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फूलों वाला पेड़

phulon vala peD

किसी शहर में एक राजा रहता था। उसके दो बेटियाँ और एक बेटा था। बड़ी राजकुमारी का विवाह हो गया था और वह अपने ससुराल में रहती थी।

उसी शहर में एक बुढ़िया अपनी दो बेटियों के साथ रहती थी। दूसरों के यहाँ चौका-बासन करके वह अपना और बेटियों का पेट भरती थी। लड़कियाँ जवानी की दहलीज़ पर आईं तो एक दिन छोटी वाली ने बहन से कहा, “दीदी, मेरे मन में एक बात है। माँ को हमारे लिए कितना खटना पड़ता है! मैं उसका हाथ बँटाना चाहती हूँ। मैं फूलों का पेड़ बन जाती हूँ। तुम उसके फूल तोड़ लेना। हमें उनके अच्छे पैसे मिल जाएँगे।”

बड़ी बहन को आश्चर्य हुआ, “कैसी बात करती हो? तुम फूल का पेड़ कैसे बन सकती हो?”

“वह मैं बाद में बताऊँगी। पहले तुम पूरे घर को झाड़-पोंछकर साफ़ करो। फिर कुएँ से दो घड़े पानी लाओ। पर तुम्हारे नाख़ून घड़े को छुए यह ध्यान रखना।”

उनके घर के आगे एक बड़ा पेड़ था। बड़ी बहन ने पेड़ के नीचे भी सफ़ाई कर दी। फिर दोनों बहनें पेड़ के नीचे गईं। छोटी बहन ने कहा, “दीदी, मैं इस पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान करूँगी। तुम इस घड़े का पानी मेरे पूरे शरीर पर उड़ेल देना। मैं फूलों का पेड़ बन जाऊँ तो जितने फूल तोड़ सको, तोड़ लेना, लेकिन एक भी टहनी टूटने पाए और किसी पत्ती के खरोंच ही लगे। फूल तोड़ने के बाद दूसरे घड़े का पानी मुझ पर डाल देना। मैं फिर लड़की बन जाऊँगी।”

यह कहकर वह पालथी मारकर बैठी और भगवान का ध्यान करने लगी। बड़ी बहन ने पहले घड़े का पानी उस पर उड़ेला। और लो, उसकी बहन घेर-घुमेर पेड़ बन गई! बड़ी बहन ने बहुत एहतियात से फूल तोड़े। किसी डाली, टहनी और पत्ती को ज़रा भी नुकसान नहीं पहुँचाया। दो एक टोकरी फूल तोड़ने के बाद उसने दूसरे घड़े का पानी पेड़ पर उड़ेला। पानी उड़ेलते ही पेड़ ने फिर मानव देह धारण कर ली। पेड़ की ठौर अब वहाँ उसकी बहन बैठी थी। उसने बालों से पानी झटका और उठ खड़ी हुई। फूलों की टोकरियाँ वे घर के अंदर ले आईं। फूलों की सुवास अद्भुत थी। उनकी उन्होंने मालाएँ बनाई।

बड़ी बहन ने कहा, “मैं इन्हें कहाँ बेचूँ?”

“दीदी, इन्हें राजमहल क्यों नहीं ले जाती? वहाँ अच्छे दाम मिलेंगे। माँ को हमारे लिए कैसे-कैसे काम करने पड़ते हैं! पैसे जमाकर के हम माँ को देंगे तो वह हैरान रह जाएगी।”

फूलों की मालाएँ लेकर बड़ी बहन राजमहल के सामने गई और आवाज़ लगाने लगी, “फूल लो, फूल! ताज़े ख़ुशबूदार फूल!”

राजकुमारी ने झरोखे में से देखा और बोली, “माँ, माँ, फूलों की ख़ुशबू कितनी अच्छी है, है न? मुझे कुछ ले दो न!”

