एक राजा के तीन बेटे थे। तीनों युद्धविद्या में पारंगत थे। एक दिन उन्हें उत्तर दिशा से तंत्रक्रीड़ा और कंदुकक्रीड़ा की प्रतियोगिता का निमंत्रण मिला। छोटा राजकुमार प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए रवाना हुआ। बड़े भाइयों ने उसे रोका, “तंत्रक्रीड़ा खेलकर क्यों अपनी बाँहें तुड़वाना चाहते हो! कंदुकक्रीड़ा भी विकट खेल है। इसमें पैर टूटने का भय रहता है। दोनों ख़तरनाक खेल हैं। मत जाओ!” पर छोटे राजकुमार ने उनकी बात नहीं मानी। वह उत्तर की ओर चल पड़ा। उसने प्रतियोगिता में भाग लिया, हर खेल में जीता और ढेरों पुरस्कार लेकर लौटा।
छह महीने बाद उन्हें फिर किसी प्रतियोगिता का निमंत्रण मिला। यह प्रतियोगिता समुद्र पर एक कोस चलने की थी। छोटा राजकुमार जाने की तैयारी करने लगा। बड़े भाइयों ने उसे फिर रोका, “समुद्र पर चलने की कोशिश मत करो। डूब जाओगे।” पर उसने उनके कहे पर कान नहीं दिया। वह गया और प्रतियोगिता में भाग लिया। एक कोस की निर्धारित सीमा से भी वह छह क़दम अधिक चला। उसने प्रतियोगिता जीती और अनेक हीरफलक लेकर लौटा।
उसके छह महीने बाद फिर ऐसी घोषणा हुई कि सब चलायमान हो गए। रामराज्य की राजधानी में कामसेंदगे नाम की एक राजकुमारी थी। उससे विवाह करने के इच्छुक अनेक राजकुमारों ने उसका दिल जीतने की कोशिश की, पर कोई सफल नहीं हुआ। सारे असफल प्रत्याशी अब राजकुमारी के बग़ीचे के लिए कुएँ से पानी खींचते हैं। यह सुनते ही छोटा राजकुमार इस दुर्जेय राजकुमारी को जीतने के लिए उद्धृत हो गया। बड़े राजकुमार ने उसे टोका, “मैं तुमसे बड़ा हूँ। मेरा विवाह तुमसे पहले होना चाहिए। मैं वहाँ जाऊँगा।” छोटे राजकुमार ने वापस कुछ नहीं कहा।
बड़ा राजकुमार रामराज्य गया। कामसेंदगे के महल के सामने उसने परंपरानुसार सोने के पात्र में सोना डाला, मोतियों के पात्र में मोती डाले और सिक्के के पात्र में सिक्के डाले। दरवाज़े पर हाथ-मुँह धोकर वह भीतर गया। महल के सेवकों ने पान-सुपारी से उसका स्वागत किया और कहा, “पान खाकर आप रसोई के पास वाले कक्ष में जाएँ और वहाँ लकड़ी की चौकी पर बैठ जाएँ।” उसने वैसा ही किया। उसके कक्ष के प्रवेश करते ही दरवाज़ा बंद हो गया। चौकी पर बैठते ही उसकी पलकें भारी होने लगीं। वह ऊँघने लगा। तभी चारों कोनों से लकड़ी की चार पुतलियाँ आईं और उसके गालों पर तड़ातड़ तमाचे लगाने लगीं। इसके लिए राकुमार बिलकुल तैयार नहीं था। उसने दरवाज़ा तोड़ा और सरपट भागा। पर कामसेंदगे के सेवकों ने उसे जाने नहीं दिया। उसका सर मूँडकर उन्होंने उसे कामसेंदगे के बग़ीचे के लिए पानी खींचने में जोत दिया।
छह महीने बीत जाने पर भी बड़ा राजकुमार नहीं लौटा तो मझले राजकुमार ने कहा, “इतने दिन हुए भैया का कोई समाचार नहीं। मैं जाकर देखता हूँ कि बात क्या है!” और वह कामसेंदगे की राजधानी के लिए चल पड़ा।
