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संगीतरसिक पिशाच

sangitarsik pishach

ग़रीबी से तंग आकर एक ब्राह्मण ने काशी जाने का निश्चय किया। धूप में कई कोस चलने के बाद ज़रा दम लेने के लिए वह एक कुंज की छाया में रुका। लघुशंका के लिए वह एक पेड़ के नीचे उकड़ू बैठा ही था कि एक गहरी और अलौकिक आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ा, “ठहरो!” ब्राह्मण झट खड़ा हुआ और चारों तरफ़ देखा, पर कोई नज़र नहीं आया। फिर वह हाथ-मुँह धोने के लिए पास के तालाब पर गया। वहाँ वह आवाज़ उसे सुनाई पड़ी, “ठहरो!” पर इस बार उसने आवाज़ पर कान नहीं दिया। उसने पोटली खोली और भात खाने लगा तो फिर वही आवाज़, “ठहरो!” भात खाकर वह जाने लगा तो फिर आवाज़ आई, “रुक जाओ!” ब्राह्मण ने रुककर चारों तरफ़ देखा, पर अकारथ। वह ज़ोर से बोला, “कौन हो तुम? क्यों फ़ुज़ूल शोर मचा रहे हो?”

“ऊपर देखो, तुम्हें पता चल जाएगा।” ऊपर से आवाज़ आई। उसने ऊपर देखा तो एक ब्रह्मराक्षस को पेड़ पर बैठा पाया।

ब्रह्मराक्षस ने उसे अपनी दुखद कथा सुनाई, “पिछले जन्म में मैं भी ब्राह्मण था। मैं संगीत का मर्मज्ञ था। मैंने जीवन भर अपना ज्ञान तो किसी को सिखाया और किसी के साथ बाँटा। इसलिए इस बार मुझे पिशाच की योनि मिली। यह ईश्वर का दंड है। यहाँ से थोड़ा आगे एक मंदिर है। उस मंदिर में बांसुरीवादक सारे दिन पीं-पीं करता रहता है, बहुत ही फूहड़, बिलकुल बेसुरा। यह मुझसे सहा नहीं जाता। लगता है जैसे कोई मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा उड़ेल रहा हो। प्रत्येक अशुद्ध स्वर मुझे बाण-सा लगता है। उसके भयानक कोलाहल से मेरा पूरा शरीर छलनी हो गया है। मेरा अंग-अंग दुखता है। यदि कुछ दिन और ऐसा ही चलता रहा तो मैं पागल हो जाऊँगा और तब पता नहीं क्या कर बैठूँ। पिशाच हूँ, इसलिए आत्महत्या नहीं कर सकता। मैं इस पेड़ से बँधा हुआ हूँ। हे भले ब्राह्मण, मैं विनती करता हूँ, कृपा करके मुझे अगले वन तक ले चलो जहाँ मैं शांति से रह सकूँ। इससे मेरी कुछ शक्तियाँ भी जागृत हो जाएँगी। एक अभागे पिशाच की सहायता करके तुम्हें बहुत पुण्य मिलेगा जो कभी तुम्हारी तरह ब्राह्मण था।”

ब्राह्मण पसीज गया। पर ग़रीबी ने उसे चालाक बना दिया था। बोला, “ठीक है, मैं तुम्हें अगले वन तक पहुँचा दूँगा, पर इससे मुझे क्या मिलेगा? बदले में तुम मुझे क्या दोगे?”

पिशाच ने कहा, “मैं तुम्हें मालामाल कर दूँगा। मुझ पर दया करो!” सो ब्राह्मण ने उसे पीठ पर लादा और मंदिर से बहुत दूर दूसरे पेड़ पर छोड़ दिया। ब्रह्मराक्षस ने राहत की साँस ली। वह बहुत ख़ुश था। स्थान बदलने से उसकी सुप्त शक्तियाँ भी जाग गई थीं। उसने ब्राह्मण को आशीर्वाद दिया और कहा, “मैं जानता हूँ तुम निर्धन और दुखी हो। मेरे कहे अनुसार करोगे तो तुम्हारा जीवन सुख से कटेगा। अब मैं मैसूर जाऊँगा और वहाँ की राजकुमारी में प्रवेश करूँगा। उसके उपचार के लिए दूर-दूर से ओझा-गुनी आएँगे, पर मैं टस से मस नहीं होऊँगा। मैं उसे तभी छोड़ूँगा जब तुम आओगे। राजकुमारी को पिशाचमुक्त करने से राजा बहुत प्रसन्न होगा। वह तुम्हें इतना धन देगा कि फिर तुम्हें धन का कोई अभाव नहीं रहेगा। परंतु एक बात स्मरण रखना—इसके पश्चात मैं जिस किसी में प्रवेश करूँ तुम हस्तक्षेप नहीं करोगे। इसके पश्चात तुम मेरे पास भी फटके तो मैं तुम्हारे प्राण ले लूँगा।”

यात्रा जारी रखते हुए ब्राह्मण काशी पहुँचा और गंगास्नान करके विश्वनाथ के दर्शन किए। काशी से लौटते हुए उसे ब्रह्मराक्षस की बात याद आई। सो वह काफ़ी कष्ट उठाकर मैसूर पहुँचा और ख़र्चे के पैसे देकर एक बुढ़िया के यहाँ डेरा डाला। उसने बुढ़िया से यों ही पूछा कि शहर में सब ठीक तो है। बुढ़िया ने कहा, “एक पिशाच ने हमारी राजकुमारी पर क़ब्ज़ा कर रखा है। कोई भी झाड़ागर पिशाच को भगा नहीं सका। महाराज ने मुनादी करवाई है कि जो राजकुमारी को पिशाचमुक्त करेगा उसे वे बहुत-सा धन देंगे।”

