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संगीत के स्वर

sangit ke svar

महावीर प्रसाद द्विवेदी

अन्य

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और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    जैसे और अनेक शास्त्रों में भारतवर्ष ने किसी समय अद्भुत उन्नति की थी वैसे ही संगीत-शास्त्र में भी। 'किसी समय' हम इसलिए कहते हैं, क्योंकि आजकल इस देश की कितनी ही प्राचीन विद्याएँ और कलाएँ ह्रास को प्राप्त हो रही हैं। यहाँ तक कि किसी का लोप तक हो गया है। कुछ कलाएँ ऐसी भी हैं, जिनमें मनोनिवेश करके पाश्चात्य देश इस देश से बढ़ गए हैं; परंतु कितनी ही कलाएँ इस समय भ्रियमाण अवस्था में हैं। संगीत को हम इसी प्रकार की कलाओं में समझते हैं। इस कला में यद्यपि और देशों ने बहुत उन्नति की है तथापि उसका सूक्ष्म और शास्त्रीय ज्ञान जैसा किसी समय इस देश के लोगों का था वैसा पाश्चात्य देशों में अब तक नहीं देखा जाता। यूरोपवालों को मूर्च्छना और गमक आदि का अब तक ज्ञान नहीं।

    काव्य-शास्त्र की तरह संगीत-शास्त्र में भी यह देश बहुत बड़ा बढ़ा था। इस समय जो दस पाँच पुराने संगीत-ग्रंथ देख पढ़ते हैं वे इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। नारदपञ्चमसारसंहिता, नारदसंवाद, संगीतदर्पण, संगीतनारायण, संगीतसार, संगीत-दामोदर, संगीतरत्नाकर, ताण्डवतरंगेश्वर, रागाणंव और ध्वनि-मञ्जरी आदि ग्रंथ एक से एक बढ़कर हैं। इनको अच्छी तरह समझने और समझाने वाले आजकल प्रायः दुर्लभ है। इनमें वर्णन किए गए संगीत-विषयों का अभ्यास करके उनमें पारंगत होना तो बहुत दूर की बात है।

    पुराने ज़माने में ऋषि लोग वेद-मंत्रों का सस्वर गान करते थे। उन्होंने वैदिक स्वरों को उदात्त, अनुदात्त सौर स्वरित, इन तीन भेदों में विभक्त किया था। वैदिक स्वरों का निरूपण और वैदिक सूक्तों के गाने की विधि का वर्णन नारद मुनि ने किया है। उनके ग्रंथ का नाम है नारदीय शिक्षा सामवेद की रचना गाने ही के लिए की गई थी। उसके उपवेद का नाम है गान्धर्व वेद। उसके आचार्य भरत मुनि हैं। उसमें संगीत-शास्त्र का सविस्तर वर्णन है। और ग्रंथ सब उसके बाद बने हैं। गान्धर्व वेद बाज कल प्रायः अप्राप्य हो रहा है।

    नाचने, गाने और बजाने का नाम संगीत है। हनुमंत भी इस शास्त्र के आचार्य हो गए हैं। उनका नाम भी कई ग्रंथों में आया है। परंतु उनका ग्रंथ भी दुष्प्राप्य है। किसी-किसी ने रंभा, रावण, वायु और नंदी ही को नहीं, किंतु ब्रह्मा को भी संगीत-शास्त्र का आचार्य माना है। पुरानी पुस्तकों से मालूम होता है कि पहले इस देश में नाचना निन्द्य समझा जाता था। प्रतिष्ठित आदमी भी नाचते थे। गाने और बजाने की तो कोई बात ही नहीं कविता का मुख्य उद्देश मनोरंजन किंवा अनुरक्ति उत्पन्न करना है। संगीत का भी वही उद्देश है। गाना और बजाना सुनने से जैसे मनोरंजन होता है वैसे ही नाचना देखने से भी। इसी से नृत्य भी संगीत शास्त्र के अंतर्गत माना गया है—

    गीतवादित्रनृत्यानां रक्ति साधारणो गुणः।

    अतएव अनुरंजन करना—अनुराग उत्पन्न करना ही संगीत का मुख्य फल है। जिस संगीत से अनुरंजन हो उसे अपने उद्देश से च्युत समझना चाहिए। संगीत में सात बातों के होने से अनुरक्ति उत्पन्न होती है। वे बातें ये हैं—

