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शहज़ादा सब्र

shahzada sabr

एक महान सुलतान के सात बेटियाँ थीं। अपनी सभी बेटियों को वह बहुत चाहता था, पर सबसे छोटी बेटी उसकी चहेती थी। इसलिए बाक़ी छह बहनें उससे जलती थीं और नफ़रत करती थीं।

एक दिन सुलतान ने मौज में आकर सातों शहज़ादियों को अपने कमरे में बुलवाया और उनसे अजीब सवाल किया, “बताओ, तुम्हारे ठाट-बाट और ख़ुशियों का कारण क्या है? इनके पीछे तुम्हारी अपनी क़िस्मत है या मेरी? तुम क्या सोचती हो साफ़-साफ़ बताओ!”

इसमें सोचना क्या! छह बहनों ने तुरंत एलान किया, “यक़ीनन आपके बुलंद सितारों की वजह से ही हमारी ज़िंदगी में ख़ुशियाँ हैं, अब्बाजान!”

सुनकर सुलतान को ख़ुशी हुई। लेकिन उसे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि उसकी लाडली छोटी शहज़ादी ने अपनी बहनों की आवाज़ में आवाज़ नहीं मिलाई। वह चुप ही रही। बल्कि बहनों को जोर-जोर से बोलते देखकर वह परेशान-सी लगी। शायद वह दिल की बात कहते डरती है।

उसकी चुप्पी सुलतान को अखरी। उसने कुछ तुर्श आवाज़ में पूछा, “क्या बात है? तुम चुप क्यों हो? बेशक तुम अपनी बहनों की बात से इत्तेफ़ाक़ रखती हो, है न?”

छोटी शहज़ादी ने झिझकते हुए कहा, “माफ़ करें अब्बाजान, मैं इनसे इत्तेफ़ाक़ नहीं रखती। मुझे नहीं लगता कि हमारी क़िस्मत की लगाम आपकी क़िस्मत के हाथ में है। हरेक की अपनी-अपनी क़िस्मत होती है और वही उसके अच्छे-बुरे के लिए ज़िम्मेदार होती है। अपने बुलंद सितारों के इक़बाल से ही मैं आप की बेटी और शहज़ादी हूँ।”

सुलतान चिल्लाया, “अच्छा, यह बात है! तो तुम्हारी ख़ुशहाली तुम्हारे बुलंद सितारों के इक़बाल से है? मेरे प्यार का तुमने यह बदला चुकाया? एहसानफ़रामोश लड़की, अब हम देखेंगे कि तुम्हारी क़िस्मत तुम्हारे लिए क्या करती है।” यह कह कर उसने सिपाहियों को बुलाया और हुक्म दिया, “इस लड़की को महल से बाहर निकाल दो! आज के बाद मुझे इसकी शक्ल नज़र नहीं आनी चाहिए।”

छोटी शहज़ादी उठी और आप ही चल पड़ी। पहने हुए कपड़ों के अलावा उसने कुछ भी साथ नहीं लिया। सिपाही उसके पीछे-पीछे चलते रहे। वह शहर के बाहर चली गई तो सिपाही वापस चले गए।

कुछ समय बाद सुलतान को दूर देश की यात्रा पर जाना पड़ा। उसने एक ख़ूबसूरत जहाज़ बनवाया। नजूमियों ने अच्छी साइत देखकर रवानगी का दिन तय किया। रिश्तेदार, दोस्त और रिआया उसे रुख़सत करने के लिए आए। जहाज़ पर चढ़ने से पहले उसने शहज़ादियों से पूछा कि वह उनके लिए क्या लाए। शहज़ादियों ने अपनी-अपनी पसंद की चीज़ का नाम बताया। संगीत की लहरियों के बीच दरबारियों और अमले के साथ सुलतान जहाज़ पर चढ़ा। मल्लाहों ने लंगर उठा दिए। पाल खोल दिए गए। हवा बहुत ही मुवाफ़िक़ थी। पर जहाज़ अड़ियल घोड़े की तरह अपनी जगह से हिला तक नहीं। सबको आश्चर्य हुआ। मल्लाहों ने पता लगाने की कोशिश की कि जहाज़ चल क्यों नहीं रहा, पर कुछ पता नहीं चला। जहाज़ के अंदर और बाहर हर चीज़ एकदम दुरुस्त थी। सुलतान ने शहर से होशियार नजूमियों को बुलवाया। नजूमी देर तक जोड़-घटा करते रहे और सोचते रहे। आख़िर उन्होंने सुलतान को बताया कि उसने अपने एक क़रीबी रिश्तेदार से यह नहीं पूछा कि वह उसके लिए क्या तोहफ़ा लाए। सुलतान को फ़ौरन छोटी शहज़ादी का ख़याल आया। ग़ुस्से से उसका माथा गर्म हो गया।

