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बगुलापुत्र

bagulaputr

एक औरत के एक बेटा था। वह बड़ा हो गया तो माँ ने उसकी शादी कर दी। पर पति-पत्नी में बनती नहीं थी। दोनों अलग सोते थे।

एक दिन बेटा बाहर से आया और पत्नी से भात परोसने को कहा। पत्नी भात लेकर आई, पर उसे भात अच्छा नहीं लगा। वह भात छोड़कर उठा और बाहर चबूतरे पर बैठ गया। फिर उसने पत्नी से पान-सुपारी लाने को कहा। पत्नी चिढ़ी हुई तो थी ही। वह पान-सुपारी का डिब्बा लाई और पति के पास ज़मीन पर पटक दिया। पति ने पान-सुपारी मुँह में डाले और चुभलाने लगा। उसे देखकर पत्नी की भी इच्छा हुई कि वह पति की बग़ल में बैठकर पान-सुपारी खाए। पति ने उसे पान-सुपारी पकड़ा दिए। वह उसे चूने के साथ खाना चाहती थी, लेकिन संकोचवश वह पति को चूने के लिए कह सकी। उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। दीवार के नीचे की तरफ़ उसे चूने जैसा कुछ चिपका हुआ दिखा। उसने उसे अंगुली पर लिया, उसे पान पर लगाया और सुपारी डालकर खा गई। जिसे उसने चूना समझकर खाया, जानते हैं वह क्या था? वह धानबगुले की बीट थी।

कुछ दिन बाद उसका जी मिचलाने लगा। उसके गर्भ रह गया था। सबको बड़ी ख़ुशी हुई। बहू के लिए बायके का प्रबंध किया गया। उसकी बायके यानी ललक को पूरा करने के लिए जो उसने चाहा उसे खिलाया गया और अंगिया, साड़ी और गहने दिए गए। बायके के इंतज़ाम में कोई कमी नहीं रखी गई। बायके के बाद उसे प्रसव के लिए मायके पहुँचा दिया गया। वहाँ उसने एक बगुले को जन्म दिया। उसे बहुत दुख हुआ, “हे भगवान, मेरी देवरानी ने लड़की को जन्म दिया, मेरी भाभी के लड़का पैदा हुआ, पर तूने मेरे पेट में बगुला क्यों रखा?”

मायके वालों ने दामाद को संदेशा भिजवाया, “आपकी पत्नी के प्रसव हुआ है।” बहू और बच्चे को देखने के लिए सास आई। चटाई पर बगुले को देखकर उसने पूछा, “तुम्हारा बच्चा कहाँ है?”

“आप भी माँ! वहाँ, चटाई पर, आप देख तो रही हैं!”

“अयो, यह बगुला! इतने दिन बाद जन्मा भी तो एक बगुला जो धान के खेतों में चोंच मारता फिरता है! अब हम इसका क्या करें? इसे मार भी तो नहीं सकते। यह नौ महीने गर्भवती रही, फिर प्रसव हुआ। भले ही इसने बगुला जना, पर जच्चा की देखभाल तो करनी ही होगी।” सो वह हाट गई और वे तमाम चीज़ें ले आईं जो जच्चा को ससुराल वाले देते हैं। जच्चा ने वह सब खाया। रिवाज़ के मुताबिक़ एक महीने और कुछ दिन पश्चात वह मंदिर गई। उसके दस या पंद्रह दिन बाद पालनापूजा हुई। पालनापूजा से निवृत होकर एक काँख में पालना और दूसरी में बगुला उठाए हुए वह ससुराल के लिए रवाना हुई।

दो एक हफ़्ते उपरांत उसके ससुराल में कोई ब्याह था। वह सोच में पड़ गई, “बगुले को देखकर लोग क्या कहेंगे? वह क्या करे?”

पति ने कहा, “तुम किस सोच में पड़ गई? हमारा भाग ही ऐसा है। भगवान ने बच्चे को बनाया और हमें दिया, है न? इसे साथ ले लो। अब चलो, नहीं तो देर हो जाएगी।”

सो वह बगुले को लेकर ब्याह में चली गई। वह दूसरी औरतों के साथ खाना बनाती रही और खीरा काटती रही। बगुला उसके पास बैठा रहा। जब उसने खीरे काटकर एक तरफ़ रखे तो बगुले ने चोंच से उसके बीज उठाए और दूसरे गाँव की ओर उड़ गया। वहाँ एक लंबा-चौड़ा ख़ाली मैदान था। उस मैदान में उसने खीरे के बीज बोए और वापस माँ के पास गया।

