कोंकण में एक प्रतापी राजा राज करता था। सारे सुख और वैभव उसे सुलभ थे। वह कामदेव की तरह सुंदर और मृदुभाषी, न्यायी और दानी था। अजेय योद्धा होते हुए भी पराजित शत्रुओं को वह अपने राज्य का भूभाग भेंट कर दिया करता था।
इनके अलावा उसमें एक और विशेषता थी। वह धीमी से धीमी फुसफुसाहट भी सुन लेता था। यहाँ तक कि मच्छर की आवाज़ भी उससे छुपी नहीं रहती थी। कोई नहीं जानता था कि आस-पास की हर आवाज़ सुन लेने की अद्भुत शक्ति उसे कहाँ और कैसे मिली। सब यह रहस्य जानने को उत्सुक थे।
एक दिन राजा के नाई ने उसके लंबे बालों के नीचे असाधारण चीज़ देखी। गजा की दाढ़ी बनाते समय उसके कानों पर उसकी नज़र पड़ी। नाई को लगा कि उसने ऐसे कान कहीं देखे हैं। पर याद नहीं आया कि कहाँ! वह सोचता रहा, सोचता रहा। वह भूल गया कि वह राजा की दाढ़ी बना रहा है। यह याद करने की चेष्टा करते हुए कि ऐसे कान उसने कहाँ देखे। बे-ख़याली में उसने उस्तरा बंद कर दिया। राजा पहले कुछ बुदबुदाया और फिर उससे पूछा कि वह इस तरह खड़ा क्यों है। उसका दिमाग़ तो नहीं चल गया। पर नाई पर कोई असर नहीं हुआ। इस पर राजा ग़ुस्से से गरजा, पर वही ढाक के तीन पात! आख़िर राजा उठ खड़ा हुआ और दहाड़ा, “तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम्हारी मौत तो नहीं आ गई?”
नाई चौंका। वह चिल्लाया, “हाँ!” लेकिन अगले ही पल वह फिर अपने में खो गया। आदमी के विचारों को कौन रोक सका है! राजा का भी उन पर बस नहीं चलता। नाई के विचार अपनी गति से अपनी दिशा में चलते रहे। अधबनी दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए राजा फिर चीख़ा। अचानक नाई की आँखें चौड़ी हो गईं। ज़ोर से बाला, “हाँ! मैंने ऐसे गधे के देखे हैं! मैंने ऐसे गधे के देखे हैं!”
“क्या देखे हैं? क्या बकवास कर रहे हो?” राजा ने चिढ़कर पूछा। ग़ुस्से के मारे राजा की आवाज़ तेज से तेज़ होती गई। नाई कांपते हुए फूट पड़ा, “अय्यो! आपके... कान...”
नाई क्लांत-सा झुका और रोने लगा। राजा ने पूछा, “क्या हुआ मेरे कानों को? तुम रो क्यों रहे हो?”
नाई ने अपने को संभाला और साहस जुटाकर बोला, “महाराज, आपके कान बिलकुल गधे के कान जैसे हैं। गधे के कान कुछ बड़े होते हैं, बस इतना ही फ़र्क़ है।
राजा के आग-आग लग गई। पर शीघ्र ही उसने अपने ग़ुस्से पर क़ाबू पा लिया। उसने नाई को आदेश दिया कि वह किसी से उसके कानों के बारे में बात न करे। “कुछ दिनों से ये ऐसे हो रहे हैं”, कहते हुए राजा का मुँह उतर गया। “लेकिन अगर तुमने किसी से इनकी चर्चा की तो मैं तुम्हारा सर कलम कर दूँगा।”
नाई ने क़सम खाई कि वह किसी से इसकी चर्चा नहीं करेगा। फिर उसने उस्तरा खोला और जैसे-तैसे दाढ़ी बनाने लगा। नाई का मुँह बंद रखने के लिए राजा ने उसे हज़ामत का सामान रखने के लिए सोने की पेटी दी। प्रसन्न और परेशान नाई रास्ते में मिलने वालों से बचने के लिए भागता हुआ-सा घर गया। रास्ते में उस पर हँसी का ऐसा दौरा पड़ा कि वह सारे रास्ते खींसें निकालता, कुड़मुड़ाता और पूरी बत्तीसी दिखाते हुए हिनहिनाता रहा। लोगों ने समझा वह पगला गया है। पर चिंता की कोई बात नहीं। नींबू के रस से दिमाग़ की गर्मी उतर जाएगी। वह चंगा हो जाएगा।
वह घर पहुँचा। उसकी माँ दरवाज़े पर खड़ा थी। माँ को देखते ही वह ठहाके मारकर हँसने लगा। माँ को अचरज हुआ कि वह उस पर इस तरह क्यों हँस रहा है! जब उसकी पत्नी बाहर आई तब वह पेट पकड़कर हँस रहा था। उसकी हँसी की आवाज़ कभी तेज़ हो जाती तो कभी धीरे। पत्नी पूछ-पूछकर हार गई, पर जवाब में उसे पागल हँसी के सिवा कुछ नहीं मिला। वह ग़ुस्से से बड़बड़ाने लगी। तभी नाई की हँसी का रुख बदला और वह उल्लास से सुबकने लगा। पत्नी को कोई शक नहीं रहा कि उसका दिमाग़ ख़राब हो गया है। वह अपने भाग्य को कोसने लगी। जब सब चले गए और वह अकेला रह गया तो हंसी का दौरा कुछ कम हुआ। पर स्नान करते हुए उसे फिर गधे के कान का ध्यान आया और वह फिर हँसने लगा। पर सर पर गिरते ठंडे पानी ने हँसी को क़ाबू में रखा। उसकी दुखती पसलियों और पेट को भी थोड़ा आराम मिला।
काफ़ी देर तक वह ग़ुसलख़ाने से बाहर नहीं निकला तो उसकी माँ उसे देखने के लिए आई। उसे फिर हँसी का दौरा पड़ा। वह अपने पर नियंत्रण नहीं रख सका। हँसी के मारे वह ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहा था। माँ उसे सहारा देकर रसोई तक ले गई और खाना परोसा। पर पहला कौर लेते ही उसे फिर गधे के कान का ध्यान आया और वह फिर बुदबुदाने, सुबकने और हिनहिनाने लगा। छाती और पेट दर्द से ऐंठने लगे, पर वह बेबस था। खाना श्वासनली में चला गया। छीकें आई। गला रुँध गया। वह बेहोश-सा हो गया। हालत कुछ संभलती और फिर हँसी का दौरा पड़ जाता। बीच के कुछ अंतराल में जब उसकी हालत कुछ संभली हुई थी चिंतित माँ ने पूछा, “आख़िर बात क्या है, बताते क्यों नहीं?” पर वह राजा की अवज्ञा कैसे करता! वह अपना सर नहीं खोना चाहता था। बहुत कौंचने पर अंततः उसने कहा, “अब तुम्हें कैसे बताऊँ!”