एक नाचीज़ लड़की की वजह से इतनी देर से सब रुके पड़े हैं! जो हो, उसे ढूँढ़ने के लिए उसने चारों दिशाओं में आदमी दौड़ा दिए।

इधर-उधर काफ़ी बेकार भटकने के बाद आख़िरकार उनमें से एक को वह जंगल में मिल गई। पेड़ के नीचे वह फ़क़ीर की तरह रहती थी और सारा वक़्त इबादत में बिताती थी। कासिद वहाँ पहुँचा उस वक़्त वह नमाज़ पढ़ रही थी। कासिद ने उसे आवाज़ दी और कुछ उजड्डता से पूछा कि सुलतान विलायत से उसके लिए क्या तोहफ़ा लाएँ।

शहज़ादी ने कोई जवाब नहीं दिया। वह नमाज़ बीच में नहीं छोड़ना चाहती थी। उसने सिर्फ़ इतना ही कहा, “सब्र!” यानी थोड़ी ‘तसल्ली’ रखो! कासिद बहुत जल्दी में था। उसने इसे ही जवाब समझा और उलटे पाँव लौट गया। सुलतान जवाब के लिए बेताब हो रहे होंगे। वह भागा-भागा मालिक के पास गया और बताया कि शहज़ादी ने ‘सब्र’ नाम की चीज़ लाने के लिए कहा है।

सुलतान बुदबुदाया, “जैसी ख़ुद है वैसा ही तोहफ़ा माँगा। ‘सब्र’ से बेवक़ूफ़ लड़की की क्या मुराद है? बदतमीज़ लड़की ने कैसा गुस्ताब जवाब दिया। वह जिसके लायक़ है वह उसे मिल जाएगा।”

उसके यह कहते ही जहाज़ चल पड़ा। आगे का सफर आराम से कटा। बिना किसी दिक़्क़त के वे अपनी मंज़िल पर पहुँच गए।

नए देश में सुलतान ने ख़ूब सैर-सपाटे किए। वापसी से कुछ दिन पहले उसने छह शहजादियों की मँगवाईं चीज़ें ख़रीदीं और जहाज़ में हिफ़ाज़त से रखवा दीं। पर जो चीज़ छोटी शहज़ादी ने मँगवाई वही कहीं नहीं मिली। वे जहाँ भी पूछते उन्हें एक ही जवाब मिलता कि दुनिया में सब्र नाम की कोई चीज़ नहीं है। सो सुलतान ने कहा कि ऐसी वाहियात चीज़ के लिए वक़्त बरबाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है। और सब जहाज़ पर सवार हो गए।