रानी ने कहा, “अच्छी बात है, फूल वाली को यहीं बुला लो।” उन्हें फूल बहुत पसंद आए। रानी ने पूछा, “बोलो, क्या दाम लोगी?”

बड़ी बहन ने जवाब दिया, “हम ग़रीब लोग हैं। आप जो ठीक समझें, दे दें।” रानी ने उसे एक मुट्ठी सिक्के दिए और सब मालाएँ ले लीं।

वह पैसे लेकर घर पहुँची तो छोटी बहन ने कहा, “दीदी, माँ को बताना मत। इन्हें कहीं छुपा दो। किसी से भी चर्चा मत करना।”

इस तरह उन्होंने पाँच दिन फूल बेचे। उनके पास पाँच मुट्ठी सिक्के हो गए।

बड़ी बहन ने पूछा, “अब माँ को सिक्के के बारे में बताएँ?”

छोटी बहन ने कहा, “नहीं, नहीं, माँ मारेगी।” पैसे जोड़कर वे फूली नहीं समा रही थीं।

एक दिन राजकुमार ने वे फूल देखे। उनकी सुगंध अपूर्व थी। ऐसे फूल उसने कभी नहीं देखे। उसकी उत्सुकता जागी, “कौन-से फूल हैं ये? ये कहाँ होते हैं और किस पेड़ पर लगते हैं? राजमहल में इन्हें कौन लाया?” एक दिन उसने फूल लाने वाली लड़की को देखा और उसके पीछे-पीछे उसके घर तक गया। वहाँ उसे कोई फूल वाला पेड़ नजर नहीं आया। वापस लौटते समय वह सारे रास्ते यह सोचता रहा कि ऐसे फूल वह कहाँ से लाती है?

अगले दिन राजकुमार अँधेरे-अँधेरे उठा और जाकर बुढ़िया के घर के सामने वाले पेड़ पर छुपकर बैठ गया। उस दिन भी दोनों बहनों ने पेड़ के नीचे की जगह झाड़-बुहार कर साफ़ की। हमेशा की तरह छोटी बहन फूलों के पेड़ में बदली और बड़ी बहन के फूल तोड़ लेने के बाद वापस लड़की बन गई। राजकुमार ने यह सब अपनी आँखों से देखा।

राजकुमार राजमहल गया और मुँह उतारकर पलंग पर पड़ गया। राजा और रानी उसके पास आए और उसकी उदासी का कारण पूछा। पर वह चुप रहा। मंत्री का बेटा राजकुमार का मित्र था। वह भी आया। बोला, “बात क्या है? क्या किसी ने कुछ कह दिया? तुम चाहते क्या हो मुझसे तो कहो!” राजकुमार ने उसे थोड़ा-थोड़ा करके फूलों का पेड़ बनने वाली लड़की के बारे में बताया। “बस, इतनी-सी बात है!” मंत्री के बेटे ने कहा और जाकर राजा को सारी बात बताई। राजा ने मंत्री को बुलवाया और उसे बुढ़िया को लिवाने के लिए कहा। फटे-पुराने कपड़े पहने बुढ़िया भय से काँपती हुई आई और दरवाज़े के पास खड़ी हो गई। कई बार कहने पर बड़ी मुश्किल से वह नीचे बैठी। राजा ने उसे ढाढ़स बँधाया कि घबराने की कोई बात नहीं है। फिर धीरे से पूछा, “तुम्हारे घर में दो लड़कियाँ हैं। उनमें से एक हमें दोगी?” बुढ़िया भय से पीली पड़ गई। सोचने लगी, “राजा उनके बारे में कैसे जानते हैं?” उसने जैसे-तैसे हकलाते हुए कहा, “जो आपकी इच्छा महाराज! मेरे जैसे ग़रीब औरत के लिए बेटी देनी कोई ऐसी बात नहीं जिसके लिए आपको पूछना पड़े।”

राजा ने सगाई के दस्तूर के रूप में चांदी की तश्तरी में रखकर उसे पान-सुपारी दिए। बुढ़िया उन्हें लेने का साहस जुटा पाई। राजा के बार-बार कहने पर उसे पान-सुपारी कबूल करने पड़े। पान-सुपारी लेकर वह घर लौट गई।

घर आकर उसने झाड़ू उठाया और बेटियों को मारने लगी। वह मारती जाती थी और गालियाँ देती जाती थी, “कुतियो, कहाँ फिरती रहती हो? महाराज तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे। तुम कहाँ गई थीं?”

