को देखता हूँ

    तो थोड़ा-थोड़ा घर

    थोड़ा-थोड़ा अलमारी

    और थोड़ा-थोड़ा तस्वीरों वाले एलबम

    सब कुछ बना हुआ महसूस करता हूँ।

    लगता है, वह जो छूट गया,

    मुझमें कभी छूट ही नहीं पाया

    हर बार किसी लिखी,

    किसी अनलिखी पंक्ति में

    ख़ुद को अलमारी वाला घर पाता हूँ

    और दोहराते रहना चाहता हूँ

    वही सारे पुराने दिन

    जो मेरी तरह कहीं इसी दुनिया में खो गए हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शचींद्र आर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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