मझले राजकुमार का भी वही हश्र हुआ जो बड़े का हुआ था। और छह महीने बीत गए, पर दोनों में से कोई भी वापस नहीं लौटा तो छोटे राजकुमार ने कहा, “मुझे जाने की अनुमति दीजिए! देखूँ, क्या बात है।” और वह घोड़े पर बैठकर चल पड़ा।
वह एक मैदान से होकर जा रहा था कि उसे मार्ग से थोड़ा हटकर एक गड्ढे से किसी के कराहने और अजीब स्वर में चिल्लाने की आवाज़ सुनाई पड़ी, “बचाओ, बचाओ!” ग्वालों के छोकरों ने घेर-घारकर एक राक्षस को गड्ढे में ढकेल दिया था। गड्ढा इतना गहरा था कि वह बाहर नहीं आ सकता था। छोटे राजकुमार ने गड्ढे में झाँका और बोला, “अगर मैंने तुम्हें बाहर निकाला तो तुम मुझे खा जाओगे। इसलिए मैं तुम्हारी मदद नहीं करूँगा।” राक्षस भय से पीला पड़ गया। रोते हुए कहा, “नहीं, नहीं, मुझे छोड़कर मत जाओ! मुझे बचा लो! मैं तुम्हारे बहुत काम आऊँगा। रास्ते में सोलह राक्षस शिकार की ताक में बैठे हैं। वे तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे। तुम्हें मेरी ज़रूरत पड़ेगी।” राजकुमार ने अपनी पगड़ी को गड्ढे में लटकाया। पगड़ी को पकड़कर राक्षस बाहर आ गया।
बाहर आते ही राक्षस चिल्लाया, “मुझे पानी पिलाओ! मुझे प्यास लगी है।” राजकुमार ने कहा, “इस सूखे मैदान में अब पानी कहाँ से लाऊँ?” राक्षस ने सुझाया, “अपने घोड़े को मेरे पाँव के एक बाल से बाँध दो और तुम मेरे कंधे पर बैठ जाओ। मैं तुम्हें उठाकर ले चलूँगा। तुम्हें कहीं पानी दिखे तो मुझे बता देना।” राजकुमार ने वैसा ही किया। राक्षस अविश्वसनीय गति से दौड़ा। थोड़ी देर बाद फिर पूछा, “अब?” इस बार राजकुमार ने कहा, “हाँ, कुछ दूर पर एक तालाब नज़र आ रहा है।” पास पहुँचकर उन्होंने देखा कि वह तालाब नहीं, समुद्र है। राक्षस ने राजकुमार को नीचे उतारा और बोला, “मेरे लिए एक गाड़ी चिउड़ा और एक गाड़ी खांड लेकर आओ।” राजकुमार घोड़े पर बैठकर गया और पास की हाट से एक गाड़ी चिउड़ा और एक गाड़ी खांड ले आया। समुद्र की बालू पर बैठकर राक्षस ने दोनों को मिलाया और खा गया। फिर उसने समुद्र का आधा पानी पीया और जोर से डकार ली।
तृप्त होकर राक्षस ने कहा, “मैं अपने असली रूप में तुम्हारे साथ चला तो सब डर जाएँगे। कोई तुम्हारे पास भी नहीं फटकेगा। इसलिए मैं मक्खी बनकर तुम्हारे कंधे पर बैठ जाता हूँ। तुम अपने घोड़े पर आगे बढ़ते रहो।” राक्षस मक्खी का रूप धरकर उसके कंधे पर बैठ गया। राजकुमार ने घोड़े को एड़ लगाई। रास्ते में उसने केलों का गुच्छा ख़रीदा। आगे एक मकान के सामने बहुत से बच्चे खेल रहे थे। राजकुमार ने सबको एक-एक केला दिया और पूछा, “यह घर किसका है?” बच्चों ने कहा, “यह राजबढ़ई का घर है।” राजकुमार ने कहा, “उसे बुलाओ! मुझे उससे काम है।” बच्चों ने कहा, “वे तो अंधे हैं, कैसे आएँगे!” राजकुमार ने कहा, “तो उसकी पत्नी को बुलाओ।” बच्चे भागे-भागे भीतर गए और बढ़इन से कहा कि कोई उनसे मिलने आया है। वह अपने अंधे पति के साथ बाहर आई। इसी बढ़ई ने कामसेंदगे के कमरे में तैनात चार पुतलियाँ बनाई थीं। राजकुमारी नहीं चाहती थी कि वह ऐसी पुतलियाँ और