बेचारी लड़कियों के कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि बात क्या है। वे चिल्लाती रहीं, “अम्मां, हमने क्या किया है? हमें मार क्यों रही हो?”

“मारूँ नहीं तो क्या करूँ! तुम कहाँ गई थीं? महाराज तुम्हारे बारे में कैसे जानते हैं?”

बुढ़िया का ग़ुस्सा ठंडा नहीं हुआ। भयभीत लड़कियों ने टुकड़ों-टुकड़ों में स्वीकार किया कि वे क्या करती रही हैं—कैसे छोटी बहन फूलों का पेड़ बनती और कैसे उन्होंने फूल बेचे। माँ को हैरत में डालने के लिए उन्होंने उसे पाँच मुट्ठी सिक्के भी दिखाए।

“मैं क्या मर गई थी? मेरे रहते तुम्हें यह सब करने की क्या पड़ी थी? मुझसे झूठ बोलती हो? आदमी पेड़ कैसे बन सकता है भला ? बताओ, मुझे पेड़ बनकर बताओ!”

यह कहते हुए उसने उन्हें और मारा। माँ का ग़ुस्सा ठंडा करने के लिए छोटी बेटी को सब करके दिखाना पड़ा। वह पेड़ बनी और वापस असली रूप में गई—ऐन माँ की आँखों के सामने।

अगले दिन राजा ने बुढ़िया के लिए फिर बुलावा भेजा। वह राजमहल में गई। बोली, “कैसे याद फरमाया अन्नदाता?”

राजा ने कहा, “बोलो, हम विवाह के लिए कौन-सा दिन तय करें?”

“मैं क्या कहूँ सरकार! जो आप का आदेश हो।” बुढ़िया के मन में ख़ुशी के लड्डू फूट रहे थे।

विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। घरवालों ने आँगन को आकाश से भी बड़ी अल्पनाओं से सजाया और धरती से भी बड़ा मंडप बनाया। जात-बिरादरी के तमाम लोग आए। शुभ मुहूर्त में फूलों का पेड़ बनने की विद्या जानने वाली लड़की और राजकुमार का विवाह हो गया।

फेरों के बाद दूल्हा-दुलहन को कमरे में अकेला छोड़ दिया गया। पर वे एक-दूसरे से दूर ही रहे। दो रातें बीत गईं। दुलहन सोचती, दूल्हा कुछ कहेगा। दूल्हा सोचता, दुलहन कुछ कहेगी। यों दो रात दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला।

तीसरी रात दुलहन का धीरज चुक गया, “इन्होंने अभी तक एक शब्द भी नहीं कहा। फिर इन्होंने मुझसे शादी क्यों की?” आख़िर उसे पूछना पड़ा, “क्या इसी सुख के लिए आपने मुझसे ब्याह किया?”

पति ने रुखाई से जवाब दिया, “मैं तुमसे तभी बात करूँगा जब कि जैसा मैं कहूँगा तुम करोगी।”

“आप ने यह कैसे सोचा कि मैं आपका कहा टालूँगी? कहिए, आप क्या चाहते हैं?”

“तुम फूलों का पेड़ बनना जानती हो, है न? मुझे भी बनकर दिखाओ। हम उन फूलों की सेज पर सोएँगे और उन्हीं फूलों से अपने को ढक लेंगे। कितना अच्छा लगेगा!”

