नवनिर्गुण : सुगना

nawnirgun ha sugna

हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’

और अधिकहरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’

     

    मगन-मगन-मन डोले
    मन के विथा भरम ना खोले
    बोले जिनगी के बोल, अनमोल सुगना! 

    एक

    बड़े भाग मानुष-तन पावे भोग जनम चौरासी
    पतरा उचडे़ भाग अदेखा, पंडित बाँचे रासी
    घर में बजे बधइया
    सुन-सुन मइया लेत बलइया 
    दइया रतन लुटाबे दिल खोल सुगना! 

    दो 

    मइया टाँगे चंदन पलना, बाबा थामें डोरी
    दइया निहुँछे दीठ-दिठौना, गाबे मधुरी लोरी
    हाथ नचाकर खेले
    सुगना मधुर-प्रेम-रस-फूले
    झूले झुलने पर रस के हिंडोल सुगना! 

    तीन

    भइया थामें हाथ दाहिना, बाँया थामें बहना
    गोद भरे की हुलस दिखाबे, क्या दुअरा क्या अँगना
    ठुमुक-ठुमुक पग डोले
    कान्हा तुतली बोली बोले
    घोले कानों में मिसरी के घोल सुगना! 

    चार

    एक दिवस घर भर को देकर, उत्सव संग उदासी
    डाल जनेऊ गले, चले पढ़ने को नगरी काशी
    जनम मिला जो दूजा
    गुरु-पद बहुत लगन से पूजा
    खोजा ग्रंथों में ज्ञान टटोल सुगना! 

    पाँच

    गुरु-चरणों में बैठ, वेद के भेद पुराने जाने
    गीली माटी पकी-बुने जीवन के ताने-बाने
    लेकर पूरी शिक्षा
    देकर अंतिम ज्ञान-परीक्षा
    दीक्षा ले के घर आवे समतोल सुगना! 

    छह

    फूली, फली, जवान हो गई, मन की माया-ममता
    देख जवानी जगी भगी बचपन की भोली नमता
    छुई मुई चान्दनिया
    घर में आई नई दुल्हनिया
    दुनिया बन गई उड़न-खटोल सुगना! 

    सात

    दिवस गँवाबे खाके-पीके, रात गँवाबे सोपंसंके
    भरी जवानी देख-कबीरा भी न रोके-टोके
    रोज उतर कर परियाँ
    गीत सुना जाती किन्नरियाँ
    घड़ियाँ नाच करें गोल- मटोल सुगना! 

    आठ

    धीरे-धीरे लगे गरसने, फेरे करम-धरम के
    नमक-तेल के भाव बिकाए घायल दरद मरम के
    संग रहे जो सुख में 
    कोई संग ना आबे दुख में 
    मुख में रह जाएँ घुट-घुट बोल सुगना! 

    नौ

    लगे खटकने अब ये सारे झूठे रिश्ते नाते
    नस-नस तीर-कमान बन गईं,बीती सारी बातें
    सुबह-शाम अब पीड़ा
    दे-दे जाए दास कबीरा 
    हीरा जनम गँवायो बिन मोल सुगना! 

    दस

    बिना सूचना दिए एक दिन आई अपनी बारी
    तन की नारी गुमी, सिरहाने रोई घर की नारी
    बिना स्वजन-परिजन के 
    कोई भेद कहे बिन मन के
     तन के उड़ गया पिंजड़े को खोल सुगना! 

    ग्यारह

    साँस-झकोरे उड़ी चुनरिया, पोल खुली दुनिया की
    माया ठगिनी भाग गई, कर हालत बुरी हिया की
    रही याद की थाती 
    इन से उन तक आती-जाती 
    माटी बन गया पँचरंग चोल सुगना! 

    बारह

    लघुता बनी महान कि संतो बुंद समुंद समाई अज्ञानी घर रोना-धोना, ज्ञानी घर शहनाई
    अमर विदा की घड़ियाँ
    पंच उछारें पंच-लकड़ियाँ
    परियाँ कर रहीं खुल के किल्लोल सुगना! 

    तेरह

    माया, मोह, व्यथा यह जीवन, मृत्यु सत्य का दर्शन
    जीवन को तो मरण, मरण को जीवन का आकर्षण
    आवागमन बताबे
    सुगना आतम ज्ञान सुनाबे
    गाबे अनहद-राग अमोल सुगना!

                                              
    स्रोत :
    • रचनाकार : हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए सतीश नूतन द्वारा चयनित

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