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बोपोलूची

bopoluchi

किसी गँवई कुएँ पर कुछ लड़कियाँ पानी भर रही थीं। बातों-बातों में हरेक अपनी होने वाली शादी के बारे में बढ़-चढ़ कर हाँकने लगीं।

एक ने कहा, “मेरे चाचा ढेर सारा दहेज और ज़री का जोड़ा लाएँगे और महल में मेरी शादी करेंगे।”

दूसरी बोली, “मेरे चाचा शहर गए हैं। वे जल्दी ही ऊँटगाड़ी भर कर मिठाइयाँ लाएँगे।”

तीसरी कहने लगी, “और मेरे चाचा सोने की गाड़ी में हीरे, पन्ने, माणिक और मोती भरकर आज-कल में आने ही वाले हैं।”

बोपोलूची उनमें सबसे सुंदर थी। उनकी बातें सुनकर वह उदास हो गई। बेचारी अनाथ जो थी! दुनिया में कोई भी तो ऐसा नहीं था जो उसका रिश्ता तय करता और उसके लिए दहेज जुटाता। पर बातों में पीछे क्यों रहे! बोली, “मेरे चाचा मेरे लिए सोने की थालियों में कपड़े, मिठाइयाँ और हीरे-मोती लाएँगे।”

एक डाकू ने बोपोलूची की बात सुन ली। वह डाकू फेरीवाले का रूप धर कर गाँवों में घूमता था और औरतों को इत्र बेचता था। वह इस वक़्त कुएँ के पास ही बैठा हुआ था। बोपोलूची की सुंदरता और उसके तेज़ से वह अभिभूत हो गया। उसने निश्चय किया कि वह उससे शादी करेगा।

अगले ही दिन थालियों में रेशमी कपड़े, मिठाइयाँ और बेशक़ीमती जवाहर लिए हुए वह धनी किसानी के भेष में बोपोलूची के यहाँ धमका।

बोपोलूची की आँखें खुली की खुली रह गईं! इन्हीं चीज़ों की तो कल वह सहेलियों के सामने डींग हाँक रही थी! डाकू ने बोपोलूची को बताया कि वह उसके बापू का बचपन में खो गया भाई है। वह उसका अपने बेटे के संग ब्याह करना चाहता है। इसी ख़ातिर वह उसे लिवाने आया है।

बोपोलूची को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ। कहीं वह सपना तो नहीं? उसका दिल बासें उछलने लगा। ज़रूरी चीज़-बस्त समेटकर वह लुटेरे के साथ चल पड़ी।

रास्ते में पेड़ पर बैठा एक कव्वा कांव-कांव करने लगा—

बोपोलूची, बोपोलूची, सावधान!

हवा में तैरते ख़तरे को भांप!

यह चाचा, यह राहत,

है लुटेरा, करेगा आहत।

बोपोलूची बोली, “चाचा, इस कव्वे की आवाज़ कुछ अजीब है! यह क्या कह रहा है?”

लुटेरे ने कहा, “कुछ नहीं। इधर के कव्वे इसी तरह बोलते हैं।”

थोड़ा आगे जाने पर उन्हें एक मोर मिला। ख़ूबसूरत बोपोलूची को देखते ही वह चिल्लाया—

बोपोलूची, बोपोलूची, सावधान!

हवा में तैरते ख़तरे को भांप!

यह चाचा, यह राहत,

है लुटेरा, करेगा आहत।

बोपोलूची बोली, “चाचा, इस मोर की आवाज़ कुछ अजीब है! यह क्या कह रहा है?”

लुटेरे ने कहा, “अरे, कुछ नहीं। इधर के मोर इसी तरह बोलते हैं।”

थोड़ा आगे रास्ते पर बैठा एक सियार हुआने लगा—

बोपोलूची, बोपोलूची, सावधान!

हवा में तैरते ख़तरे को भांप!

यह चाचा, यह राहत,

है लुटेरा, करेगा आहत।

बोपोलूची बोली, “चाचा, इस सियार की आवाज़ कुछ अजीब है! यह क्या कर रहा है?”

