मातृ-महिमा

matri mahima

गोपालशरण सिंह

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मातृ-महिमा

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    है माता! अत्यंत

    अपरिमित तेरी महिमा;

    अतुलनीय है पुत्र-

    प्रेम की तेरी गरिमा।

    धन्य-धन्य तू धन्य,

    महा-मुद-मंगलकारी;

    जग-जननी के तुल्य

    वंद्य है, विपदा-हारी।

    चाहे सारा नीर

    नीर-निधि का चुक जावे;

    चाहे अपना अंत

    अनंत गगन दिखलावे।

    पर, इसमें संदेह

    नहीं है कुछ भी, माता!

    तेरे पावन पुत्र-

    प्रेम का अंत आता।

    तेरा पावन प्रेम

    जगत को पावन करता;

    मद, मत्सर, मालिन्य,

    मोह मन का है हरता।

    तुझमें कभी तनिक

    ह्रास उसका होता है;

    बस तेरे ही साथ

    नाश उसका होता है।

    जो कृतघ्रता सदा

    शूल उर में उपजाती;

    जिस-सी कोई वस्तु

    दुखमयी दृष्टि आती।

    तेरा दृढ़ वात्सल्य

    वह भी हर सकती है;

    तुझको सुत से विमुख

    नहीं वह कर सकती है।

    कौं कष्ट तू नहीं

    पुत्र के लिए उठाती?

    उसे खिलाकर देवि!

    स्वयं भूखी रह जाती।

    अपने तन का वस्त्र

    उसे सुख से दे देती;

    वसन-हीन रह स्वयं

    शीत का दुख सह लेती।

    दासी-सी तू देवि!

    पुत्र की सेवा करती;

    सदा मित्र की भाँति

    विघ्न-बाधा सब हरती।

    देती शिक्षा नित्य

    उसे तू शिक्षक जैसी;

    करती उसकी देख-

    भाल संरक्षक जैसी।

    मतलब के ही यार

    सभी को मैं हूँ पाता;

    कहीं स्वार्थ से हीन,

    प्रेम है दृष्टि आता।

    बता; कहाँ से देवि!

    प्रेम तू ऐसा पाती?

    नहीं स्वार्थ की तनिक

    गंध भी जिससे आती।

    देख पुत्र को धूल-

    धूसरित भी निज सम्मुख;

    करती है तू सदा

    अतुल अनुभव उर में सुख।

    उसको कर से खींच

    गले से तू लिपटाती।

    उसके मलिन कपोल

    चूम फूली समाती।

    जो तुझ पर पड़ जाय

    देवि! विपदा भी भारी;

    तो भी सुत को छोड़,

    नहीं तू होती न्यारी

    राहु-ग्रस्त जब कला

    कलाधर की हो जाती;

    मृग-शिशु को वह कभी

    तब भी दूर हटाती।

    चाहे प्यारे मित्र

    बंधु हों उससे न्यारे;

    चाहे हों प्रतिकूल

    जगत भर के जन सारे।

    पर रहती अनुकूल

    सदा तू सुत के माता;

    बस निश्चल है प्रेम

    एक तेरा सुखदाता।

    जब वह बहुविधि पाप-

    पंक में भी सन जाता;

    होकर पूरा पतित

    निंद्य जग में बन जाता।

    तब भी तू निज दया-

    दृष्टि सुत से हटाती;

    ऐसी दृढ़ता कहीं

    प्रेम की दृष्टि आती।

    तू सुत के क्षेमार्थ

    ध्यान ईश्वर का धरती;

    भक्ति-सहित कर जोड़,

    प्रार्थना यह है करती।

    “जो चाहो सो कलेश

    मुझे दे लो दुखकारी;

    रखना सुत को सुखी

    सदा हे भव-भय-हारी।”

    सुत के सुख से सुखी

    सर्वथा तू है रहती;

    उसके दुख में सदा

    दुःख भी तू है सहती।

    वह तो पाता ख्याति

    गर्व पर तू है करती;

    मरती जब तब पुत्र-

    प्रेम से विह्वल मरती।

    सुत को चिंतित देख

    व्यथित अति तू हो जाती;

    उसके नेक भी खिन्न

    जान कर तू घबराती

    तुझसे उसकी तनिक।

    व्यथा भी सही जाती;

    छोटी भी किरकिरी

    आँख को विकल बनाती।

    तू कुपथ पर कभी

    पुत्र को जाने देती;

    बुरे व्यसन में उसे

    चित्त लगाने देती।

    सद्नावों के बीज

    हृदय में तू ही बोती;

    सदाचार की सीख

    प्राप्त तुझसे ही होती।

    जब अभाग्य-वश मनुज

    आपदा में फँस जाता;

    तब तेरा ही ध्यान

    उसे आता है, माता।

    तू ही उसकी देवि!

    उस समय धीरज देती;

    सुत की रक्षा हेतु

    प्राण भी तू तज देती।

    सुत पर तेरी प्रीति

    देवि! रहती है भारी;

    पर पुत्री भी तुझे

    सर्वथा जी से प्यारी।

    मधुप-पंक्ति जो पुष्प-

    प्रेम-रस में है बहती;

    क्या मुग्ध वह आम्र-

    मंजरी पर है रहती?

    हो अयोग्य गुण-हीन

    भले ही तेरी संतति;

    रहती तेरी प्रीति

    अटल तो भी उसके प्रति।

    वक्र अपूर्ण शशांक-

    कला भी कृश-तनुधारी;

    यामिनी को सुखकारी?

    जहाँ स्वर्ग तू गई,

    आँख दुनिया से फेरी;

    निरवलंब संतान

    सभी हो जाती तेरी।

    ज्यों ही प्यारी नदी

    सूख जाती है सारी;

    त्यों ही आश्रय-हीन

    मीन होती बेचारी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संचिता (पृष्ठ 67)
    • रचनाकार : गोपालशरण सिंह
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस, लिमिटेड, प्रयाग
    • संस्करण : 1939

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