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झूठ का मुक़ाबला

jhooth ka muqabala

किसी गाँव में एक बनिया किराने की दुकान करता था। एक दिन शहर जाते हुए रास्ते में उसे एक जाट मिला। महाजन को कर्ज़ की क़िस्त चुकाने के लिए जाट भी उसी शहर को जा रहा था। यह कर्ज़ उसके परदादा ने अपने परदादा के मृत्युभोज के लिए लिया था। सौ रूपए का कर्ज़ सूद जुड़ते-जुड़ते पचास बरस में बढ़कर एक हज़ार रूपए हो गया था। बेचारा जाट इस चिंता में डूबा चला जा रहा था कि पुरखों की ज़मीन को साहूकार के पंजे से कैसे छुड़ाए कि सहसा उसने बनिए को कहते सुना, “ए चौधरी, कहाँ जा रहे हो? महाजन को क़िस्त चुकाने? अपने खेत छुड़ाने के लिए कुछ करते क्यों नहीं?”

जाट ने कहा, “कुछ समझ नहीं पड़ता शाहजी! मेरे परदादा ने सौ रूपए लिए थे जो बढ़कर हज़ार रूपए हो गए हैं। मेरे पास ज़्यादा ज़मीन भी तो नहीं! आप ही बताइए, कर्ज़ चुके तो कैसे?”

“इसकी ज़्यादा चिंता मत करो! जो भाग्य में लिखा है होकर रहेगा। इसे भूल जाओ और मन बहलाने के लिए कहानी सुनते-सुनाते चलते हैं। इससे रास्ता आराम से कटेगा। क्या कहते हो?”

“ठीक है। होनी पर रोने-धोने से क्या फ़ायदा! चलो, कहानियों से जी बहलाते हैं। पर एक शर्त है—कहानी चाहे सरासर झूठी और बेतुकी ही क्यों हो, हममें से कोई उसे झूठी नहीं कहेगा। हममें से जो दूसरे की कहानी को झूठी कहेगा उसे एक हज़ार रूपए देने पड़ेंगे।”

बनिए ने कहा, “मंज़ूर! पर पहले मैं सुनाऊँगा।” फिर उसने यों कहानी शुरू की—

“तुम तो जानते हो मेरे परदादा बनियों में सर्वश्रेष्ठ थे। वे बहुत धनवान थे।”

“सही शाहजी, बिलकुल सही!” जाट ने कहा।

“एक बार मेरे महान परदादा चालीस जहाज़ लेकर चीन गए। वहाँ उन्होंने अनमोल हीरे-मोतियों का कारोबार किया।”

“सही शाहजी, बिलकुल सही!”

“वहाँ वे कई बरस रुके और ढेरों धन कमाया। जब वे वहाँ से वापस आए तो अपने साथ कई अजब-गजब चीजें लाए। उनमें एक बोलने वाली सोने की पुतली भी थी। वह ऐसी कुशलता से बनाई हुई थी कि हर सवाल का जवाब देती थी।”

“सही शाहजी, बिल्कुल सही!”

“बहुत से लोग उन अनोखी पुतली से अपना भाग्य जानने आए और उसके जवाबों से पूरी तरह संतुष्ट होकर गए। एक दिन तुम्हारे परदादा भी बोलने वाली पुतली से कुछ पूछने के लिए मेरे परदादा के पास आए। तुम्हारे परदादा ने पूछा, ‘सबसे बुद्धिमान जाति कौन-सी है?’ पुतली ने जवाब दिया, ‘बनिया’। फिर उन्होंने पूछा, ‘धरती पर सबसे मूर्ख जाति कौन-सी है?’ पुतली ने कहा, ‘जाट’। तुम्हारे परदादा ने आख़िरी सवाल पूछा, ‘हमारे ख़ानदान में सबसे बड़ा मूर्ख कौन होगा?” पुतली ने तुरंत जवाब दिया, ‘चौधरी लाहरी सिंह’। (बनिए की बात सुन रहे जाट का यही नाम था।)

“सही शाहजी, बिलकुल सही!” जाट ने कहा।

हालाँकि बनिए का व्यंग्य उसके दिल में चुभ गया। उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह बनिए के बटखरों से ही इसका ऐसा हिसाब चुकाएगा कि वह उम्र भर याद रखेगा। बनिए ने कहना जारी रखा, “पुतली की ख्याति फैलते-फैलते राजा तक पहुँची। उन्होंने मेरे परदादा को बुलवाया और पुतली ले ली। बदले में महाराज ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री बना दिया।”

“सही शाहजी, सही!”