लंगर उठा दिए गए। पाल खोल दिए गए। पर जहाज़ चट्टान की तरह टस से मस नहीं हुआ। इस बार सुलतान को इसकी वजह पता थी। वह ग़ुस्से से खौलने लगा। उसने ग़ुलामों को तट पर भेजा और उनसे गली-गली में हर आने-जाने वाले से यह पता करने को कहा कि सब्र नाम की रहस्यमय चीज़ कहाँ मिलेगी। ग़ुलाम दिन भर शहर में उस नायाब चीज़ के लिए भटकते रहे। पस्त, हताश वे वापस जहाज़ में जाने की सोच ही रहे थे कि उन्हें एक ग़रीब बुढ़िया आती दिखी। दिन भर हज़ारों लोगों से पूछा वही सवाल उन्होंने आख़िरी बार उस बुढ़िया से पूछा। बुढ़िया ने कहा, “सब्र? हाँ, मैं जानती हूँ यह क्या है। यह एक पत्थर है जो मेरे अहाते में पड़ा है। मेरी पैदाइश से वह उसी जगह पर पड़ा है। हम उसे ‘सब्र पत्थर’ कहते हैं। तुम उसका क्या दाम दोगे?”

ग़ुलामों की बाँछें खिल गईं। आख़िर उनकी तलाश पूरी हुई। बोले, “चलो, चलकर देखते हैं। हम तुम्हें उसकी सौ मोहरें देंगे।”

बुढ़िया की ख़ुशी का ठिकाना रहा। नाकुछ पत्थर की सौ मोहरें! वह तुरंत उन्हें अपनी झोंपड़ी पर ले गई और उन्हें एक अनगढ़ पत्थर दिखाया जो आधा ज़मीन में गड़ा हुआ था। उन्होंने उसे सौ मोहरें दीं, पत्थर को खोदकर निकाला और उसे उठाकर जहाज़ पर ले गए। पत्थर जहाज़ पर रखते ही जहाज़ चल पड़ा। कुछ दिनों सुलतान अपनी राजधानी पहुँच गया।

वापसी के दो-चार दिन बाद उसने वह पत्थर छोटी शहज़ादी के पास भिजवा दिया। शहज़ादी ने अब्बाजान के नौकर को कोई भारी चीज़ उठाकर लाते देखा तो उसने समझा कि अब्बाजान का दिल पसीज गया है। इसलिए उसे वापस लिवाने के लिए उन्होंने उसके पास कोई तोहफ़ा भेजा है। पर उसकी तमाम उम्मीदों पर पानी फेरते हुए सुलतान के नौकर ने अनगढ़ पत्थर को धम्म-से उसके पैरों के पास पटका और रुखाई से बोला, “यह रहा सब्र जो तुमने मँगवाया था। सुलतान तुम्हारी बहनों के लिए बेशक़ीमती हीरे और याकूत लाए हैं। यक़ीनन तुम्हारे सितारे बहुत बुलंद हैं। इसीलिए उन्होंने तुम्हारे लिए यह काला बेडौल पत्थर भेजा है। इसे संभालकर रखना मालकिन, कपड़े धोने के काम आएगा।” यह कहकर वह चला गया।

ग़ुलाम की बात में छुपे तंज से शहज़ादी के दिल को ठेस लगी। उसकी आँखों में आँसू गए। थोड़ी देर बाद जब उसकी रुलाई रुकी तो उसने पत्थर को लुढ़का कर एक तरफ़ रख दिया। उसने उसका वही इस्तेमाल करने का फैसला किया जो ग़ुलाम ने उपहास में कहा था।

उस दिन से वह उसी पत्थर पर अपने कपड़े धोने लगी। अपने चिथड़े हो चले कपड़ों को मसलते और निचोड़ते हुए उसे शाही महल में गुज़ारे दिन याद जाते और वह रो पड़ती।