    शारीरं नादसम्भूतिः स्थानानि श्रुतयस्तथा।

    ततः शुद्धः स्वराः सप्त विकृता द्वादशाध्यमी॥

    वाद्यादिभेदाश्चत्वारो रागोत्पादन हेतवः। —संगीतदर्पण

    अर्थात् शरीर-संचालना, नाद की उत्पत्ति, ताल आदि के स्थान, श्रुति, सात शुद्ध स्वर, बारह अशुद्ध किंवा विकृति स्वर, और चार प्रकार के वाद्यादि भेद।

    इन सात हेतुओं में से जितनी बातें स्वरों से संबंध रखती हैं उनका उल्लेख थोड़े में किया जाता है। स्थूल रूप से वे आठ भागों में विभक्त की जा सकती हैं। यथा—स्वर, श्रुति, विकृत स्वर, मूर्छना, ग्राम, तान, वर्ण और अलंकार राम और रागिनियों की भी गिनती यदि कर ली जाए तो ये भेद 9 हो जाते हैं।

    शुरू-शुरू में स्वर तीन ही प्रकार के माने गए थे। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। इन्हीं तीन स्वरों में सामगायन होता था। इनके चिह्न पृथक्-पृथक् हैं। उदात्त का चिह्न (।) है; वह वेदों में ऊपर लगाया जाता है। अनुदात्त का चिह्न (—) नीचे रहता है। यही अनुदात्त का चिह्न यदि ऊपर रहता है तो वह स्वरित स्वर का बोधक होता है। नारदीय शिक्षा में इन स्वरों के उच्चारण के विषय में लिखा है कि वेद-पाठी को अपने हाथ के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर, वेदार्थ का चिंतन करते हुए, हाथ और मुँह दोनों से वेद का उच्चारण करना चाहिए। जिस क्रम से वर्णों का उच्चारण किया जाए उसी क्रम से हस्त द्वारा उनकी समाप्ति की जाए। परंतु इस प्रकार वर्षा-नियम सस्वर वेदपाठ करने वाले पंडित आजकल बहुत कम पाए जाते हैं। यदि कंठ तालू आदि निर्दिष्ट स्थानों से स्वरों का यथानियम उच्चारण करके हाथ से भी उच्चारण का भाव बतलाया जाए तो सुनने वाले को वेदपाठ से भी गाना सुनने का थोड़ा बहुत आनंद ज़रूर मिल सकता है।

    किसी-किसी का मत है कि वैदिक स्वर, नाद-विशेष के परिणाम-ज्ञापक भेद है जिन्हें अँग्रेज़ी में मेजर, माइनर और सेमीटोन कहते हैं। उन्हीं को वैदिक गाने में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित कहते हैं। परंतु यह कल्पना-युक्त नहीं जान पड़ती। पाणिनि ने अपने व्याकरण में इन स्वरों का यह लक्षण लिखा है—

    (1) जो स्वर ऊँचे से उपलब्ध हो वह उदात्त।

    (2) जो स्वर नीचे से उपलब्ध हो वह अनुदात्त।

    (3) जो उदात्त और अनुदात दोनों के संग्रह से उपलब्ध हो, अर्थात जिसमें दोनों का संयोग हो, वह स्वरित।

    परंतु इससे यह मतलब नहीं कि जो स्वर सुनने में ऊँचा मालूम हो वह उदात्त और जो स्वर सुनने में नीचा मालूम हो वह अनुदात्त बड़ाई-छुटाई के कारण उदात्तता या अनुदात्तता नहीं होती, किंतु उच्च-नीच 'प्रयत्न' के कारण होती है। अर्थात कष्ट और तालू आदि उच्चारण-स्थानों के ऊपरी हिस्से से उच्च प्रयत्न द्वारा जो स्वर निकलता है वह अनुदात्त कहलाता है। इसी तरह प्रकार-द्वय के योग से जिसका उच्चारण होता उसे स्वरित कहते हैं। उसके आदि में अर्द्धमात्रात्मक अंश उदात्त होता है और शेष अनुदात्त।