“बरसों तक उन्होंने महाराज की सेवा की। जब वे वृद्ध हो गए तो उनके स्थान पर मेरे दादा प्रधानमंत्री बने। वे बहुत ठाट-बाट से रहते थे और राजकाज की तरफ़ कुछ कम ध्यान देते थे। इससे महाराज नाराज़ हो गए और उन्हें पागल हाथी के आगे फेंकवा दिया। पर मेरे दादा को देखते ही हाथी शांत हो गया, उन्हें झुककर प्रणाम किया और उन्हें सूंड से उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया।”

“सही शाहजी, सही!” जाट ने कहा।

“यह देखकर महाराज बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मेरे दादा को पद पर बने रहने को कहा और उन्हें पुरस्कारों से लाद दिया। मेरे दादा के देहांत के बाद मेरे पिता प्रधानमंत्री बने। पर उन्हें यह काम पसंद नहीं था। सो इस्तीफ़ा देकर वे दिसावर चले गए। इस यात्रा में उन्होंने कई अजूबे देखे। जैसे पेड़ से उलटा लटकने वाला एक पैर का आदमी, एक आँख का दैत्य, हरे बंदर वग़ैरा- वग़ैरा। एक दिन मेरे पिता ने एक मच्छर को अपने कान के पास भनभनाते देखा जो उन्हें काटने की ताक में था। उनकी समझ में नहीं आया कि वे क्या करें। तुम तो जानते हो कि हम बनिए किसी जीव को नहीं मारते।”

“सही शाहजी, सही!” जाट ने कहा।

“सो पिताजी ने मच्छर के पाँव पकड़कर दया की भीख माँगी। मच्छर बहुत ख़ुश हुआ। बोला, ‘मैंने बहुत दुनिया देखी, पर आप जैसा महान आदमी नहीं देखा। मैं आपके लिए कुछ करना चाहता हूँ।’ यह कहकर उसने अपना मुँह खोला। उसके मुँह में पिताजी ने दहकते हुए सोने का एक विशाल महल देखा। महल के झरोखे में उन्हें एक अपूर्व सुंदरी बैठी दिखी। इतनी सुंदर स्त्री उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। उसके एकदम पीछे उन्होंने एक किसान को देखा जो उस पर हमला करने ही वाला था। मेरे पिता वीरता के लिए विख्यात थे। वे तुरंत मच्छर के मुँह में कूद पड़े और उसके पेट में घुस गए। वहाँ इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था।”

“सही शाहजी, बिलकुल सही!”

“थोड़ी देर बाद आँखें अँधेरे की कुछ अभ्यस्त हुईं तो पिताजी ने महल, राजकुमारी और नीच किसान को फिर देखा। पिताजी किसान पर टूट पड़े, जो कोई और नहीं, तुम्हारा बाप था। मच्छर के पेट में वे पूरे एक बरस लड़ते रहे। आख़िर में तुम्हारे बाप ने पिताजी के पैर पकड़कर दया की भीख माँगी। पिताजी बहुत दयालु थे। उन्होंने उसे छोड़ दिया। पिताजी ने राजकुमारी से शादी की और महल में रहने लगे। वहीं मेरा जन्म हुआ। तुम्हारे बाप को पिताजी ने अपनी सेवा में रख लिया। वह रात-दिन फाटक पर चौकीदारी करता था। जब मैं पंद्रह साल का हुआ तो महल पर उबलते हुए पानी की बरसात हुई। महल पिघलकर बह गया और हम जलते हुए समुद्र में जा गिरे। आख़िर जैसे-तैसे हम चारों तट पर पहुँचे—पिताजी, राजकुमारी, मैं और तुम्हारा बाप। हम कूदकर तट पर आए तो अचानक हमने अपने को एक रसोई में पाया। खाना बनाने वाली हमें देखकर डर गई। हमने उसे आश्वस्त किया कि हम आदमी हैं, भूत-पलीत नहीं। वह औरत बोली, ‘तुम भी ख़ूब हो! मेरा सालन ख़राब कर दिया। आख़िर तुम्हें मेरी देगची में घुसने और मुझे डराने की क्या सूझी?” हमने उससे माफ़ी माँगी और कहा, ‘हम इस देगची में कैसे पहुँचे यह हम भी नहीं जानते। हम पिछले पंद्रह बरस से एक मच्छर के पेट में बने महल में थे।’ औरत ने कहा, ‘ओह, अब मैं समझी! ठीक पंद्रह मिनट पहले एक मच्छर ने मेरी बाँह पर काटा था। यह देखो, यहाँ अभी तक लाल है। लगता है मच्छर के काटने से तुम लोग मेरी बाँह के अंदर पहुँच गए। मुझे बहुत जलन हुई। ज़हर को निकालने के लिए मैंने दबाया तो सरसों के दाने जितनी बड़ी काले ख़ून की बूँद निकली और देगची के उबलते पानी में गिर गई। मुझे क्या पता था कि तुम लोग उसके अंदर थे।’ तब मुझे मालूम हुआ कि मैं सिर्फ़ पंद्रह मिनट पहले पैदा हुआ था। हालाँकि मैं पंद्रह बरस के लड़के जैसा लगता था। हम यह जानकर हैरान रह गए कि मच्छर के पेट में हम सिर्फ़ पंद्रह मिनट रहे थे। इतने कम समय में ही मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ और तुम्हारे और मेरे पिता की उम्र पंद्रह बरस बढ़ गई। मैं लगता ज़्यादा का हूँ, पर वास्तव में मैं अभी दस बरस का बच्चा ही हूँ। वह तो मच्छर के दहकते हुए पेट में पंद्रह मिनट रहने से मेरी बढ़ोतरी तेज़ी से हुई।”