कुछ दिन बाद उसने देखा कि पत्थर धीरे-धीरे घिस रहा है और पतला हो रहा है। उसने सोचा, यह कच्चा पत्थर है और उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। पर एक दिन उसके हाथ के नीचे पत्थर की सतह टूट गई। उसने बहुत हैरत से देखा कि पत्थर के बीच में खोखल है और खोखल के भीतर एक पंखा करीने से समेट कर रखा हुआ है। बहुत समय से उसने ऐसी विलासिता की वस्तु नहीं देखी थी। उसने लपककर पंखा उठाया और खोलकर झलने लगी। पंखा झलते ही एक सजीला शहज़ादा नमूदार हुआ। लगा जैसे वह शहज़ादी के हुक्म का इंतज़ार कर रहा है। भौंचक्की शहज़ादी के हाथ से पंखा गिर गया। वह उठकर जाने लगी तो शहज़ादे ने उसका हाथ पकड़ लिया। शहज़ादे ने उसे बताया कि इस पंखे में उसे बुलाने की ताक़त है और उसका नाम शहज़ादा सब्र है। उसके पंखा झलते ही वह जहाँ कहीं भी होगा फ़ौरन जाएगा। वह पंखे को उलटी दिशा में हिलाएगी तो वह वापस अपने अब्बा की रियासत में चला जाएगा। शहज़ादी की हैरानी तब भी कम नहीं हुई। उसने पंखा उठाया और यों ही चुहल के लिए उसे उलटी दिशा में हिलाया। शहज़ादा उसकी आँखों से ओझल हो गया। तब कुतूहलवश उसने पंखे को सही दिशा में हिलाया, और लो, शहज़ादा फिर हाज़िर!

कुछ ही दिनों में दोनों एक-दूसरे को दिलोजान से चाहने लगे। शहज़ादी ने पंखे को संभालकर रख दिया। शहज़ादा उसके साथ ही रहने लगा। शहज़ादे ने उसके लिए एक महल बनवा दिया। हँसी-ख़ुशी के साथ उसके दिन बीतने लगे। कभी शहज़ादा सब्र को अम्मी, अब्बा या दोस्तों की याद आती तो वह शहज़ादी को उलटी दिशा में पंखा झलने को कहता और अपने शहर में पहुँच जाता। नहीं तो शहज़ादा सब्र कभी उससे जुदा नहीं होता था।

शहज़ादी की ख़ुशक़िस्मती की ख़बर उड़ते-उड़ते सुलतान और उसकी बहनों तक पहुँची। बहनें जल-भुनकर राख हो गईं। सुलतान ने अपने को इतना बेइज़्ज़त महसूस किया कि वह छोटी शहज़ादी का नाम सुनना भी पसंद नहीं करता था। एक दिन सुलतान से पूछे बिना ही छहों शहज़ादियाँ बहन से मिलने आईं। छोटी शहज़ादी ने खुले दिल से उनका स्वागत किया। बहनों से मिलकर उसे बहुत ख़ुशी हुई और रुकने के लिए मनुहार की। पर ‘फिर आएँगी’ कहकर वे जल्दी ही चलीं गईं।

उनके जाने के बाद शहज़ादा सब्र ने नाख़ुशी ज़ाहिर की कि उसकी बीवी ने उन्हें घर में आने दिया। सुलतान के रवैए और शहज़ादियों की डाह के बारे में वह सब सुन चुका था। उसे डर था कि जलन के मारे वे ज़रूर कुछ गड़बड़ करेंगी और उनकी ख़ुशियों को पाला मार जाएगा। पर भोली शहज़ादी यह सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि उसकी अपनी बहनें उसे नुकसान पहुँचाएँगी। वह बेताबी से उनकी बाट जोहने लगे।

एक शाम शहज़ादे की अपनी अम्मी और अब्बा से मिलने की इच्छा हुई। शहज़ादी ने पंखा हिलाया और वह चला गया। सूने महल में शहज़ादी को अकेलापन काटने लगा। शहज़ादे को वापस बुलाने के लिए वह पंखा झलने वाली ही थी कि उसे अपनी बहनें आती दिखीं। उसकी ख़ुशी का ओर-छोर रहा। वे उसके साथ देर रात तक रहीं।

