गजानन मुक्तिबोध

gajanan muktibodh

शमशेर बहादुर सिंह

शमशेर बहादुर सिंह

गजानन मुक्तिबोध

शमशेर बहादुर सिंह

और अधिकशमशेर बहादुर सिंह

    ज़माने भर का कोई इस क़दर अपना हो जाए

    कि अपनी ज़िंदगी ख़ुद आपको बेगाना हो जाए।

    सहर होगी ये शब बीतेगी और ऐसी सहर होगी

    कि बेहोशी हमारे होश का पैमाना हो जाए।

    किरन फूटी है ज़ख़्मों के लहू से ׃ यह नया दिन है ׃

    दिलों की रोशनी के फूल हैं—नज़राना हो जाए।

    ग़रीबुद्दहर थे हम; उठ गए दुनिया से; अच्छा है...

    हमारे नाम से रौशन अगर वीराना हो जाए।

    बहुत खींचे तेरे मस्तों ने फ़ाक़े फिर भी कम खींचे

    रियाज़त ख़त्म होती है अगर अफ़साना हो जाए।

    चमन खिलता था वह खिलता था, और वह खिलना कैसा था

    कि जैसे हर कली से दर्द का याराना हो जाए।

    वह गहरे आसमानी रंग की चादर में लिपटा है

    कफ़न सौ ज़ख़्म फूलों में वही पर्दा हो जाए।

    इधर मैं हूँ उधर मैं हूँ, अजल, तू बीच में क्या है?

    फ़क़त इक नाम है, यह नाम भी धोका हो जाए।

    x x x

    वो सरमस्तों की महफ़िल में गजानन मुक्तिबोध आया

    सियासत ज़ाहिदों की खंदए-दीवाना हो जाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : टूटी हुई, बिखरी हुई (पृष्ठ 42)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : शमशेर बहादुर सिंह
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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