“सही शाहजी, बिलकुल सही!”

“जब हम रसोई से बाहर आए तो हमने देखा कि हम दूसरे मुल्क में गए हैं। हम जिस गाँव में पहुँचे, वह यही गाँव है। पिताजी, जो पहले प्रधानमंत्री थे, ने किराने की दुकान लगा ली। उनके बाद वह दुकान मैं देखता हूँ। वह राजकुमारी, मेरी माँ, अभी पिछले दिनों स्वर्ग सिधार गई, यह तो तुम्हें मालूम ही है। यही मेरी कहानी है।”

“सही शाहजी, बिलकुल सही!” जाट ने कहा। “आपकी कहानी बिलकुल सच्ची है। कहानी तो मेरी भी सच्ची है, पर वह आपकी कहानी की तरह मज़ेदार नहीं है। सुनो

“मेरे परदादा गाँव के सबसे अमीर जाट थे। वे रूपवान, रौबीले, होशियार और नामवर थे। सब उनकी इज़्ज़त करते थे। वे गाँव के मुखिया थे। ग़रीब और असहाय की मदद करना वे अपना धर्म समझते थे। पंचायत में वे हमेशा उनकी तरफ़दारी करते थे। जिनके पास बैल नहीं थे, उनके खेतों में वे अपने बैलों से जुताई करवाते थे और अपने हाली भेजकर लोगों को कटाई में मदद करते थे। ज़रूरतमंदों के लिए उनके धान के भंडार हमेशा खुले रहते थे। वे आस-पास के तमाम गाँवों के झगड़े निपटाते थे। राजा और हाकिम के फ़ैसले से भी लोग उनके फ़ैसले का ज़्यादा मान रखते थे। वे भीम से ज़्यादा ताक़तवर थे। बदमाश और लुच्चे-लफंगे उनसे थरथर काँपते थे।”

“सही चौधरी, सही!” बनिए ने कहा।

“एक बार हमारे गाँव में भयंकर अकाल पड़ा। एक बूँद भी पानी नहीं बरसा। नदियाँ और कुएँ सूख गए। पेड़ हरियाली के नाम पर घास का तिनका तक नहीं बचा। मवेशी, चिड़ियाँ और जानवर मरने लगे। मेरे परदादा ने देखा कि उनके धान के भंडार छीजते जा रहे हैं, अगर जल्दी ही कुछ नहीं किया तो लोग भूखों मर जाएँगे। सो उन्होंने जाटों की पंचायत बुलाई और कहा, ‘भाइयो, निश्चित ही इंद्र भगवान हमसे नाराज़ हैं। अगर हमने जल्दी ही कोई उपाय नहीं किया तो हममें से कोई नहीं बचेगा। तुम अपने खेत छह महीनों के लिए मुझे दे दो। मैं ऐसा इंतज़ाम करूँगा कि हर खेत में फसल लहलहाएगी।”

“जाट मान गए। तब मेरे परदादा ने अपनी कमर कसी और हज़ारों बीघा के गाँव को एक ही झटके में उठाकर अपने सर पर रख लिया।”