“मेरे स्वामी, मैं राक्षसी नहीं हूँ। ही मैं कोई देवी हूँ। मैं औरों की तरह साधारण स्त्री हूँ। आदमी पेड़ कैसे बन सकता है?” दुलहन ने बहुत विनम्रता से कहा।

“बहलाओ मत। मुझे झूठ से चिढ़ है। मैंने अपनी आँखों से तुम्हें पेड़ बनते देखा है। अगर तुम मेरे लिए पेड़ नहीं बनोगी तो किसके लिए बनोगी?” राजकुमार ने नाराज़गी से कहा।

दुलहन ने साड़ी के पल्लू से अपने आँसू पोंछते हुए कहा, “ग़ुस्सा मत होइए। आपकी इतनी इच्छा है तो आपकी बात मुझे रखनी ही पड़ेगी। दो घड़े पानी लाइए।”

वह पानी ले आया। दुलहन ने पानी पर मंत्र पढ़े। इस बीच राजकुमार ने कमरे की खिड़कियाँ और दरवाज़े बंद कर दिए। दुलहन ने कहा, “जितने चाहें फूल तोड़ना, पर एक बात का ख़याल रखना—कोई टहनी टूटे और ही किसी पत्ती के खरोंच आए।”

फिर उसने पति को बताया कि वह कब और कैसे उस पर पानी डाले। सारी बात समझाकर वह कमरे के बीच में बैठ गई और भगवान का ध्यान करने लगी। राजकुमार ने उस पर एक घड़ा पानी उड़ेला। दुलहन फूलों का पेड़ बन गई। कमरा मह-मह महकने लगा। राजकुमार ने जी भरकर फूल तोड़े और पेड़ पर दूसरे घड़े का पानी डाला। पेड़ ने फिर उसकी दुलहन का रूप धारण कर लिया। दुलहन ने पानी झटका और मुस्कुराते हुए उठ खड़ी हुई।

उन्होंने पलंग पर फूल बिछाए और उन पर लेटकर अपने ऊपर भी फूल डाल लिए और सो गए। ऐसा वे कई दिन करते रहे। हर रोज़ सुबह मुरझाए हुए फूलों को वे खिड़की से फेंक देते। खिड़की के नीचे फूलों का ढेर लग गया—गोया छोटी-मोटी पहाड़ी हो।

छोटी राजकुमारी ने एक दिन मुरझाए हुए फूलों का ढेर देखा और रानी से कहा, “माँ देखो तो, भैया और भाभी इतने फूलों का जाने क्या करते हैं! उनके फेंके हुए फूलों से वहाँ एक पहाड़ बन गया है। और उन्होंने मुझे एक फूल भी नहीं दिया!”

रानी ने उसे दिलासा दिया, “कोई बात नहीं। मैं उनसे तुम्हें देने के लिए कहूँगी।”

कुछ ही दिनों में राजकुमारी ने ताक-झाँक करके फूलों का रहस्य पता कर लिया। एक दिन जब राजकुमार कहीं बाहर गया हुआ था राजकुमारी ने सहेलियों से कहा, “चलो, सुरहोने बाग़ में झूला झूलेंगे। भाभी को भी साथ ले लेंगे। वह फूलों का पेड़ बनना जानती है। अगर तुम आओगी तो मैं तुम्हें ऐसे फूल दूँगी जिनके बारे में तुमने सुना भी नहीं होगा। उन फूलों से अनोखी ख़ुशबू आती है।”

फिर उसने माँ से पूछा। रानी ने कहा, “हो आओ। इसमें भला पूछना क्या!”

तब बेटी ने कहा, “पर मैं अकेली नहीं जाऊँगी। भाभी को भी हमारे साथ भेजो।”

“मैं कब मना करती हूँ! पर अपने भैया से तो पूछ लो!”

तभी राजकुमार गया। बहन ने पूछा, “भैया, भैया, हम सुरहोने बाग़ में झूलने जा रही हैं। भाभी को भी भेजो न!”