बहनों से मिलकर वह बहुत ख़ुश थी और हवा में उड़ रही थी। पर उसकी बहनों को कोई ख़ास ख़ुशी नहीं थी। इतना ही नहीं, वे अंदर ही अंदर ईर्ष्या से जल रही थीं। वे कुछ करने की ठान कर आई थीं। इसके लिए पूरी तैयारी के साथ आई थीं। उनकी करतूत से शहज़ादा सब्र बुरी तरह ज़ख़्मी हो जाएगा या हो सकता है मर भी जाए। साज़िश के मुताबिक़ कुछ बहनों ने सहजविश्वासी छोटी बहन को बातों में उलझाए रखा और कुछ चुपके से शहज़ादा सब्र के सोने के कमरे में सरक गईं। उन्होंने उसके पलंग पर से चादर हटाई और गद्दे पर भयंकर ज़हर मिला पिसा हुआ काँच बिखेर दिया। पलंग पर वापस चादर बिछाकर वे तेज़ी से कमरे से बाहर निकलीं और फिर बहनों के पास बैठीं—पहले से भी ज़्यादा मासूम दिखने की कोशिश करती हुई।

देर रात को मक्कार बहनें वापस चली गईं।

उसके जाते ही छोटी शहज़ादी ने पंखा झलकर शहज़ादे सब्र को वापस बुला दिया। रात काफ़ी हो गई थी। वह थका हुआ था। नींद से उसकी पलकें मुंदी जा रही थीं। वह तुरंत सोने के लिए चला गया। अभी शहज़ादी को रात की नमाज़ पढ़नी थी। सो वह वहीं रुकी रही। एकाएक उसे शहज़ादे की चीख़ें सुन पड़ीं, “बचाओ, बचाओ! मेरे पूरे शरीर में कुछ चुभ रहा है। यक़ीनन यह तुम्हारी मक्कार बहनों का काम है। मैंने तुमसे कहा था कि उन्हें यहाँ मत आने दो, पर तुमने मेरी नहीं सुनी। अब मैं बचूँगा नहीं। मेरी मौत के बाद तुम उनके साथ ख़ूब मौज करना। ख़ुदा के लिए अपना पंखा हिलाओ और मुझे घर जाने दो!”

शहज़ादी को कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या करे और क्या करे वह पास गई तो उसने देखा कि शहज़ादा पिसे हुए काँच से सना हुआ है। उसका पूरा बदन ख़ूनोख़ून हो रहा था और वह नीला पड़ता जा रहा था। शहज़ादी ने फ़ौरन उसे दूसरे पलंग पर लिटाया और काँच की किरचें निकालने लगी। दर्द से छटपटाते हुए शहज़ादा चिल्लाया कि अब वह एक पल भी यहाँ नहीं रहेगा। उसने शहज़ादी को पंखा झलने के लिए मजबूर किया ताकि वह अपने वतन जा सके। चाहते हुए भी शहज़ादी को पंखा झलना पड़ा।

शहज़ादी को भयंकर सदमा लगा। उसने अपने बाल नोंचे और शहज़ादे को बुलाने के लिए कई बार पंखा झला, पर वह वापस नहीं आया। बहनों पर भरोसा करने के लिए उसने ख़ुद को बहुत कोसा। वह रोते हुए सोचने लगी कि शायद शहज़ादे का इंतक़ाल हो गया। तभी पंखा झलने पर भी वह नहीं आया।

रात भर के जागरण के बाद शहज़ादी मुँह अँधेरे ही घुमक्कड़ दवा-फ़रोश के भेष में अपने महबूब की तलाश में घर से निकल गई।

उसे कुछ पता नहीं था कि शहज़ादे का वतन कहाँ है। वह जंगल में यहाँ-वहाँ भटकती रही, पर उसे शहज़ादे का कोई अता-पता नहीं मिला। बहुत दिनों तक मारे-मारे फिरने के बाद उसने ख़ुद को इतना थका हुआ और बीमार महसूस किया कि उसे लगा वह मर जाएगी।