किसी के लिए बनाए। सो उसने उसकी आँखें निकलवा दीं। हाँ, इसके निर्वाह के लिए वह उसे हर महीने अच्छी-ख़ासी रक़म देती थी। राजकुमार ने बढ़ई से पूछा, “कामसेंदगे के महल में कैसे जाया जा सकता है?” बढ़ई ने कहा, “मैं नहीं बताऊँगा।” उसका मुँह खोलने के लिए राजकुमार ने उसे एक हज़ार रूपए दिए। बढ़ई ने कहा, “बस! हज़ार रूपए के तो मैं महीने में पान खा जाता हूँ।” राजकुमार ने उसे दो हज़ार रूपए दिए तो बढ़ई ने कहा, “इनसे भी क्या होगा! इतना तो मेरे एक महीने के नाश्ते का ख़र्च है।” राजकुमार ने उसे पाँच हज़ार रूपए दिए, पर बढ़ई ने अपनी बान नहीं छोड़ी, “इनसे तो मेरे एक बार हाट जाने का ख़र्च भी पूरा नहीं पड़ेगा।”
यह सुनकर राक्षस अपने असली रूप में आया और लपककर बढ़ई की गर्दन पकड़ ली। बढ़ई दर्द से बिलबिलाया, “मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो! जो तुम पूछोगे सब बताऊँगा।” राक्षस ने अपनी पकड़ कुछ ढीली की। बढ़ई ने राजकुमार को कामसेंदगे के महल में घुसने का भेद बता दिया। राजकुमार आगे बढ़ चला। कामसेंदगे के महल की ओर जाते हुए रास्ते में उसने चार नारंगियाँ, एक पाड़ा, एक नारियल, मुर्ग़ी के चार अंडे और एक कै़ंची ख़रीदी।
कामसेंदगे के महल के फाटक पर सोना डालने के लिए पात्र रखा था। राजकुमार ने उसमें सोना डाला। फिर उसने मोतियों के पात्र में मोती और सिक्के के पात्र में सिक्के डाले। उसके बाद हाथ-मुँह धोकर वह फिर गया। सेविका ने पान-सुपारी से उसका स्वागत किया और कहा, “पान खाकर आप रसोई के पास वाले कक्ष में जाएँ और वहाँ चौकी पर विश्राम करें।” राजकुमार चौकी पर बैठा और चारों नारंगियाँ अपने सर पर रख लीं। नारंगियाँ सर पर रखते ही चारों कोने से चार पुतलियाँ उसकी ओर बढ़ीं। उन्होंने एक-एक नारंगी उठाई और वापस अपने-अपने कोने में जाकर खाने लगीं। नारंगियाँ खाकर वे वापस राजकुमार के पास आईं और बड़े प्यार से उसके सर से जूंएँ निकालने लगीं। थोड़ी देर में राजकुमार को नींद आ गई।
अगले दिन सवेरे उसकी आँखें खुलीं तो एक सेविका आई और उसे पास के कमरे में ले गई। बोली, “कासेंदगे के निवास तक पहुँचने के लिए आपको सात दरवाज़े पार करने होंगे। उनमें से तीन दरवाज़े मैं खोल दूँगी, बाक़ी चार आपको खोलने होंगे।” फिर एक-एक कर तीन दरवाज़े खोलकर वह उसे चौथे दरवाज़े तक ले गई।
राजकुमार ने चौथा दरवाज़ा खोला तो एक खूँख़ार तेंदुआ उसे खाने को लपका। राजकुमार ने पाड़ा आगे कर दिया। तेंदुए ने पाड़े को मुँह में पकड़ा और उसे लेकर चला गया। राजकुमार ने पाँचवा दरवाज़ा खोला तो एक भयानक कुत्ता मुँह खोले हुए उसकी ओर लपका। उसने उसकी ओर नारियल उछाल दिया। नारियल लेकर कुत्ता कमरे से बाहर चला गया। छठा दरवाज़ा खोलने पर उसने काले साँप को अपने सामने फुफकारते पाया। राजकुमार ने एक अंडा उसकी ओर बढ़ाया। साँप अंडा लेकर चला गया। सातवाँ दरवाज़ा खोलने पर एक विशाल कै़ंची उसकी ओर बढ़ी। राजकुमार ने अपनी कैंची निकाली और उसे विशाल कैंची के बीच फँसा दिया। दोनों क़ैचियाँ फ़र्श पर गिर गईं। राजकुमार ने राहत की साँस ली और अगले कमरे में जाकर बैठ गया।