“इसमें मैं क्या कहूँ! माँ से पूछो।”

सो वह वापस रानी के पास गई और शिकायत करने लगी, “माँ, भैया तो तुमसे पूछने को कहते हैं। तुम भाभी को भेजना नहीं चाहती इसीलिए बहाने बनाती हो। क्या तुम्हारे लिए तुम्हारी बहू ही सब-कुछ है, मैं कुछ नहीं?”

रानी ने डाँटा, “क्या उज्जड्ड की तरह बात करती हो! ठीक है, बहू को ले जाओ। उसका ध्यान रखना और शमा तक लौट आना।”

चाहते हुए भी रानी ने बहू को लड़कियों के साथ भेज दिया।

सब सुरहोने बाग़ पहुँची। एक बड़े पेड़ से झूले बाँध दिए गए। सब चहकते हुए झूलने लगीं। अचानक राजकुमारी ने झूले रुकवाकर सबको बुलाया और भाभी को कौंचने लगी, “भाभी, तुम फूलों का पेड़ बन सकती हो, क्या नहीं? देखो, किसी के भी बालों में फूल नहीं है।”

भाभी ने तमककर कहा, “ऐसी बेसर-पैर के बात तुमसे किसने कही? मैं भी तुम्हारी तरह मामूली स्त्री हूँ। पागलों की-सी बातें मत करो।”

राजकुमारी ने ताना कसा, “ज़्यादा बनो मत! मैं सब जानती हूँ। मेरी सहेलियों के बालों में फूल नहीं है, इसलिए मैंने भाभी से कहा कि वह पेड़ बन जाए और हमें कुछ फूल दे दे, और देखो, यह कैसे नखरे दिखा रही है! तुम हमारे लिए पेड़ नहीं बनना चाहती। बनोगी भी क्यों भला! वह तो अपने यारों के लिए रख छोड़ा है!”

“छी, छी! ऐसी बात कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती? मुझे यहाँ आना ही नहीं चाहिए था।” भाभी ने व्यथित होकर कहा और पेड़ बनने के लिए तैयार हो गई।

उसने पानी के दो घड़े मँगवाए, उनपर मंत्र पढ़े, लड़कियों को समझाया कि कैसे और कब पानी डालें और बैठकर ध्यान करने लगी। छिछोरी लड़कियों ने उसकी बात पूरी सुनी ही नहीं। उन्होंने थोड़ा इधर थोड़ा उधर, कहीं ज़्यादा कहीं कम पानी गेर दिया। वह पेड़ तो बनी, पर आधा-अधूरा।

दिन ढलने लगा था। सहसा बरसात शुरू हो गई। बिजलियाँ चमकने लगीं। फूलों के लालच में एक-दूसरे को धकियातीं वे झपट पड़ीं। इस आपा-धापी में पत्तियाँ नुच गईं और टहनियाँ टूट गईं। जल्दी घर लौटने की हड़बड़ी में उन्होंने दूसरे घड़े का पानी बड़े बेतरतीब ढंग से पेड़ पर गेरा और भाग खड़ी हुईं। वह पुनः लड़की तो बनी, पर आधा शरीर ग़ायब—मात्र घायल लोथ।

बरसात के थपेड़ों में वह असहाय कराहती रही। तेज़ बरसात के रेलों ने उसे एक नाले में गिरा दिया। नाले में बहती हुई वह काफ़ी दूर एक मोड़ पर अटक गई।

अगले दिन सवेरे उधर से कपास की सात-आठ बैलगाड़ियाँ निकलीं। एक गाड़ीवान को नाले में से किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। वह आवाज़ उसे आदमज़ाद की-सी लगी। उसने अपने साथियों से कहा, “सुनो, यह कैसी आवाज़ है?”

दूसरे गाड़ीवान ने कहा, “ए, चलते रहो। हवा की आवाज़ है या भूत की, कौन जाने!”