एक दिन वह नदी के किनारे पेड़ की छाया में सुस्ता रही थी कि उसे पेड़, पर गाने वाली चिड़िया का जोड़ा दिखा। उन्हें इंसान की तरह बोलते सुनकर उसे, आश्चर्य हुआ। एक चिड़िया ने कहा, “आह, क्या तुमने शहज़ादा सब्र के बारे में सुना है? बेचारा अपने माँस में घुसे काँच के चूरे और ज़हर से बहुत तकलीफ़ पा रहा है। काश, कोई जानता कि मेरी बीट में बीमार को ठीक करने की कैसी ख़ूबी है! इसे उसके शरीर पर लगाते ही काँच की तमाम किरचें बाहर जाएँगी। दूसरी बार लगाने से उसके घाव भर जाएँगे। चमड़ी पर घाव का निशान तक नहीं बचेगा।”

दूसरी चिड़िया ने कहा, “यह तो ठीक है, लेकिन अगर कोई तुम्हारी बीट इकट्ठी कर भी ले तो इस चौड़ी नदी को पार करके वह शहज़ादा सब्र के महल तक पहुँचेगा कैसे?”

पहली चिड़िया बोली, “इसमें क्या मुश्किल है! उसे सिर्फ़ जिस पेड़ पर हम बैठे हैं उसकी छाल से खड़ाऊँ बनानी होंगी। वे खड़ाऊँ पहनकर वह नदी पर ऐसे चल सकेगा मानो ज़मीन पर चल रहा हो। यह हम ख़ुद नहीं कर सकते। काश, कोई आदमज़ाद मेरी बात सुन लेता!”

इतना कहकर दोनों चिड़ियाँ उड़ गईं। शहज़ादी का दिल बल्लियों उछलने लगा। अब उसे पता था कि उसे क्या करना है। वह तुरंत उठी, चाक़ू से पेड़ की छाल उतारी, उससे कामचलाऊ खड़ाऊँ बनाईं और बेल के ताँते से पैरों के साथ बाँध दिया। फिर उसने गाने वाली चिड़िया की बीट से थैला भर लिया। थैले को कंधे से लटकाकर वह नदी की ओर बढ़ी। नदी की ओर जाते समय उसके मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगीं। पानी पर उसने पहला क़दम रखा, दूसरा क़दम रखा और डरते-डरते सोचने लगी कि आगे बढ़े या बढ़े कि अचानक वह तेज़ी से बहती नदी के सतह पर फिसलने लगी। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती कि यह क्या हो रहा है वह दूसरे किनारे पर पहुँच गई। एक अनदेखी धरती उसके सामने थी।

हकीम का बाना पहने शहज़ादी को आन की आन में भीड़ ने घेर लिया। लोगों ने उसे बताया कि शहज़ादा सब्र का नामी-गिरामी हकीमों ने इलाज किया, पर उसकी हालत नहीं सुधरी। उसे भयंकर पीड़ा होती है। उसके घरवालों ने उसके ठीक होने की आस छोड़ दी है। उसके अब्बा ने एलान किया है कि कोई भी हकीम और वैद्य आख़िरी साँसें गिन रहे उसके बेटे पर अपना हुनर आज़मा सकता है।

शहज़ादी तुरंत शाहीमहल पहुँची और कहलवाया कि उसके पास ऐसी दवाई है जो शहज़ादे को चंगा कर देगी। उसे अदेर उस कमरे में ले जाया गया जहाँ बहुत दिनों से बिछड़ा उसका महबूब दर्द से तड़प रहा था। शहज़ादा सूखकर काँटा हो गया था। उसकी नज़र काफ़ी धुँधली हो गई थी। शहज़ादी ने जी कड़ा किया और चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। उसने नौकरों को सफ़ेद मुलायम चादर लाने को कहा। उसने चादर को फ़र्श पर बिछाया, उस पर चिड़िया की बीट फैलाई और उसमें शहज़ादे को लपेट दिया। फिर उसने शहज़ादे के सर के नीचे तकिया रखा उसके माथे पर हौले-हौले थपकियाँ देने लगी। कुछ ही देर में शहज़ादे को नींद गई। उसे सोया देखकर उसके अब्बा और अम्मी को सुखद आश्चर्य हुआ, क्योंकि बहुत समय से उसकी आँख भी नहीं झपी थी।

