सीता

sita

गोपालशरण सिंह

और अधिकगोपालशरण सिंह

    मिथिलाधिप की सुता लाड़ली

    कोलम-कांत-विनीता।

    बेली यशस्वी कोशलेश की

    प्रिय-भार्या परिणीत।

    छवि अनिंदिता विश्व-वंदिता

    वनिता परम पुनीता।

    दुःख भोगिनी रही सर्वदा

    प्रेम-योगिनी सीता।

    जनक भूप के राज-भवन में

    क्रीड़ा करने वाली।

    रति-सी और रमा-सी अनुपम

    शोभामयी निराली।

    प्रिय-मानस को मंजु मराली

    वह थी भोली-भाली।

    घिरती ही रह गईं घटाएँ

    उस पर काली-काली।

    प्राणनाथ ने किया वन-गमन।

    मान पिता-अनुशासन।

    था अभिषेक-समय में कैसा

    दुखमय वह निर्वासन!

    पति के साथ त्याग भव-वैभव

    सुखद राज-सिंहासन,

    वन-निवासिनी बन कर उसने

    ग्रहण किया कुश-आसन।

    सुमनों की शय्या तज कर वह

    भूमि-सेज पर सोई।

    दुख में भी उसने सुख माना

    कभी पल भर रोई।

    परिचारिका और परिचारक

    साथ नहीं था कोई।

    पर तनिक भी वह घबराई

    बुद्धि उसने खोई।

    सुरभित पवन और निर्मल जल

    तरु की शीतल छाया,

    उसने पहले ही जीवन में

    यह वह वैभव पाया।

    ऋषि-कन्याओं ने हिल-मिल कर

    उससे प्रेम बढ़ाया।

    पशु-पक्षी द्रुम-लता आदि ने

    आदर उसे दिखाया।

    हरे-भरे सुंदर वन में वह

    थी स्वच्छंद विचरती।

    चुभते थे कुछ-कंटक तो भी,

    थी तनिक भी डरती।

    राजहंसिनी-सी सरवर में

    थी विहार वह करती।

    खिले सरोजों को कौतुक-वश

    थी आँचल में भरती।

    मृग-शावक को कभी गोद में

    लेकर थी सहलाती।

    कभी कपोती को निज कोमल

    कर पर थी बिठलाती।

    केश-राशि फहरा मोरों को

    थी वह कभी नचाती।

    कभी चकोरी को दिखला कर

    शशि-मुख थी भरमाती।

    मृदुल अंक में प्राणनाथ के

    थी वह सुख से सोती,

    किंतु चौंक कर जग जाने पर

    वह उदास थी होती।

    देख उर्मिला को सपने में

    विरह-व्यथा से रोती,

    भूल विपिन का सुख-विलास सब

    थी वह धीरज खोती।

    कौशल्या माता की ममता

    थी भुलाई जाती,

    सुत-वियोग से उनका रोना

    पीट-पीट कर छाती।

    उनकी याद यहाँ भी उसको,

    बार-बार थी आती।

    उसके हृदय-रत्न जीवन-धन

    थे बस उनकी थाती।

    खिन्न देख कर उसे राम भी

    थे व्याकुल हो जाते।

    पर निज व्यथित हृदय के हरदम

    थे वे भाव छिपाते।

    पोंछ विलोचन-वारि प्रेम से

    उसको गले लगाते।

    प्रेम-कहानी सुना-सुना कर

    थे वे जी बहलाते।

    खिलती कभी, कभी मुरझाती

    थी वह लतिका मृदु-तन।

    पति के प्रेम-वारि से सिंच कर,

    रहती थी हषित-मन।

    किंतु नहीं चल सका बहुत दिन

    वह सुख-दुखमय जीवन।

    उसके तप्त आँसुओं ने ही

    क्या रच दिए सघन घन?