    वैदिक स्वरों का उल्लेख संगीत शास्त्र के लौकिक ग्रंथों में नहीं पाया जाता परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि लौकिक स्वरों की उत्पत्ति पूर्वोक्त वैदिक स्वरों ही से हुई है। लौकिक स्वर सात है। यथा—पड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। किन वैदिक स्वरों से किन लौकिक स्वरों की उत्पत्ति हुई है, इसका विवरण वैदिक 'शिक्षा' में पाया जाता है। उसमें लिखा है—

    (1) उदात्त से निषाद और गांधार की

    (2) अनुदात्त से खड्ज, मध्यम और पंचम की

    (3) स्वरित से षड्ज, मध्यम और पंचम की

    इन सात लौकिक स्वरों के प्रत्येक स्वर का पहला अक्षर उसका ज्ञापक माना गया है। अर्थात् 'स' षड्ज, का, 'रि' ऋषभ का इत्यादि। स्वरालाप में इन्हीं सप्त स्वरों के प्रथमाक्षर अर्थात् स, रि, ग, म, प, ध, नि का उच्चारण होता है। ये सातों स्वर पशु-पक्षियों के अनुकरण से निर्मित हुए हैं। षड्ज में मोर के स्वर का अनुकरण किया गया है, ऋषभ में बैल के, गांधार में अज के, मध्यम में क्रौंच के, पंचम में कोकिल के, धैवत में हाथी के और निषाद में घोड़े के स्वर का। ये सात स्वर शुद्ध है। इनसे 12 प्रकार के विकृत स्वर बनते हैं। अतएव विकृत और अविकृत मिलाकर सब 19 प्रकार के स्वर होते हैं। इन्हीं स्वरों को भिन्न-भिन्न अनेक रूप देकर संगीत शास्त्र के आचायों ने कितने ही रागों और रागिनियों की कल्पना की है। केवल कल्पना के बल से उन्होंने रागों के नामकरण करके उनके अनुकूल उनके रूप का भी निरूपण किया है। यही नहीं, किंतु जिसका जैसा रूप है उसके अनुरूप गाए जाने का समय भी निर्दिष्ट कर दिया है। अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार के रागों और रागिनियों की रचना ऐसी है कि उस रचना और रूप के ख़्याल से जो समय उनके लिए निश्चय किया गया है उसी में उनके अलाप से विशेष आनंद होता है। जिन ऋषियों और आचार्यों ने संगीत स्वरों की मूर्त-कल्पना करके इस शास्त्र में इतनी सूक्ष्म पारदर्शिता दिखलाई है उनकी योग्यता का विचार करके आश्चर्य होता है।

    नाद से श्रुति और श्रुति से स्वरों की उत्पत्ति होती है। अतएव अब इस बात का विचार करना है कि श्रुति क्या चीज़ है और नाद कैसे उत्पन्न होता है।

    नाद करने, गाने या स्वर उच्चारण करने की इच्छा होने पर आत्मा की प्रेरणा से शरीर की उष्णता विद्युच्छक्ति भीतरी वायु को ताड़ित को एक प्रकार का वेग प्राप्त हो जाता है। शरीर के भीतरी वायु को ताड़ित करता है। उसके नाभि के पास सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न होती है। वही ध्वनि, कष्ठ, तालू, जिह्वा आदि के योग से पुष्ट होकर मुँह से निकलती है। इन स्थानों को प्राप्त हुई ध्वनि, भिन्न-भिन्न प्रयत्नों के द्वारा, भिन्न-भिन्न प्रकार की हो जाती है। ये स्थान एक प्रकार के स्वर-भेदक यंत्र है। इनसे वही काम निकलता है जो सितार के पदों से निकलता है। हृदय से निकलने वाली ध्वनि को मंद्र, कष्ठ निकलने वाली को मध्य और ताल से निकलने वाली को तार कहते हैं। इन्हीं का नाम उदारा, मुदारा और तारा है—

