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गड़ा धन

gaDa dhan

पद्मादम नामक एक गाँव था। गाँव पान की लताओं एवं पत्तों से घिरा हुआ था। गाँव के बाहर दूर-दूर तक खजूर के वृक्ष थे। जिस समय गाँव के पुरुष मछलियाँ पकड़ने जाते थे उस समय स्त्रियाँ पान के पत्ते तोड़तीं और जलाने के लिए लकड़ियाँ काटतीं। गाँव के सभी लोग परस्पर हिलमिलकर रहते थे।

उसी गाँव में सेकप्पी नाम की एक स्त्री रहती थी। सेकप्पी का एक पुत्र था जिसका नाम था चिन्नादुरै। दुर्भाग्यवश चिन्नादुरै बुरी संगत में पड़ गया था और अपनी माँ द्वारा कमाए गए धन का दुरुपयोग किया करता था। उसे मदिरा पीने और जुआ खेलने की लत लग गई थी। वह श्रम करने और धन कमाने में विश्वास नहीं रखता था। चिन्नादुरै जब विवाह योग्य हो गया तो सेकप्पी को चिंता सताने लगी कि उसके नकारा बेटे को अपनी लड़की भला कौन देगा? फिर भी सेकप्पी ने अपने परिचितों से अपने बेटे के लिए योग्य कन्या ढूँढ़ने को कहा। किंतु प्रत्येक कन्या के माता-पिता यही कहते कि यदि चिन्नादुरै मछली पकड़ने लगे, जलाऊ लकड़ियाँ काटने लगे, खजूर की ताड़ी बनाना सीख ले और पान के पत्ते तोड़कर बेचने लगे तो हम प्रसन्नतापूर्वक अपनी कन्या का विवाह उसके साथ कर देंगे। सेकप्पी ने अपने पुत्र को समझाने का बहुत प्रयास किया किंतु वह सीधे रास्ते पर चलना ही नहीं चाहता था।

पुत्र की चिंता में सेकप्पी बीमार रहने लगी। अब वह अधिक काम नहीं कर पाती थी जिससे उसकी आर्थिक स्थिति सम्पन्नता से विपन्नता में बदलने लगी। इसका असर चिन्नादुरै की विलासिता पर पड़ा। वह धन के अभाव में अपने मित्रों के साथ तो नाच-रंग में डूब पाता था और जुआ खेल पाता था। कठिनाई यह थी कि वह अपनी बीमार माँ से यह भी नहीं कह सकता था कि वह पहले जैसे धन कमाकर लाए।

‘माँ, क्या मेरे पिता जी ने मरते समय मेरे लिए कुछ नहीं छोड़ा?’ एक दिन चिन्नादुरै ने अपनी माँ से पूछा।

‘क्या करोगे यह जानकर?’ सेकप्पी ने अपने पुत्र से प्रश्न किया।

‘मैं इसलिए जानना चाहता हूँ कि अब मैं धन के अभाव से तंग गया हूँ’ चिन्नादुरै ने खीझे हुए स्वर में कहा।

‘ओह! तो तुम अपने उपभोग के लिए पिता द्वारा छोड़ा गया धन पाना चाहते हो? ’सेकप्पी ने कहा। उसी समय उसके मन में एक विचार कौंधा और उसने चिन्नादुरै से कहा, ‘बेटे, मैं भी धन के अभाव से व्याकुल हो उठी हूँ। फिर मुझसे तुम्हारा दुख भी नहीं देखा जाता है। तुम जैसे भी हो लेकिन हो तो मेरे अपने पुत्र अतः मैं भी तुम्हें तुम्हारे पिता द्वारा छोड़ा गया धन देना चाहती हूँ लेकिन...।’ कहते-कहते सेकप्पी मौन हो गई।

‘लेकिन क्या, माँ? पूरी बात बताओ न? पिता द्वारा छोड़ा गया धन कहाँ हैं?’ चिन्नादुरै ने उतावलेपन से पूछा।

‘धन तो इसी झोपड़ी के आँगन में है लेकिन...’

‘लेकिन क्या? हम जल्दी से धन खोद कर निकाल लेते हैं।’ चिन्नादुर ने कहा।

‘नहीं, वह धन तब तक तुमको नहीं मिल सकता है जब तक कि तुम जादू के उस बंधन को नहीं काट देते हो जो धन की सुरक्षा के लिए तुम्हारे पिता जी बाँध गए हैं।’ सेकप्पी ने कहा।

‘कैसा बंधन? मुझे जल्दी बताओ कि मुझे बंधन काटने के लिए क्या करना होगा?’ चिन्नादुरै बोला।

‘काम कठिन है। कर सकोगे?’

‘हाँ-हाँ, कर लूँगा।’

‘तो फिर सुनो! तुम्हें खजूर-वन से सबसे ऊँचे खजूर के पेड़ से सबसे अच्छा खजूर लाना होगा। फिर एक बड़ी मछली लानी होगी। उन दोनों को भूनने के लिए स्वयं लकड़ियाँ काटकर आग जलानी होगी। मछली और खजूर को आग में भूनने के बाद उन्हें पान के सात पत्तों पर रखकर इस झोपड़ी के सात चक्कर लगाने होंगे। इसके बाद तुम जिस स्थान पर मछली, खजूर और पान को रखोगे और अपने पैरों से उन्हें कुचलोगे वहीं भूमि में धन गड़ा होगा जिसे खोदकर तुम निकाल लेना। लेकिन नहीं, तुम यह सब नहीं कर सकोगे।’ सेकप्पी ने बनावटी दुख प्रकट करते हुए कहा।

