आत्मा-कलबूत

aatma kalbut !!

भगवंत सिंह

भगवंत सिंह

आत्मा-कलबूत

भगवंत सिंह

और अधिकभगवंत सिंह

    मैंने सीख ली है उससे कला

    आत्मा को धकेलकर फेंकने के बाद

    महज़ देह को सहलाने की

    मैंने आवाज़ों, कशमकशों से

    कजराया जो अपना अस्तित्व

    हर किसी से किनारा करके

    छिपाए रखता था

    अब सीख ली मैंने कला

    नग्नता के दरबार की

    चित्तवृत्तियों को भी

    बात-बात में

    हँसकर निपटने की

    लेकिन यह सब कितना निर्मल

    बहुत फ़िजूल गर्म साँस मेरे

    काल कवलित हो गए, गुमसुम

    कैसे कह पाऊँ मैं अतीत की बंद खिड़की के

    सामने ठहरकर—खुल जा सिम-सिम

    लाख कोशिशें करूँ, सबूत होना चाहूँ

    बीता समय लपककर कैसे बुहारूँ

    कुछ कम कर चुका मैं

    अपने अस्तित्व में से

    अकेला, वियोगी स्थिति में जीवन-दंड को

    जीवनभर स्वीकार करता

    निश्चित अबोध के पश्चात

    सामूहिक चावों को स्थाई

    अनिश्चित समय के लिए

    क़ैद में रखना

    यह होनी मैंने हँसते-हँसते

    अंतर्मन से स्वीकार कर ली।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 211)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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