कुछ समय उपरांत बगुला फिर मैदान में गया और वहाँ माँ की ख़ातिर मकान बनाने के लिए भगवान से प्रार्थना की। भगवान ने बगुले को दर्शन दिए और कहा कि वह निश्चित ही उसकी माँ के लिए मकान बनाएगा। और लो, मकान बन गया कुछ दिन बाद खीरे की लताएँ झूमने लगीं। उनके बहुत बड़े-बड़े खीरे लगे।

एक दिन बगुले ने माँ से कहा, “मैंने तुम्हारे लिए मकान बनवाया है माँ! तुम और बापू मेरे साथ चलो।”

माँ ने पूछा, “कहाँ है? क्या बहुत दूर है? तू तो उड़कर आराम से चला जाएगा, पर हम कैसे पहुँचेंगे?”

“मैं ले चलूँगा। बापू मेरे दाएँ पंख पर बैठ जाएँगे और तुम बाएँ पर बैठ जाना। मैं तुम दोनों को वहाँ ले चलूँगा।” बगुले ने कहा और पिता को साथ चलने के लिए आवाज़ दी।

पिता ने भी वही शंका की, “लेकिन बेटे, हम चलेंगे कैसे?”

“बापू, तुम उसकी चिंता मत करो। मैं तुम दोनों को ले चलूँगा। डरो मत, मेरे पंख पर बैठ जाओ!”

माँ और बापू उसके एक-एक पंख पर बैठ गए। बगुला उत्तर की ओर उड़ चला। वह उड़ता रहा, उड़ता रहा। आख़िर वह मकान के पास उतरा। मकान के चारों ओर सब्ज़ियों की लताएँ लहरा रही थीं।

“यह रहा हमारा मकान, हम सबका”, बगुले ने कहा और एक-एक जगह दिखाने लगा। बाड़ी में पके हुए खीरे और दूसरी सब्ज़ियाँ दिखाते हुए उसने माँ से कहा, “ये सब्ज़ियाँ सिर्फ़ हमारे लिए हैं। अगर तुमने इनमें से कुछ भी किसी को दिया तो मैं अपने जीवन का अंत कर लूँगा। सच कहता हूँ वह घड़ी मेरी आख़िरी घड़ी होगी। इस बाड़ी की कोई भी चीज़ तुम दूसरे को मत देना।”

माँ ने कहा, “अच्छा बेटे, नहीं दूँगी।”

बगुला बेलों और पौधों की पांतों के बीच दुबककर बैठ गया, “देखूँ, माँ किसी को कुछ देती तो नहीं!”

थोड़ी देर बाद लाठी टेकती हुई एक बुढ़िया डगमगाती हुई वहाँ आई। सब्ज़ियों की बाड़ी देखकर उसका चेहरा खिल गया। उसने बगुले की माँ से पूछा, “यह किसकी बाड़ी है बेटी?”

बगुले की माँ ने कहा, “यह हमारी है दादी!”

“ज़रा एक खीरा तोड़कर दो बेटी!”

“क्यों नहीं दादी, ज़रूर!” और एक बहुत बड़ा पका हुआ खीरा तोड़ा।

“दादी, एक बात है, मेरा बेटा नहीं चाहता कि मैं बाड़ी की कोई चीज़ किसी को दूँ। छुपाकर ले जाना। किसी को भी इसके बारे में पता चले।”

“फिकर मत करो, किसी को पता नहीं चलेगा।” कहते हुए बुढ़िया ने खीरे को साड़ी में छुपाया और चली गई। पर बगुले ने माँ को खीरा तोड़ते और उसे बुढ़िया को देते हुए देख लिया।

बुढ़िया के जाते ही वह उड़ा और माँ के पैरों के पास उतरा।

“तुमने मेरा खीरा तोड़ा! मैंने कहा था कि किसी को मत देना, पर तुमने दिया। दिया कि नहीं? मेरा आख़िरी समय गया। मुझे अपने जीवन का अंत करना होगा।” यह कहकर बगुला लुढ़का, छटपटाया और दम तोड़ दिया। जैसे ही बगुले ने आख़िरी साँस छोड़ी उसकी जगह अट्ठारह साल का लड़का उठ खड़ा हुआ।

माँ चिल्लाई, “अयो! यह तो मर गया! लेकिन उसके बदले ऊपर वाले ने मुझे हाड़-माँस का असली बेटा दे दिया!” और उसने बेटे को गले लगा लिया।

वे अभी भी वहीं रहते हैं—अपने नए मकान में बाड़ी में वे ख़ूब सब्ज़ियाँ उगाते हैं, खाते हैं, बेचते हैं और सुख से रहते हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 142)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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