ब्राह्मण को लगा कि उसके अच्छे दिन गए हैं। वह राजमहल गया और राजा को कहलवाया कि वह राजकुमारी को पिशाच से छुटकारा दिला सकता है। किसी को भी विश्वास नहीं हुआ कि यह अकिंचन ब्राह्मण यह कर सकेगा। आधे-अधूरे मन से राजा ने उसे अनुमति दे दी।

राजकुमारी के कक्ष में पहुँचकर ब्राह्मण ने रोगी के अलावा सबसे चले जाने को कहा। सब चले गए तो ब्रह्मराक्षस ने राजकुमारी के मुँह से कहा, “मैं कब से तुम्हारी बाट जोह रहा हूँ! परंतु जो मैंने पिछली बार कहा वह भूल मत जाना। यदि तुम आज के बाद मुझे दिखे तो मैं तुम्हें मार डालूँगा।”

फिर एक ज़बरदस्त आवाज़ के साथ ब्रह्मराक्षस ने राजकुमारी का शरीर छोड़ा और अलोप हो गया। राजकुमारी को स्वस्थ देखकर महल में ख़ुशी छा गई। राजा ने ब्राह्मण को ढेरों धन और अनेक गाँव दिए। ब्राह्मण ने उसी शहर में एक सुशील कन्या से ब्याह कर लिया और बढ़ती हुई गृहस्थी के साथ वहीं रहने लगा।

मैसूर की राजकुमारी को छोड़कर पिशाच सीधे केरल गया और त्रावनकोर की राजकुमारी को लग गया। त्रावनकोर के राजा ने सभी संभव उपाय आजमा लिए, पर पिशाच ने राजकुमारी का पिंड नहीं छोड़ा। एक दिन किसी ने राजा को मैसूर के सिद्ध ब्राह्मण के बारे में बताया कि कैसे उसने वहाँ की राजकुमारी को पिशाचमुक्त किया था। सो त्रावनकोर के राजा ने मैसूर के राजा को पत्र लिखा कि यदि सिद्ध ब्राह्मण उसकी बेटी को दुःसाध्य पिशाच से मुक्त कर देगा तो वह उसे उचित पुरस्कार देगा।

मैसूर के राजा ने ब्राह्मण को महल में बुलाया और आदेश दिया कि वह उसके मित्र त्रावनकोर के राजा के पास जाए और देखे कि वह वहाँ की राजकुमारी के लिए क्या कर सकता है। पिशाच से वापस मिलने की कल्पना से ब्राह्मण के देवता कूच कर गए। पर स्वामी के आदेश की अवहेलना भी कैसे करे! साथ ही वह पिशाच के वर्तमान शिकार के मामले में टाँग अड़ाकर उसका कोपभाजन भी नहीं बनना चाहता था। काफ़ी सोच-विचार के बाद आख़िर उसने त्रावनकोर जाने का निश्चय किया। पत्नी और बच्चों का आवश्यक प्रबंध करके वह त्रावनकोर के लिए चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने बीमारी का बहाना किया और पूरे दो महीने डेरे से बाहर नहीं निकला। पर ऐसा कब तक चलता! राजकुमारी को पिशाचमुक्त करने का दायित्व अंततः उसे उठाना ही था।

जैसे-तैसे साहस बटोरकर उसने सौंपे हुए कार्य को निपटाने का निश्चय किया। संकट में भगवान से अपनी रक्षा की प्रार्थना करके वह राजमहल गया और उसे राजकुमारी के कक्ष में पहुँचाने के लिए कहा। उसे देखते ही ब्रह्मराक्षस चिल्लाया, “मैं तुम्हें यमराज के यहाँ पहुँचा दूँगा। तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है।” यह कहकर वह लोहे का मूसल हाथ में लिए हुए उसकी ओर झपटा।

ब्राह्मण जान हथेली पर रखकर आया था। उसे अपने बचने की कोई आशा नहीं थी। घोर हताशा से उपजे साहस के कारण उसकी बुद्धि और पैनी हो गई। उसने शांति से कहा, “दुष्ट पिशाच, तू सीधे-सीधे जाता है या मंदिर वाले बाँसुरी वादक को बुलाऊँ? इस महल में रात-दिन बेसुरी बाँसुरी बजाकर उसे बहुत ख़ुशी होगी।”

संगीतरसिक पिशाच चीत्कार कर उठा, “नहीं, नहीं उसे मत बुलाओ। मैं जाता हूँ।”

भयंकर आवाज़ के साथ वह राजकुमारी के शरीर से बाहर निकला और अलोप हो गया।

पिशाच के चंगुल से छुटकारा मिलने पर राजकुमारी कुछ ही दिनों में उसके बुरे प्रभावों से मुक्त हो गई। राजा की प्रसन्नता का पार रहा। उसने ब्राह्मण को इतना धन दिया कि वह उसे अभी तक गिन रहा है। उस धन को बैलगाड़ियों में लादकर वह ख़ुश-ख़ुश अपने घर लौटा और पत्नी और बाल-बच्चों के साथ सुख से रहने लगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 126)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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