    लंकाधिप ने उस अबला का

    किया हरण छल-बल से।

    वह करुणा की मूर्त्ति बन गई,

    भीगी लोचन-जल से।

    रो-सी उठीं दिशाएँ सारी

    सागर की हलचल से।

    अथवा आहें निकल रही थीं

    व्याकुल धरणी-तल से।

    जो सर्वस्व त्याग कर भी थे

    हुए विचलित मन में।

    वही धीर रघुवीर फिर रहे।

    थे पागल-से वन में।

    हुई नहीं थी कभी प्रिया की

    विरहा-व्यथा जीवन में।

    वे इस भाँति विकल थे मानों

    प्राण नहीं थे तन में।

    कहते थे वे विटप-विटप से

    भर कर नीर नयन में।

    “सखे! बताओ छिपी जनकजा

    है किस कुंज-भवन में?

    आज अकेली वासंती तू,

    है झूमती पवन में,

    कहाँ गई है सजनी तेरी,

    मुझे छोड़ कानन में?”

    लगे सोचने राम शोक से

    होकर राम शोक से

    होकर विह्वल मन में,

    क्या वह विद्युतलता छिप गई,

    जाकर नंदन-वन में?

    अथवा देख मंजु मुख उसका

    अनुपम भोलेपन में,

    लज्जित शशि ने छिपा दिया है

    उसको शून्य गगन में।

    खोज-खोज थक गए प्रिया को

    पर राम ने पाया।

    संध्या हुई घोर तम उनके

    उर का जग में छाया।

    तब लक्ष्मण को संबोधन कर

    दारुण दुःख सुनाया।

    दारुण दुःख सुनाया।

    शोक-सिंधु निर्जन वन में भी।

    शीघ्र उमड़ा-सा आया।

    “महामहिम मिथिला-नरेश की

    वह प्राणोपम कन्या,

    शीलवती कुलवती छबिमती

    अनुपम गुण-गण-धन्या;

    त्रिभुवन में लक्ष्मण! है वैसी

    कौन सुंदरी अन्या?

    धिक्-धिक् मैं जीवित हूँ अब तक

    खोकर प्रिया अनन्या!

    लक्ष्मण! अब मैं घोर विपिन में

    कहाँ चैन पाऊँगा?

    पर सीता के बिना अयोध्या

    भी कैसे जाऊँगा?

    कौशल्या माता को किस विधि,

    मैं मुँह दिखलाऊँगा?

    जब पूछेगी कुशल-प्रश्न वह,

    क्या मैं बतलाऊँगा?

    भरत और शत्रुघ्र आदि से

    क्या मैं भला कहूँगा?

    सब स्वजनों के सम्मुख कैसे

    मैं स्थिर-धीर रहूँगा?

    यह असह्म वेदना विरह की

    मैं किस भाँति सहूँगा?

    एकाकी जीवन-सागर में

    कब तक हाय, बहूँगा?

    नृप विदेह जिनको सीता थी

    सदा प्राण-सम प्यारी,

    होंगे कितने विकल श्रवण कर,

    सुता-हरण दुखकारी?

    उनको समाचार यह भेजूँ

    किस विधि मैं वनचारी

    लक्ष्मण! तुम्हीं बताओ मेरी

    बुद्धि गई है मारी।”

    शोकाकुल निज प्रिय अग्रज को

    लक्ष्मण ने समझाया

    पुनर्मिलन की आशा देकर

    कुछ-कुछ धैर्य बँधाया

    मर्मर के मिस लता-द्रुमों ने

    मानों यह बतलाया—

    दुष्ट दशानन ने ले जाकर

    बंदी उसे बनाया।

    भारत-लक्ष्मी बंदी-गृह में

    कब तक बंद रहेगी?

    यह अन्याय दुष्ट दशमुख का

    कब तक मही सहेगी?

    कब तक दुःसह दावानल में

    वह मृदु-लता दहेगी?

    कब तक धार कुपित सागर की

    लंका में बहेगी?

    स्रोत :
    • पुस्तक : मानवी (पृष्ठ 40)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1938

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