‘नहीं मैं कर लूँगा!’ चिन्नादुरै ने विश्वासपूर्वक कहा।

‘नहीं तुम नहीं कर सकोगे क्योंकि इस दौरान तुम्हें तो मदिरा पीनी होगी और कोई बुरा काम करना होगा।’ सेकप्पी ने कहा।

‘फिर भी मैं कर लूँगा।’ चिन्नादुरै और अधिक विश्वास से बोला।

इसके बाद चिन्नादुरै खजूर के जंगल की ओर चल पड़ा। वह अपने अभी तक के जीवन में कभी किसी खजूर के पेड़ पर चढ़ा नहीं था अतः उसे खजूर के पेड़ पर चढ़ने में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ा। अनेक बार गिरने के बाद अंततः वह खजूर के सबसे ऊँचे पेड़ पर चढ़ने में सफल हो गया। उसे सबसे अच्छे खजूर को चुनने में भी बहुत कठिनाई हुई। इस एक काम में ही सुबह से शाम हो गई।

खजूर तोड़ने के बाद दूसरे दिन वह मछली पकड़ने पहुँचा। सुबह से शाम हो गई किंतु एक भी बड़ी मछली उसके हाथ लगी। कई बार उसके धैर्य ने साथ छोड़ना चाहा किंतु वह डटा रहा। अंततः सूर्यास्त होते-होते एक बड़ी मछली उसके जाल में फँस गई। उसने मछली को जाल से निकाला और अपने घर की ओर चल पड़ा।

तीसरे दिन चिन्नादुरै जलाने के लिए लकड़ियाँ काटने पहुँचा। वह तय नहीं कर पा रहा था कि किस पेड़ की लकड़ी काटे। फिर बहुत जाँच-पड़ताल करने पर उसे एक पेड़ की लकड़ी जलाने योग्य लगी। उसने कुल्हाड़ी उठाई लकड़ी काटने लगा। लकड़ी बहुत कठोर थी और चिन्नादुरै को लकड़ी काटने का अभ्यास नहीं था। वह दो बार कुल्हाड़ी चलाता और हाँफने लगता। इस प्रकार धीरे-धीरे शाम तक उसने इतनी लकड़ियाँ काट लीं जिन्हें जलाकर मछली और खजूर भूनने भर का आग उत्पन्न कर सके।

चौथे दिन चिन्नादुरै पान के पत्ते तोड़ने पहुँचा। वह पान की बेलों के बीच पहुँचा तो बेलों में उलझ कर रह गया। कई घंटों के प्रयास के बाद वह पान का पत्ता तोड़ने में सफल हो सका। इस प्रयास में वह इतना थक गया था कि उसने मछली और खजूर को अगले दिन भूनने का निश्चय किया।

पाँचवे दिन चिन्नादुरै ने लकड़ियों से आग जलाई। उस पर मछली और खजूर को भूना। भुने हुए खजूर और मछली को पान के पत्ते पर रखा और अपनी झोपड़ी के चक्कर लगाने लगा। पाँच चक्कर लगा लेने के बाद मछली और खजूर को भूमि में रखकर अपने पैरों से मसलना था। चिन्नदुरै ने मछली और खजूर को पान के पत्ते सहित भूमि पर रख दिया। फिर उसने अपना बायाँ पैर उठाया उन्हें कुचलने के लिए।

किंतु अथक श्रम से प्राप्त किया गया खजूर और मछली को अपने पैर से कुचलने का साहस नहीं हुआ। फिर उसने दायां पैर उठाया। फिर भी वह उन वस्तुओं को कुचलने का मन नहीं बना पाया। अपने श्रम से प्राप्त की गई वस्तुओं को नष्ट करने का उसका मन ही नहीं कर रहा था।

‘यदि तुम इन्हें अपने पैरों से कुचलोगे नहीं तो तुम्हें अपने पिता द्वारा छोड़ा गया धन नहीं मिल सकेगा।’ सेकप्पी ने अपने पुत्र को याद दिलाया।

‘किंतु मैं अपने श्रम द्वारा पाया गया सामान अपने ही पैरों से कैसे कुचल दूँ? चिन्नादुरै हिचका।

‘ठीक वैसे ही जैसे तुम मेरे द्वारा श्रम करके कमाए गए धन को जुए और मदिरा में उड़ा देते हो।’ सेकप्पी ने कहा।

यह सुनकर चिन्नादुरै बहुत लज्जित हुआ और उसे अपनी अयोग्यता तथा बुरे कर्मों का अहसास हो गया। उसने अपनी माँ के चरणों पर गिरकर उससे क्षमा माँगी तथा अपनी माँ को वचन दिया कि वह अब बुरी संगत छोड़कर स्वयं श्रम करेगा और धन कमाएगा। यह सुनकर सेकप्पी ने चिन्नादुरै को अपने सीने से लगा लिया और उसे सच्चाई बता दी कि यह सब उसने चिन्नादुरै की आँखें खोलने के लिए कहा था वरना उसके पिता उसके लिए कुछ भी छोड़कर नहीं गए हैं।

‘अब मुझे गड़ा हुआ धन नहीं चाहिए। अब मैं स्वयं धन कमा सकता हूँ।’ चिन्नादुरै ने मुस्कुराकर कहा।

चिन्नादुरै के सुधरने के बाद एक अत्यंत योग्य कन्या से उसका विवाह हो गया और वह अपनी माँ तथा पत्नी के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं (पृष्ठ 234)
  • संपादक : शरद सिंह
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2009

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