पर आख़िर गाड़ीवान से रहा गया। वह रुका और नाले में झाँककर देखा। वहाँ उसे एक विकृत लोथ दिखी। सिर्फ़ चेहरा सही-सलामत था—एक ख़ूबसूरत औरत का चेहरा। वह निर्वसन थी।

“आह, बेचारी!” उसने दुख से कहा, अपनी पगड़ी का कपड़ा उस पर डाला और लोथ को उठाकर अपनी गाड़ी पर रख दिया। साथ वाले गाड़ीवानों के गंदे हँसी-मज़ाक़ पर उसने बिलकुल ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद वे एक शहर में पहुँचे। उन्होंने गाड़ियाँ रोकीं और एक खंडहर के ओसारे में लोथ को उतार दिया। वहाँ से आगे बढ़ने से पहले आख़िरी गाड़ीवान ने कहा, “इधर से निकलने वाले तुम्हें रोटी दे देंगे। तुम भूख से नहीं मरोगी।” कहकर वह भी साथियों के साथ आगे बढ़ गया।

उधर राजकुमारी को अकेले घर आया देखकर रानी ने पूछा, “बहू कहाँ है? तुम्हारा भाई क्या कहेगा!” राजकुमारी ने चलताऊ जवाब दिया, “भगवान जाने वह कहाँ है! हम भी घर आई ही हैं। क्या वह रास्ता नहीं जानती।”

रानी को काटो तो ख़ून नहीं! “क्या कहती हो? राजकुमार फाड़ खाएगा। मुझे बताओ, हुआ क्या?”

राजकुमारी ने जो जी में आया कह दिया। रानी के कुछ पल्ले नहीं पड़ा। उसे शंका हुई कि बेटी ने ज़रूर कोई मूर्खता की है। काफ़ी इंतज़ार के बाद आख़िर राजकुमार रानी के पास आया।

“अम्मां, अम्मां!”

“क्या बात है बेटे?”

“आपकी बहू कहाँ है? वह राजकुमारी के साथ झूला झूलने गई थी, अभी तक आई नहीं!”

“हे राम! मैं तो सोच रही थी कि वह तुम्हारे कमरे में है और तुम मुझे पूछ रहे हो!”

राजकुमार को लगा, निश्चित ही उसकी पत्नी के साथ कुछ अघटित घटा है। वह अपने कमरे में गया और व्यथित हृदय लिए पड़ रहा। पाँच दिन बीते, छह दिन बीते, पंद्रह दिन बीते, पर उसकी पत्नी का कुछ पता नहीं चला। सब ख़ाली हाथ लौट आए।

“मूर्ख लड़कियों ने उसे किसी तालाब या कुएँ में तो नहीं धकेल दिया? राजकुमारी ने उसे कभी पसंद नहीं किया। कौन जाने दुष्ट लड़कियों ने उसके साथ क्या किया?” वह बार-बार माँ और पिता से पूछता, नौकरों से पूछता, पर वे क्या जवाब देते? वे स्वयं चिंतित और भयभीत थे। विरक्ति और निराशा के वशीभूत भगवा भेष धारण करके वह घर से निकल गया। वह चलता रहा, चलता रहा, बिना इसकी परवाह किए कि वह जा कहाँ रहा है।

इस बीच फूलों का पेड़ बनने वाली लड़की की लोथ संयोग से उस शहर में पहुँच गई जहाँ उसकी बड़ी ननद ब्याही थी। राजमहल के सेवक पानी लाने के लिए वहाँ से गुज़रते समय उसकी लोथ को रोज़ देखते थे। उसे देखकर वे एक-दूजे से कहते, “इसके चेहरे पर राजकुमारियों का-सा तेज है।” उनमें से एक सेवक से रहा गया और उसने इस बारे में रानी से बात करने का निश्चय किया।

“अम्मां, अम्मां, उसकी शक्ल आपकी भाभी से बहुत मिलती है। काच की बारी से आप ख़ुद देख लीजिए!”

