प्रभात की ‘एक कविता पैदल चलने के लिए’ को पढ़ते हुए
एक
बहुत अच्छा होते हुए उसने कहा—आशा का कोई पेड़ नहीं होता, आशा का सिर्फ़ लाल ख़ून हो सकता है, जो बहता है हमारी रगों में।
मैं तब से अपनी रगों में बहते ख़ून को महसूस करता हूँ और आशा को याद करता हूँ। एक किताब में लाल की लालिमा में भी मुझे आशा दिखती है। सूरज की लालिमा की तरह।
जबकि आशा नहीं है इन दिनों, आशा तब भी नहीं थी जब उसने कही थी आशा के लाल ख़ून वाली बात।
दो
मुझे पता है आशा नहीं है, जैसे नहीं है ईश्वर पर
किसी नदी की गहराई में डूबूँगा तो आशा को याद करूँगा
किसी पहाड़ से गिरूँगा तो आशा याद करूँगा
किसी बीमार के घर जाऊॅंगा या हो जाऊॅंगा बीमार तो भी याद करूँगा उसे ही
संकट के क्षणों में मैं आशा को बार-बार याद करता रहूँगा जैसे लोग ईश्वर को याद करते हैं
जबकि लोग ईश्वर को याद करते हैं, जैसे आशा को याद कर रहे हों।
आशा और ईश्वर दोनों नहीं हैं, उनकी सिर्फ़ यादें हैं।
तीन
जिस दिन आशा की याद न होगी उस दिन उस याद को दुबारा याद करने की कोशिश करूँगा और ख़ूब ज़ोर लगाऊँगा कि याद आ जाए। इतना घबराऊँगा कि जैसे वह याद न होगी तो नहीं होगी कोई और याद, ईश्वर की याद भी कहीं ज़मीन में दब जाएगी। दबी हुई यादों के दिन जी फाड़कर रोता मिलूँगा, आधी रात अगल-बग़ल के लोग नींद तोड़ मेरे कमरे की तरफ़ देखेंगे, एक व्यक्तिगत परेशानी की तरह जैसे मैं कर ही लूँगा आत्महत्या।
जबकि मेरे मन में ‘आशा न हो तो कौन पैदल चले आशा के लिए’ की तर्ज़ पर गूँजता रहेगा एक वाक्य ‘आशा न हो तो कौन करे आत्महत्या, आशा के लिए...’
आशा के न होने पर ख़ूब रोऊँगा और नहीं करूँगा आत्महत्या—आशा के लिए।
- रचनाकार : प्रतीक ओझा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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