लुटेरे ने कहा, “अरे, कुछ नहीं। इधर के सियार इसी तरह बोलते हैं।”

वे चलते रहे, चलते रहे, जब तक कि लुटेरे का घर नहीं गया। घर पहुँच कर लुटेरे ने दरवाज़ा भीतर से बंद किया और बोपोलूची को बताया कि वह कौन है और कैसे उसने उससे शादी करने का फैसला किया। वह बहुत रोई, गिड़गिड़ाई, पर लुटेरे का दिल नहीं पसीजा। उसने बोपोलूची को अपनी बूढ़ी माँ के हवाले किया और विवाहभोज का इंतजाम करने के लिए चला गया।

बोपोलूची के बाल उसके टखनों तक पहुँचते थे। पर लुटेरे की माँ इतनी बूढ़ी थी कि उसके सर पर एक भी बाल नहीं था। दुल्हन को पोशाक सीते हुए खूसट बुढ़िया ने पूछा, “बेटी, तुम्हारे बाल इतने लंबे कैसे हुए?”

बोपोलूची ने जवाब दिया, “मेरी माँ इसकी विधि जानती थी। इसके लिए वह चावल कूटने की बड़ी ओखली में मेरा सर कूटती थी। मूसल की हर चोट के साथ मेरे बाल बढ़ते जाते थे। बाल लंबे करने की यह अचूक विधि है।”

बुढ़िया ने कहा, “हो सकता है इससे मेरे सर पर भी लंबे-लंबे बाल जाएँ।”

बुढ़िया के सर पर कभी भी लंबे बाल नहीं रहे थे और उसे उनकी बड़ी चाह थी।

बोपोलूची ने कहा, “हो सकता है। आज़माकर देखने में क्या जाता है!”

सो बुढ़िया ने ओखली में अपना सर रखा। उसके सर रखते ही बोपोलूची ने मूसल का ऐसा भरपूर वार किया कि बुढ़िया के प्राण पखेरू उड़ गए।

बोपोलूची ने मृत बुढ़िया के कपड़े पहने, झटपट अपनी चीज़ें समेटी और नौ दो ग्यारह हो गई।

बोपोलूची जानती थी कि लुटेरा उसके पीछे ज़रूर आएगा। इसलिए वह अपने घर सोकर हर रात किसी सहेली के यहाँ सोने लगी। पर ऐसा कब तक चलता? सो कुछ दिन बाद उसने अपने घर पर ही सोने का फैसला किया। हाँ, सोते समय उसने बिस्तर के नीचे फरसा छुपा लिया। उसी रात चार आदमी उसके घर में घुसे और उसे चारपाई समेत उठाकर चल पड़े। लुटेरा चारपाई को सिरहाने की तरफ़ से उठाए हुए था। बोपोलूची जाग रही थी, पर वह नींद का बहाना किए लेटी रही। गाँव से थोड़ी दूर पर उन्होंने चारपाई नीचे रखी। यह सोचकर कि अब कोई डर नहीं, लुटेरा और उसके साथी काफ़ी-कुछ निश्चिंत हो गए थे। उन्हें ग़ाफ़िल पाकर बोपोलूची ने झटके से फरसा निकाला और पलक झपकते पैताने की तरफ़ खड़े दो आदमियों के सर धड़ से अलग कर दिए। वह तेज़ी से पलटी और तीसरे का सर भी धूल चाटने लगा। एक लुटेरे को भागने को मौक़ा मिल गया। वह उसके पीछे भागी। वह उस तक पहुँचती-पहुँचती तब तक वह जंगली बिल्ली की तरह पेड़ पर चढ़ गया।

बोपोलूची फरसा भाँजते हुए चिल्लाई, “मर्द है तो नीचे और मुक़ाबला कर!”

पर लुटेरा नीचे नहीं आया। बोपोलूची ने सूखी टहनियाँ इकट्ठी की और पेड़ के चारों ओर उन्हें जमाकर उनमें आग लगा दी। आन की आन में पेड़ ने आग पकड़ ली। धुएँ से लुटेरे का दम घुटने लगा। नीचे उतरने की हड़बड़ी में वह गर्दन तुड़ा बैठा और मर गया।

उसके उपरांत बोपोलूची सीधे लुटेरे के घर गई। उसने लुटेरे का छुपाया हुआ ख़ज़ाना ढूँढ़ निकाला और हीरे-मोतियों से भरे सोने-चाँदी के कलश ऊँटों और गधों पर लादकर अपने घर ले आई। अब वह इतनी अमीर थी कि जिससे चाहे शादी कर सकती थी।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 6)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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