रानी ने देखा—शक्ल तो बहुत मिलती है! एक दासी ने कहा, “अम्मां, उसे महल में रख लीजिए न! कहिए तो ले आऊँ?”

रानी ने जुगुप्सा से कहा, “हम वहीं उसका ध्यान रखेंगे और रोटी डाल देंगे। महल में लाने की बात मत करो।”

अगले दिन दासियों ने डरते-डरते फिर याचना की, “वह बड़ी प्यारी है। महल में वह दीए सरीखी लगेगी। क्या हम उसे ले आएँ?”

“ठीक है, तुम्हारी इतनी ही इच्छा है तो ले आओ। पर उसकी देखभाल के चक्कर में महल के काम में कोताही नहीं होनी चाहिए।” रानी ने कहा।

वे राज़ी हो गईं और लोथ को महल में ले आईं। उन्होंने उसे तेल स्नान कराया, अच्छे कपड़े पहनाए और महल के दरवाज़े के पास बिठा दिया। वे हर दिन उसके औषधियों का लेप करतीं। धीरे-धीरे उसके घाव भर गए। पर वे उसे पूर्ण बना सकीं। उसके आधे अंग अब भी ग़ायब थे।

उधर राजकुमार यहाँ-वहाँ की ख़ाक छानता अपनी बड़ी बहन के दरवाज़े पर पहुँच गया। वह पागल-सा लगता था। उसकी दाढ़ी और सर के बालों ने उलझकर जटा का रूप ले लिया था। पानी लाने के लिए आती-जाती दासियों ने उसे देखा। लौटकर उन्होंने रानी को बताया, “अम्मां, अम्मां, कोई दरवाज़े के बाहर बैठा है। वह बिलकुल आपके भाई जैसा लगता है। काँच की खिड़की से आप ख़ुद देख लीजिए न!”

रानी बड़बड़ाती हुई झरोखे पर गई और काच में से देखा। वह दंग रह गई, “सचमुच, यह तो हूबहू मेरा भाई लगता है। इसे क्या हो गया। यह संन्यासी कैसे हो गया? असंभव!” उसने सोचा। उसने दासियों को उसे अंदर लिवाने भेजा। उन्होंने जाकर राजकुमार से कहा, “रानी आप से मिलना चाहती हैं।”

वह उपेक्षा से बड़बड़ाया “भागो यहाँ से! मुझसे क्यों मिलेंगी वे?”

“नहीं महाराज, वे सचमुच आपसे मिलना चाहती हैं। उन्होंने ही हमें आपको लिवाने भेजा है।” दासियों ने ज़ोर देकर कहा और अंततः उसे अंदर चलने के लिए राज़ी कर लिया। रानी ने उसे ग़ौर से देखा। उसने अपने भाई को पहचान लिया।

भाई के स्नान के लिए रानी ने टहलुओं को तेल की टंकियाँ और पानी के कड़ाह गर्म करने का आदेश दिया। भाई की देखरेख और आवभगत वह स्वयं करती थी। वह उसके लिए नित नए व्यंजन परोसती थी और नित नए रंग और नए काट के कपड़े पहनने को देती थी। इतना सब करने के बावजूद वह अपनी बहन से एक शब्द भी नहीं बोला। उसने यह भी नहीं पूछा, “तुम कौन हो? मैं कहाँ हूँ।” यद्यपि दोनों जानते थे कि वे भाई-बहन हैं।

रानी को आश्चर्य होता था, “मैं उसकी राजसी देखभाल करती हूँ, पर यह है कि मुझसे बात ही नहीं करता! क्या कारण हो सकता है? कहीं यह किसी चुड़ैल या दैत्य की माया तो नहीं?”