वह थोड़ी देर वहाँ बैठा रहा, पर किसी को आते नहीं देखा तो जोर से बोला, “मैंने तो सुना था कामसेंदगे महान राजकुमारी है। उसका नाम तीन लोक में विख्यात है। लेकिन यह कैसी महान राजकुमारी है कि उसका मेहमान अकेला बैठा है। कोई उसे पान के लिए भी पूछने वाला नहीं।” उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि कामसेंदगे के भेष में एक दासी तश्तरी में पान के बीड़े लेकर आई। उसने तश्तरी राजकुमार को दी और उसके पास बैठ गई। राजकुमार ने कहा, “पीकदान कहाँ है?” दासी झट उठी और भागकर पीकदान ले आई। वह समझ गया कि वह राजकुमारी नहीं है। राजकुमार ने उसके तीन चाँटे लगाए और वहाँ से भगा दिया।
थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, “तीनों लोक में हर कोई कामसेंदगे को जानता है, पर उसके महल में कोई मेहमान को पूछने वाला नहीं है।” अदेर एक और दासी कामसेंदगे के भेष में आई और उसकी बग़ल में बैठ गई। इससे पहले कि वह कुछ बोलती राजकुमार ने कहा, “यह महान कामसेंदगे का महल लगता है, पर फ़र्श पर कितनी धूल है! किसी को इसकी परवाह ही नहीं!” सेविका तुरंत उठी और झाड़ू लाकर धूल बुहारने लगी। सफ़ाई के बाद झाड़ू को एक कोने में रखकर वह फिर राजकुमार की बग़ल में बैठ गई। वह समझ गया कि यह कामसेंदगे नहीं, उसकी दासी है। राजकुमार ने उसे भी तीन चाँटे लगाकर भगा दिया।
उसके जाने के बाद कामसेंदगे की माँ आई। बोली, “अगले कमरे में दो पलंग हैं। दोनों के बीच तीन गज की दूरी है। अगर तुम इतने होशियार हो तो उनको हाथ लगाए बिना उन्हें मिला दो।” यह कहकर वह चली गई। राजकुमार अगले कमरे में गया। वहाँ एक-दूसरे से तीन गज दूर दो पलंग बिछे हुए थे। उनके बीच एक पर्दा टँगा था। वह एक पलंग पर लेट गया। दूसरे पलंग पर ख़ुद राजकुमारी कामसेंदगे लेटी थी।
राजकुमार ने कहा, “यहाँ लोथ की तरह पड़े रहने से तो अच्छा है कोई कहानी ही सुनाऊँ, मगर कोई हुंकारा भरने वाला तो हो!” मक्खी रूपधारी राक्षस उड़कर पर्दे पर बैठा और कहा, “हुंकारा भरने के लिए मैं हूँ न! आप कहानी शुरू करें!”
“एक बार एक कुम्हार, एक जुलाहा, एक सुनार और एक ब्राह्मण तीर्थयात्रा पर गए। रात को चारों दो-दो घंटे पहरा देते थे। एक रात अपनी बारी के दौरान कुम्हार ने माटी की बहुत ही सुंदर स्त्री बनाई। अपनी बारी ख़त्म होने पर उसने जुलाहे को जगाया और सो गया। जुलाहे ने स्त्री की मूर्ति को अंगिया और रंगीन साड़ी पहना दी। उसके बाद सुनार का पहरा था। सुनार ने उसे ब्याह की लौंग और झुमके पहना दिए। अब पहरा देने की बारी ब्राह्मण की थी। उसने मंत्रशक्ति से मूर्ति में प्राण फूँक दिए। तब तक दिन निकल आया। बाक़ी तीनों भी जाग गए। चारों स्त्री पर अपना हक़ जताने लगे। वे विवाद करने लगे। तुम बताओ पर्दे कि उस स्त्री के साथ किसे ब्याह करना चाहिए?”