शहज़ादी उसे सोए हुए देखती रही। घड़ी भर बाद उसने आँखें खोलीं तो उनमें वेदना की झलक ग़ायब थी। उसके चेहरे पर ताज़गी और सुकून था। महीनों का दर्द दूर हो गया लगता था।

शहज़ादी ने उसके शरीर पर से चादर हटाई। काँच के बेशुमार किरचों और बदबूदार मवाद से चादर भर गई थी। यह देखकर सब भौंचक्के रह गए। त्वचा पर अब भी खरोंचें और कुछेक अधभरे घाव थे। शहज़ादी ने (हालाँकि सब उसे हकीम ही समझ रहे थे) फिर उसके सारे बदन पर बीट लगाई। सबने जुगुप्सा से मुँह फेर लिया। कुछ ही घंटों में शहज़ादा चलने-फिरने लगा।

शहज़ादे के अब्बा और अम्मी को जैसे जन्नत मिल गई। शहज़ादी की ख़ुशी का भी कोई पार था। पर वह अपने भाव ज़ाहिर नहीं कर सकती थी। वह अपने चेहरे पर चिकित्सक की-सी निर्लिप्तता ओढ़े रही।

शहज़ादे के अब्बा बूढ़े बादशाह ने ‘हकीम’ को मुँहमाँगा सोना देना चाहा, पर उसने कुछ भी लेने से मना कर दिया। तब उन्होंने उसे जागीर, महल और एक से एक अनमोल चीज़ें देनी चाहीं। पर शहज़ादी ने कुछ भी क़बूल नहीं किया। उसने कहा कि इलाज के एवज में उसे कुछ भी नहीं चाहिए, पर याददाश्त के तौर पर कोई निशानी लेकर उसे ख़ुशी होगी। मसलन शहज़ादे की अँगूठी, हमेशा उसकी कमर पर रहने वाला खंजर और उसका रेशमी रुमाल। शहज़ादे ने फ़ौरन तीनों चीज़ें उसे सौंप दीं। उन्हें अपने थैले में रखते हुए शहज़ादी ने कहा कि उसे सब कुछ मिल गया और वहाँ से चल पड़ी।

चमत्कारिक खड़ाऊँओं से उसे नदी पार करने में तो कोई दिक़्क़त नहीं हुई, पर वहाँ से अपने महल पहुँचने के लिए उसे कई दिन सफ़र करना पड़ा। महल पहुँचते ही उसने हकीम का बाना उतारा और नहा-धोकर अपने बेहतरीन कपड़े और गहने पहने और शहज़ादे को बुलाने के लिए जादुई पंखा झला।

इस बार शहज़ादे ने बुलावे का मान रखा और उसके पास गया। पर उसका ग़ुस्सा अब भी बरकरार था। उसने शहज़ादी की ओर देखा तक नहीं। कहने लगा, “अब तुम मुझसे क्या चाहती हो? क्या अपनी बहनों का साथ तुम्हारे लिए काफ़ी नहीं?”

पर शहज़ादी मानो उसकी बात समझी ही नहीं। बोली, “मेरे दिलबर, मेरे महबूब, मुझे बताओ यहाँ से जाने के बाद तुम पर कैसी गुज़री। इस दरमियान मैंने कितने दुख उठाए हैं! मेरी कोई भी बहन मुझसे मिलने नहीं आई। उन्होंने तुम्हारे साथ जो किया उसके बाद मैंने फैसला किया कि मैं उनसे कोई वास्ता नहीं रखूँगी। मैं उनकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती।”