माँ ने फिर पूछा, “तुम इस तरह क्यों हँस रहे हो? तुमने ऐसा क्या देखा? तुम्हारी आँखें लाल हो गई हैं। चेहरा सूज गया है। बताते क्यों नहीं, बात क्या है? क्यों हमें सता रहे हो?”
“अब तुम्हें कैसे बताऊँ! मैं राजा की आज्ञा का उल्लंघन कैसे करूँ! बताओ, मैं क्या करूँ?”
“तुम्हारा मतलब है तुम कोई ऐसा राज जानते हो जिसे तुम अपनी माँ को भी नहीं बता सकते जिसने तुम्हें जन्म दिया और तुम्हारा गू धोया?”
“पर मैं राजाज्ञा की अवहेलना कैसे करूँ!” उसने कहा और फिर बेतहाशा हँसने लगा।
“अय्यो! ठीक है, तुम मुझे नहीं बता सकते, पर पेड़ को तो बता सकते हो? पेड़ बोल नहीं सकते। वे तो किसी से कहने से रहे!”
नाई को बात जँची। कहते हैं कहने से दुख कम हो जाता है। सो माँ का आशीर्वाद लेकर वह पेड़ों को बताने के लिए जंगल की ओर भागा।
वहाँ उसने पेड़ों से कहा —
ओ पेड़, ओ पेड़, किसी से मत कहना
एक बात तुमसे कहता हूँ।
ओ पुंगा के पेड़, किसी से मत कहना
राज की बात तुम से कहता हूँ।
ओ पडीरी के पेड़, किसी से मत कहना
आज सुबह जो मैंने देखा।
ओ इलुप्पई के पेड़, किसी से मत कहना
यह राज किसी से मत कहना!
ओ जंगल के पेड़ों, ध्यान से सुनो
हमारे महाप्रतापी राजा के
गधे जैसे कान हैं।
ओ पेड़, ओ पेड़, किसी से मत कहना
कि मैं ऐसा कहता हूँ।
मैं हँसी के मारे मरना नहीं चाहता
इसलिए मैं यह कहता हूँ।
मैंने राजा को वचन दिया
मैंने माँ का कहा माना।
हँसी के मारे मैं मर रहा था
अब मैंने हँसी को मार दिया।
अब मुझे रात-दिन
हँसना नहीं पड़ेगा।
इस तरह वह बार-बार गाता रहा। जब उसे विश्वास हो गया कि वह उस रहस्य से मुक्त हो गया है जो बाहर आने के लिए फड़फड़ा रहा था तो वह घर लौट आया।
कुछ दिन बाद एक मशहूर मृदंगवादक को नए मृदंग की ज़रूरत पड़ी। अच्छी लकड़ी की तलाश में वह जंगल में गया। जिन पेड़ों को नाई ने अपना राज बताया था संयोग से उन्हीं में से एक पेड़ को उसने चुना और उसे कटवाकर अपने लिए मृदंग बनवाया। नया मृदंग लेकर अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए राजसभा में गया।
राजगायक ने किसी राग का पूर्वाद्ध सुंदर रीति से गाया और फिर मृदंगवादक को अकेले बजाने को कहा। उसने इतना अच्छा मृदंग बजाया कि जैसा कि कहते हैं मृदंग बोलने लगा। पर मृदंगवादक समेत सब लोग मृदंग की आवाज़ सुनकर दंग रह गए। मृदंग की ध्वनि इस तरह से थी—
त्लंग तक तका तका धिन्
तक त्लंग तका त्लंग तका तका
राजा के कान गधे के जैसे।
तक त्लंग तक तका तका त्लंग
राजा के कान गधे के जैसे।
मृदंग के बोल बिलकुल साफ़ थे। सबने सिंहासन पर बैठे राजा की ओर देखा। अब उन्हें पता चल गया कि सभाकक्ष की छोटी से छोटी आवाज़ राजा कैसे सुन लेता है।
- पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 257)
- संपादक : ए. के. रामानुजन
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
- संस्करण : 2001
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