पर्दे ने कहा, “निसंदेह ब्राह्मण को!” राजकुमार ने कहा, “पर ब्राह्मण ने उसे जीवन दिया। वह ब्रह्मा के समान है।” कामसेंदगे ग़ुस्से से बोली, “तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आता कि उस पर सिर्फ़ सुनार का हक़ है?” और ग़ुस्से से उसने पर्दे को फाड़ डाला। पर्दे को फाड़ने के लिए उसने ऐसा ज़ोरदार झटका दिया कि उसका पलंग एक गज दूसरे पलंग की तरफ़ खिसक गया।
तब राजकुमार ने कहा, “यहाँ बेकार पड़े रहने से तो अच्छा है मैं एक और कहानी सुनाऊँ, अगर कोई सुनने वाला हुँकारा भरे।” मक्खी रूपधारी राक्षस ने कामसेंदगे की अंगिया पर बैठते हुए कहा, “मैं हूँ न! आप कहानी सुनाइए!” राजकुमार कहानी सुनाने लगा—
“किसी राजा के एक बेटी और एक बेटा था। राजकुमारी जब शादी के लायक हुई तो योग्य वर देखकर राजा ने अगले महीने के शुक्ल पक्ष की तीज को उसका ब्याह पक्का कर दिया। रानी और राजकुमार को इसके बारे में कुछ पता नहीं था। सो उन्होंने भी अच्छे वर देखकर अगले महीने के शुक्ल पक्ष की तीज को राजकुमारी का ब्याह निश्चित कर दिया। उन्हें यह पता नहीं था कि राजा पहले ही राजकुमारी का ब्याह तय कर चुका है।
ब्याह का नियत दिन आ पहुँचा। ब्याह की तैयारियों में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। मंडप इतना बड़ा था मानो धान का विशाल खेत ऊपर उठ गया हो। बल्लियों पर मांगलिक ईख के पौधे बाँधे गए। नारियल के पत्तों से छाजन छाया गया और कनातें बुनी गईं। मरम्मत और पुताई से पूरे शहर की दीवारें नई लगने लगीं। शहर की गली-गली में शादी की मुनादी करवा दी गई। विवाह के अवसर पर दूर-दूर से नाते-रिश्तेदार आए। विवाह के लिए तीन दिशाओं से तीन बरातें आईं। सुनते ही राजकुमारी समझ गई कि यह झंझट आसानी से नहीं निपटेगा। उसके पिता, भाई और माँ के बीच भयंकर झगड़ा होगा। यह उसके लिए कितनी लज्जा की बात होगी! जैसे भी हो यह झगड़ा टालना होगा। इस बहाने कि रात को अधिक रोशनी हो उसने नौकरों को लकड़ियों का ढेर लगाने और उन्हें जलाने का आदेश दिया। लकड़ियों के ढेर से लपटें उठने लगीं तो राजकुमारी आग में कूद पड़ी और मर गई। तीनों दूल्हे आग की तरफ़ दौड़े। एक दूल्हा आग में कूद गया और प्राण त्याग दिए। दूसरा हाथों से मुँह ढांपकर पास के कुएँ की जगत पर बैठ गया। तीसरा ऐसे पंडित की तलाश में निकल पड़ा जो राजकुमारी को वापस ज़िंदा कर सके।
आख़िर उसे ऐसा पंडित मिल गया। दूल्हा उसके पास पहुँचा उस वक़्त पंडित खाना लाने की तैयारी कर रहा था। उसने दूल्हे को बैठने के लिए आसन दिया और दोनों के लिए खाना बनाने लगा। कुछ भी खाने की दूल्हें की क़तई इच्छा नहीं थी, पर पंडित ने उसकी एक नहीं सुनी। क्या खाना बनाए इसके लिए पंडित इधर-उधर देखने लगा। तभी एक बच्चा घुटनों के बल चलता हुआ वहाँ आया। पंडित ने बच्चे को नहलाया और काट-कूटकर उसका माँस पकाने लगा। बच्चे की हड्डियाँ उसने कोने में फेंक दीं। माँस पक गया तो उसने दूल्हे से भी खाने की मनुहार की, पर आतंकित दूल्हे ने मनाकर दिया। दूल्हे ने कहा कि अगर बच्चा वापस ज़िंदा हो जाए तो वह हर चीज़ खाने को तैयार है। पंडित ने कहा, ‘इतनी-सी बात है! अभी लो!’ यह कहकर वह घर के पिछवाड़े से कुछ हरी पत्तियाँ लाया और उन्हें मसलकर कोने में पड़ी बच्चे की हड्डियों पर उनका रस टपकाया। पलक झपकते बच्चा उठ बैठा और घुटनों के बल चलने लगा, मानो कुछ हुआ ही न हो। दूल्हे ने पंडित के हाथ से पत्तियाँ छीनी और सरपट भागा। वापस आकर उसने राजकुमारी और पहले दूल्हे की हड्डियों पर पत्तियों का रस टपकाया। दोनों उठ खड़े हुए।”
राजकुमार ने कहा, “तीनों दूल्हों में से किसकी शादी राजकुमारी से होनी चाहिए?”