इससे शहज़ादे का गुस्सा कुछ ठंडा हुआ और उसने अपनी बीमारी का हाल सुनाया—महीनों वह दर्द से तड़पता रहा। उसने तो बचने की आस ही छोड़ दी थी। फिर जाने कहाँ से एक घुमक्कड़ हकीम आया और बदबूदार बीट से उसे चंगा कर दिया। जो बड़े-बड़े हकीम, वैद्य कर सके वह उसने कर दिखाया। अंत में यह कहते-कहते शहज़ादे का गला रुंध गया, “उस हकीम से एक बार फिर मिलने के लिए मैं अपना सब कुछ देने को तैयार हूँ। उसने जो मेरे लिए किया उसका मैं मुनासिब तरीक़े से शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। कितना भला था वह! उसके हाथों में जादू था। जिस तरह से उसने मेरा इलाज किया और मुझे तंदुरुस्त किया उससे मैं उसका ग़ुलाम हो गया। लगता है वह सिर्फ़ मेरा इलाज करने के लिए ही आया था। मेरी अँगूठी, खंजर और रुमाल के अलावा उसने कुछ भी कबूल नहीं किया।”

शहज़ादे को थोड़ा और छकाने के बाद उसने शरारत से मुस्कुराते हुए एक-एक कर तीनों चीज़ें निकालीं और पूछा, “मेरे महबूब, यही है तुम्हारी अँगूठी, खंजर और रुमाल जो तुमने हकीम को दिए थे?”

शहज़ादे ने उन्हें तुरंत पहचान लिया और पूछा कि ये उसके पास कैसे। क्या वह उस हकीम को जानती है? शहज़ादी ने कहा, “बेशक, मैं उसे अच्छी तरह जानती हूँ।” फिर उसने उसे हकीम के कपड़े, खड़ाऊँ वग़ैरा दूसरी चीज़ें दिखाई और उसे पूरी बात बताई—अपनी तलाश के बारे में, गाने वाली चिड़ियों के बारे में, खड़ाऊँ और चिड़िया की बीट के बारे में जिससे वह ठीक हुआ।

शहज़ादे को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। यह जानकर उसकी ख़ुशी सातवें आसमान पर पहुँच गई कि उसकी ज़िंदगी बचाने वाला कोई और नहीं, बल्कि उसकी प्यारी शहज़ादी थी। उसने शहज़ादी को बाँहों में भींच लिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा। शहज़ादी ने उसकी ख़ातिर इतनी तक़लीफ़ उठाई इसके लिए उसने उसका बहुत-बहुत एहसान माना।

कुछ दिन बाद शहज़ादा उसे अपने वतन ले गया और अब्बा और अम्मी को बताया कि यही वह घुमक्कड़ हकीम है जिसने उसकी जान बचाई थी। यह जान कर वे बेहद ख़ुश हुए कि वह ‘हकीम’ एक शहज़ादी है जो उनके इकलौते बेटे को चाहती है। उन्होंने अदेर उनके निकाह की तैयारियाँ शुरू कर दीं। बूढ़े बादशाह ने पड़ोस के तमाम बादशाहों, सुलतानों, अमीरों और सरदारों को दावतनामा भेजा। दावतनामा कबूल करने वालों में बेशक शहज़ादी के अब्बा भी थे। शहज़ादा सब्र के कहने पर सुलतान को ख़ासतौर पर दावतनामा भेजा गया था।

निकाह के बाद बूढ़े बादशाह ने भव्य दरबार लगाया। दरबार में उसने शाही मेहमानों से दूल्हा-दुल्हन का परिचय करवाया। सुलतान की बारी आई तो वह यह देखकर दंग रह गया कि दुल्हन उसकी अपनी बेटी है जिसे उसने एहसान फ़रामोश कहकर घर से निकाल दिया था। दुल्हन ने उसके पाँव पकड़कर माफ़ी माँगी। लेकिन नरमाई के साथ उसने यह भी कहा कि तमाम बुरे सुलूक और देश निकाले के बावजूद यह उसकी क़िस्मत ही थी जो उसका दामन ख़ुशियों से भर गया।

सुलतान की अक़्ल चकरा गई। उसने शहज़ादी को खड़ा किया और गले से लगा लिया। उसने सबके सामने अपने बुरे बरताव पर अफ़सोस जताया और क़बूल किया कि हरेक की अपनी-अपनी क़िस्मत होती है। ज़िंदगी में अच्छा-बुरा जो भी होता है वह उसके अपने सितारों के इक़बाल से होता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 171)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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