आया हूँ, मैं आया हूँ

aaya hoon, main aaya hoon

अनंत पटनायक

अनंत पटनायक

आया हूँ, मैं आया हूँ

अनंत पटनायक

और अधिकअनंत पटनायक

    आया हूँ, मैं आया हूँ

    दुःख का दुर्भेद्य प्राचीर तोड़कर

    मैं आया हूँ।

    रक्त का दुस्तर पारावार लाँघकर

    मैं आया हूँ।

    कृमि-कीटक का नग्न उल्लास चीरकर

    मैं आया हूँ।

    ललाट में भविष्य का उत्कीर्ण टीका लगाकर

    स्फुलिंग की प्रवहमान ऊर्मि के समान

    मैं आया हूँ।

    प्राण का अधिपति मैं सूर्य

    स्नेह का प्रतिनिधि मैं चन्द्रमा

    पर्वत-स्रोत के दो भाग करते हुए आया हूँ।

    मैं ध्वंस करूँगा

    वत्सहरा नारी की जलती हुई आँख की ज्वाला

    मैं बरसाऊँगा

    सहस्र-धार अश्रु की एक बूँद

    लौहगर्भा धरती के नाभि-पद्म को खींचकर

    मैं आया हूँ।

    उसकी आत्मा को चूसकर मैं लाया हूँ स्तन्य

    हे नारी! तुम्हारे स्तनाग्र में लहराती रहे

    क्षीरसागर की तरंग

    हे शिशु! मैं हूँ तुम्हारी स्फूर्ति, मैं आया हूँ

    प्रीति का खिलौना, मैं चन्द्रमा,

    ज्योति का मंदार-पुष्प, मैं सूर्य

    आया हूँ मैं आया हूँ।

    कबंधों के नृत्य कौन रचता है! इन्हें बंद करो

    विकृति के विग्रह कौन बनाता है? दूर हटो

    बंदूक़ का रास्ता रोककर मैं आया हूँ।

    बेकार लोगो! सबेरे के चीत्कार को आज पोंछ डालो

    अरे क्लर्क! रात का प्रलाप आज पोंछ डालो

    पशुत्व की व्यवधान-मुखी बाँझ नारी की प्रीति का भ्रूण

    मैं आया हूँ।

    पीले आकाश में तुम्हारे नत्थी किए फटे काग़ज़

    वे उड़ते हैं,

    शरत् का शुभ्र बादल

    आज चुप है,

    अपने आपको उजाड़कर

    जलधि के मंद्र निनाद के समान

    प्यार करो, मुझे प्यार करो,

    मैं आया हूँ।

    मैं फसलों की शाश्वत वाणी हूँ, मैं आदेश हूँ।

    चिमनी की कालिख से लिखकर

    कपास की छिन्न-भिन्न कंथा में

    कौन खाँस रहा है? खाँसो,

    तुम्हारे पिसे हुए मांस-पिंडों में वज्र का विलाप

    बजने दो।

    बुढ़ापे से पहले ही सफ़ेद हो गए बालों में

    रेशमी वस्त्र का स्पर्श लगने दो।

    युग के वक्ष पर मैं अकाल वसंत की तितिक्षा हूँ

    मैं पुरु हूँ।

    मैं तुम्हारे कपाल का पसीना हूँ, तुम्हारे होठों पर चूकर

    मैं आया हूँ, मैं आया हूँ।

    यंत्र-मुखर दिन की निर्निमेष नीरवता में

    खंड-खंड करके

    मैं आया हूँ, मैं आया हूँ।

    अणु-खड्ग कौन पकड़ता है? दूर हटो

    वैद्युतिक पवन कौन लाता है! दूर हटो

    आया हूँ, मैं आया हूँ।

    विनीत अनुरोधों के अर्जी-स्तूप को हटाकर मैं आया हूँ

    स्थविरता का मर्म भेद करके

    मैं आया हूँ।

    मैं तारुण्य का अभिमान हूँ।

    हल का रास्ता कौन रोकता है? पत्थर?

    फसल का विकास कौन रोकता है? टिड्डी-दल?

    आत्मा का कंठ-स्वर कौन रोकता है? आततायी?

    मेरा बाधा-हीन विकास आगे बढ़ता है

    दिक्-दिगन्त में आगे बढ़ता है

    प्राण की भावनाओं से दूर हो जाओ

    कातर अश्रु के प्रेत।

    आया हूँ, मैं आया हूँ।

    हृतकंपन की जलती हुई अग्नि-शिखा की बाती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 47)
    • रचनाकार : अनंत पटनायक
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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