“सही चौधरी, सही!” कहते हुए बनिया मन ही मन इस बेतुकी बात पर हँसा।

“फिर मेरे परदादा पूरे गाँव को सर पर उठाए हुए बरसात की खोज में चल पड़े। जहाँ भी बरसात होती, वे वहाँ पहुँच जाते और बरसात के पानी को खेतों, कुओं और तालाबों में इकट्ठा कर लेते। जाटों से कहकर उन्होंने सारे खेतों को जुतवाया और बुवाई करवा दी। इस तरह बरसात का पानी इकट्ठा करते वे छह महीने तक मुल्क-मुल्क भटकते रहे जबकि बाक़ी जाट जुताई-बुवाई करते रहे। फसलें इतनी अच्छी हुईं कि आज तक किसी ने देखी-सुनी नहीं होगी। मक्का और गेहूँ के बूटे आकाश को छूने लगे।”

“सही चौधरी, सही!” बनिए ने कहा।

“पूरे गाँव और गाँव वालों को सर पर उठाए हुए संसार भर का चक्कर लगाने के बाद मेरे परदादा वापस अपने मुल्क लौटे और गाँव को फिर वहीं रख दिया जहाँ वह पहले था। उस साल फसलें इतनी अच्छी हुईं कि कुछ मत पूछो! मक्का और गेहूँ का एक-एक दाना आपके सर जितना बड़ा था।”

“सही चौधरी, बिलकुल सही!”

“खलिहानों में अनाज निकाल लिया गया, पर इतना अनाज रखें कहाँ? दूर दिसावर से लोग हमारा अनाज ख़रीदने के लिए आए। मेरे परदादा ने बहुत मुनाफ़ा कमाया। उन्होंने हज़ारों रूपए ग़रीबों में बाँटे और हज़ारों भूखों को अनाज दिया।”

यहाँ तक आते-आते जाट और बनिया शहर में पहुँच गए। जाट ने कहना जारी रखा—

“उन दिनों आपके परदादा की हालत बहुत पतली थी। मेरे परदादा ने दया करके उन्हें अनाज तौलने-मापने के लिए नौकर रख लिया।”

“सही चौधरी, सही!”

“आपके परदादा रात-दिन अनाज तौलने-मापने में लगे रहते थे। उनमें अक़्ल नाम को भी नहीं थी। वे अक्सर ग़लती कर बैठते थे। इसलिए उन्हें अक्सर मेरे परदादा के हाथों मार खानी पड़ती थी। बेचारे!”

“सही चौधरी, सही!”

इस समय तक वे उस महाजन की पेढ़ी पर पहुँच गए जिससे जाट ने कर्ज़ ले रखा था। महाजन ने ‘राम-राम’ करके ग्राहकों का अभिवादन किया और बैठने को कहा। पर उस पर कोई ध्यान नहीं देते हुए जाट ने कहना जारी रखा—

“तो शाहजी, मेरे परदादा ने अपनी सारी फसल बेच दी तो तौलने-मापने को कुछ नहीं रहा। सो आपके परदादा को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। जाने से पहले उन्होंने मेरे परदादा से सौ रूपए उधार माँगे। उदारतावश मेरे परदादा ने आपके परदादा को कर्ज़ दे दिया।”

“सही चौधरी, सही!” बनिए ने कहा।

“ठीक?” जाट ने आवाज़ को तेज करते हुए कहा, ताकि महाजन भी सुन ले। “वे रूपए आपके परदादा ने लौटाए नहीं।”

“सही चौधरी, सही!”

“न तो आपके दादा ने वह कर्ज़ चुकाया और आपके पिता ने और आज तक आपने ही हिसाब चुकता किया।”

“सही चौधरी, सही!”

“वे सौ रूपए ब्याज और चक्रवृद्धि ब्याज मिलाकर अब पूरे हज़ार रूपए हो गए हैं जो आपको मुझे देने हैं।”

“सही चौधरी, सही!” बनिए को मजबूरन कहना पड़ा।

“सेठजी और दूसरे गवाहों के सामने आपने कर्ज़ क़बूल किया है। वे हज़ार रूपए क्या आप सेठजी को देने का कष्ट करेंगे, ताकि मेरे गिरवी रखे खेत मुझे वापस मिल जाएँ?”

बनिए पर जैसे बिजली गिरी! इधर गिरे तो कुआँ और उधर गिरे तो खाई। अगर वह यह कहता है कि वह मनगढ़ंत और झूठी कहानी थी तो शर्त के मुताबिक उसे हज़ार रूपए देने होंगे और अगर वह उसे सही मानता है तब भी उसे हज़ार रूपए देने होंगे। सो चाहते हुए भी उसे हज़ार रुपयों का ज़ुर्माना भरना पड़ा। इसका उसे इतना दुख हुआ कि ज़िंदगी भर पछतावे की फाँस उसके कलेजे में कड़कती रही।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 329)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2001
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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