अंगिया ने कहा, “उसकी जो पत्तियाँ लेकर आया और राजकुमारी को ज़िंदा किया।”
राजकुमार ने कहा, “पर जीवन देने वाला तो पिता समान होता है।”
कामसेंदगे का धीरज चुक गया। बोली, “तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आता कि जो राजकुमारी के साथ जलकर मरा वही उसका पति होने के योग्य है?” कहते हुए ग़ुस्से से उसने अंगिया के दो टुकड़े कर दिए। अंगिया को उसने इतने ज़ोर से फाड़ा कि उसके झटके से उसका पलंग दूसरे पलंग की तरफ़ और एक गज खिसक गया।
राजकुमार ने फिर कहा, “यहाँ ठाले पड़े रहने से तो अच्छा होगा मैं कोई कहानी सुनाऊँ। पर कोई हुँकारा भरने वाला तो हो!”
मक्खी रूपी राक्षस उड़कर कामसेंदगे की साड़ी पर जा बैठा। कहा, “हुँकारा भरने के लिए मैं हूँ न! आप कहानी शुरू करें!” राजकुमार तीसरी कहानी सुनाने लगा—
“एक राजकुमारी अपना अध्ययन पूरा करके आश्रम से जाने लगी तो गुरु ने कहा, ‘तुम क्या गुरुदक्षिणा दोगी?’ शिष्या ने कहा, ‘जो आपका आदेश हो!’ गुरु ने उससे वचन लिया कि अपनी सुहागरात में वह उसके साथ सोएगी। कुछ समय बाद राजकुमारी की सगाई हो गई। विवाह की रात उसे गुरु को दिया वचन याद आया। यह बात उसने पति को बताई तो उसने कहा, ‘वचन वचन है। तुम्हें गुरु के पास ज़रूर जाना चाहिए।’ सो वह रात के अँधेरे में गुरु के आश्रम के लिए चल पड़ी। रास्ते में एक डाकू ने उसे रोका और अपने गहने देने को कहा। राजकुमारी ने कहा, ‘मैं जल्दी में हूँ। मुझे जाने दो। लौटते समय चाहो तो सारे गहने ले लेना।’ डाकू ने उसकी बात पर विश्वास करते हुए कहा, ‘ठीक है, जाओ! मैं यहीं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।’ थोड़ा आगे उसे एक चीता मिला। बोला, ‘मैं भूखा हूँ। मैं तुम्हें खाऊँगा।’ राजकुमारी ने कहा, ‘अभी मैं जल्दी में हूँ। क्या तुम मेरे वापस आने तक इंतज़ार नहीं कर सकते? तब तुम मुझे समूची खा सकते हो।’ चीता हालाँकि भूखा था, फिर भी उसने कहा, ‘ठीक है, जाओ! मैं तुम्हारी राह देखूँगा।’ आगे उसे एक साँप मिला। उसने उसे डसना चाहा। राजकुमारी ने उससे कहा, ‘अभी मैं जल्दी में हूँ। क्या तुम मेरे वापस आने का इंतज़ार नहीं कर सकते?’ साँप मान गया। राजकुमारी गुरु के आश्रम में गई और द्वार खटखटाया। गुरु ने सोचा, इतनी रात को कौन हो सकता है? कोई डाकू तो नहीं? उसने झिझकते हुए दरवाज़ा खोला। राजकुमारी को देखकर उसे आश्चर्य हुआ। राजकुमारी से उसके आने का कारण जानकर गुरु ने कहा, ‘उस दिन मैंने तुमसे वचन अवश्य लिया था, परंतु मैं ऐसा नहीं कर सकता। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है। जाओ, अपने पति के पास जाओ!’ राजकुमारी गुरु के चरण छूए और वापस चल पड़ी। गुरु ने बहुत कहा, पर अपनी रक्षा के लिए उसने किसी को साथ नहीं लिया। वह सीधे साँप के पास गई। बोली, ‘अब तुम मुझे डस सकते हो।’ साँप ने कहा, ‘तुम्हारा दर्शन मेरे लिए बहुत शुभ रहा। मैंने छककर जंगली मुर्ग़ियों के अंडे खाए हैं। मेरा पेट भरा हुआ है।’ फिर वह चीते के पास गई। चीता बोला, ‘तुम्हारा मिलना मेरे लिए बहुत अच्छा रहा। तुम्हारे जाने के बाद मुझे एक पाड़ा मिल गया। मेरा भोजन हो गया। तुम जाओ!’ जब वह डाकू के पास गई और अपने गहने उतारने लगी तो डाकू ने कहा, ‘अब इनकी ज़रूरत नहीं। तुम्हारे जाने के बाद मुझे सौदागरों का कारवां मिला। तुम्हारा मिलना मेरे लिए बहुत शुभ रहा। अब तुम घर जाओ।’ वह घर पहुँची तो उसका पति उसकी बाट जोह रहा था।”
कहानी सुनाकर राजकुमार ने पूछा, “बताओ, इनमें सबसे महान कौन है? गुरु, पति, डाकू, चीता या साँप?”
कामसेंदगे की साड़ी पर बैठी राक्षस-मक्खी ने कहा, “निश्चित ही गुरु सबसे महान है।” कामसेंदगे ने ग़ुस्से से कहा, “तुम्हें पति की महानता क्यों नहीं दिखती? वह इसमें सबसे श्रेष्ठ है।” कहते हुए ग़ुस्से से उसने अपनी साड़ी को फाड़ डाला। साड़ी को उसने इतने ज़ोर से फाड़ा कि उसके झटके से उसका पलंग और एक गज खिसका और दूसरे पलंग से जा लगा।
दोनों पलंग के मिलते ही राजकुमार उठा और वहाँ से चला गया। कामसेंदगे ने उसे पुकारा, उसके पीछे सेवक भेजे, पर राजकुमार ने मुड़कर देखा तक नहीं। वह रात के अँधेरे में ग़ायब हो गया। कामसेंदगे को लगा कि वह राजकुमार से दूर नहीं रह सकती। उसकी तलाश में उसके सेवक कहाँ-कहाँ नहीं भटके, पर कोई नतीजा नहीं निकला। आख़िर कामसेंदगे ने स्वयं उसकी तलाश में जाने का निश्चय किया।
एक दिन वह तिल के एक खेत के पास से जा रही थी। खेत के रखवाले को देखकर उसे लगा कि यह वही राजकुमार है। उसकी परीक्षा लेने के लिए कामसेंदगे ने उसे ताँबे का एक सिक्का देते हुए कहा, “मुझे एक एक पैसे के तिल, तिल की पत्तियाँ, टहनियाँ और खली दो!” रखवाले ने तुरंत तिल का एक पौधा उखाड़ा और उसे दे दिया। कामसेंदगे को विश्वास हो गया कि यह वही राजकुमार है। कामसेंदगे ने उसे अपने साथ राजमहल चलने का आग्रह किया। वह भड़क उठा और उसके तीन चाँटे लगाए। तिस पर भी कामसेंदगे ने उसे छोड़कर जाने से मना कर दिया। इस पर राजकुमार हँसा और कामसेंदगे के साथ रामराज्य की राजधानी चला गया। राजधानी पहुँचकर राजकुमार ने कामसेंदगे के बग़ीचे में बंद सब राजकुमारों को मुक्त कर दिया। जल्दी ही उसने कामसेंदगे से विवाह कर लिया और बहुत सूझ-बूझ के साथ वहाँ का राज-काज संभाला।
- पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 160)
- संपादक : ए. के. रामानुजन
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
- संस्करण : 2001
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