कुछ दिन बाद रानी उसके कमरे में रात को एक से एक सुंदर दासी भेजने लगी। सात दिनों में उसने सात दासियाँ भेजीं। दासियाँ उसका शरीर सहलातीं, उसे चूमतीं, पर व्यर्थ। उसकी जड़ता नहीं टूटी।

अंततः दासियों ने महल के दरवाज़े पर रखी लोथ का सिंगार किया और निराश रानी की अनुमति से उसे राजकुमार के पलंग पर छोड़ आई। राजकुमार तो आँख उठाकर देखता था और ही कुछ बोलता था। पर उस रात जब उसके पैताने रखी लोथ ने अपने ठूँठे हाथ से उसके पाँवों को दबाया और अजीब तरीक़े से विलाप किया तो वह झटके से उठा और उसकी ओर देखा। वह कुछ पल एकटक उसकी ओर देखता रहा। अरे, यह तो उसकी खोई हुई पत्नी है! राजकुमार ने उससे पूछा कि वह अचानक कहाँ चली गई थी और उसकी यह दशा कैसे हुई। फूलों के पेड़ वाली लड़की ने महीनों बाद अपने होंठ खोले। उसने राजकुमार को सारी बात बताई।

राजकुमार ने पूछा, “अब हम क्या करें?”

“हम केवल कोशिश कर सकते हैं। मुझे दो घड़े पानी ला दो। हाँ, घड़ों को नाख़ूनों से छूना मत।”

वह तुरंत दो घड़ों में पानी भरकर ले आया। फूलों के पेड़ वाली लड़की ने उन पर मंत्र पढ़े और उसे हिदायत दी, “इस घड़े का पानी मुझ पर डालोगे तो मैं पेड़ बन जाऊँगी। जो टहनियाँ टूटी हुईं हों उन्हें ठीक से जोड़ देना। नुची हुई पत्तियों को अच्छी तरह बाँध देना। फिर दूसरे घड़े का पानी पेड़ पर डालना।”

उसके उपरांत वह बैठकर ध्यान करने लगी।

राजकुमार ने पहले घड़े का पानी उस पर उड़ेला। वह पेड़ बन गई। पर पेड़ की टहनियाँ टूटी हुईं और पत्तियाँ नुची हुई थीं। राजकुमार ने बहुत सावधानी से एक-एक टहनी और एक-एक पत्ती को अपनी जगह पर अच्छी तरह जमाया और बाँधा। फिर पूरे पेड़ पर धीरे-धीरे दूसरे घड़े का पानी डाला। फूलों के पेड़ वाली लड़की को फिर अपना पूरा शरीर प्राप्त हो गया। वह खड़ी हुई, बालों से पानी झटका और पति के पाँवों में गिर पड़ी।

फिर वह ननद के पास गई, उसे जगाया और उसके पाँव छूए। भौंचक्की रानी को उसने पूरी बात ब्यौरेवार बताई। रानी ने रोते हुए उसे गले लगाया। रानी ने भैया-भाभी को बढ़िया से बढ़िया व्यंजन बनाकर खिलाए, उनकी ख़ूब ख़ातिरदारी की और दूल्हा-दुलहन की तरह उन्हें कमरे में बिठाकर रिवाज़ के अनुसार उनके सुखी जीवन के लिए मंगलकामनाएँ की। उसने उन्हें हफ़्तों अपने पास रखा और फिर उपहारों से लदी बैलगाड़ियों के साथ विदा किया।

खोए हुए बेटे और बहू के लौट आने पर राजा की ख़ुशी का ओर-छोर रहा। उनकी अगवानी के लिए वह शहर के दरवाज़े तक गया और उन्हें हाथी के हौदे पर बिठाकर शहर की गलियों में भव्य शोभायात्रा निकाली। घर पहुँचकर उन्होंने राजा को आपबीती बताई। राजा ने तुरंत गहरा गड्ढा ख़ुदवाया, उसमें सात ढोल खौलता हुआ चूना डाला और अपनी छोटी बेटी को उसमें फेंकवा दिया। देखने वालों ने मन ही मन कहा, “आख़िर पापी को करनी का फल मिलकर रहा।”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 116)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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