    हृदि मन्द्रो, गले मध्यो, मूनि तार इति क्रमात्।

    इन ध्वनियों में दूसरों का वज़न पहली से दूना और तीसरी का दूसरी से दूना होता है। परंतु सितार और वीणा आदि में इसका क्रम उलटा होता है। अर्थात् मनुष्य-शरीर से जो ध्वनि निकलती है वह नीचे से ऊपर को ऊँची होती जाती है, पर बाद-यंत्रों में वह ऊपर से नीचे की तरफ़, क्रम-क्रम से, ऊँची होती है। शरीर-यंत्र से पूर्वोक्त तीनों प्रकार की ध्वनियों में से जो ध्वनि निकाली जाती है, उसका स्थान विस्तृत करके अवशिष्ट स्थानों को संकुचित करना पड़ता है। षड्जादि स्वर इन्हीं तीन प्रकार की ध्वनियों के भेद-विशेष हैं। ये भेद स्थूल हैं। इन्हीं के सूक्ष्म अंशों का नाम श्रुति है। श्रुति को एक प्रकार का वज़न या मात्रा कहना चाहिए। इन्हीं श्रुति नामधारी दो, तीन या चार वज़नों या मात्राओं के योग से एक स्वर की उत्पत्ति कल्पित की गई है। मतलब यह कि श्रुति, स्वर का एक बहुत ही सूक्ष्म अंश है। वह सुनी जा सकती है। इससे उसका नाम श्रुति हुआ। इस श्रुति के 22 भेद हैं। अर्थात् वह 22 भागों में बाँटी गई है। और एक-एक स्वर, दो से चार भागों तक के बने हैं। ध्वनि की यदि हम 22 बिंदुओं को एक रेखा कल्पना करें, और उन बिंदुओं को सात भागों में बाँट दें, तो वे सातों भाग सात स्वरों के बोधक होंगे। परंतु सब स्वरों का वज़न बराबर नहीं; कोई उच्च है, कोई नीच। इससे सात भाग बराबर-बराबर करके प्रत्येक स्वर के वचन के हिसाब से भाग करने पड़ेंगे। संगीत-विद्या के आचार्यों ने इसी कारण से, नीचे लिखे अनुसार श्रुतियों के विभाग किए हैं—

    (1) स—षड्ज = 4 श्रुतियाँ

    (2) रि—ऋषभ = 3 श्रुतियाँ

    (3) ग—गांधार = 2 श्रुतियाँ

    (4) म—मध्यम = 4 श्रुतियाँ

    (5) प—पञ्चम = 4 श्रुतियाँ

    (6) धै—धैवत = 3 श्रुतियाँ

    (7) नि—निषाद = 2 श्रुतियाँ

    कुल 22

    इसका प्रमाण—

    चतुभ्यों जायते षड्जो मध्यमः पञ्चमस्तथा।

    द्वाभ्यां द्वाभ्यां गतो ज्ञेयी रिधौ व्यात्मको तथा॥

    श्रुतियों और स्वरों में यही संबंध है जो दूध और दही में है। अर्थात् दूध से जैसे दही बनता है वैसे ही श्रुतियों से स्वर बनते हैं। स्वरों में श्रुतियाँ इतनी संलग्न होकर संचरण करती हैं कि उनका ठीक-ठीक पता लगाना मुश्किल काम है। स्वरों को जलसमूह समझिए और श्रुतियों को मछलियाँ। जिस तरह अगाध जल में मछलियाँ दौड़ा करती हैं और उनका गमन-मार्ग ठीक-ठीक देखने को नहीं मिलता, उसी तरह श्रुतियों के संचार का ज्ञान भी अच्छी तरह नहीं होता।

    किसी-किसी का मत है कि शुद्ध स्वर 7 नहीं किंतु 21 हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि स्थान-विशेष से उच्चारण किए जाने के कारण स्वरों के मंद्र, मध्य और तार, ये तीन भेद होते हैं। अतएव सात स्वरों में से प्रत्येक स्वर के तीन प्रकार अर्थात् मंद्र, मध्य और तारस्थान से उच्चारण होने के कारण, उनके 21 भेद हो जाते हैं और वे सब विशुद्ध स्वर कहलाते हैं।

    विकृत स्वरों के 12 भेद हैं। जिस स्वर में यथाक्रम जितनी श्रुतियाँ होनी चाहिए उतनी होने से स्वर विकृत हो जाते हैं। अर्थात् किसी स्वर की एक या एक से अधिक श्रुतियाँ यदि अन्य स्वर में प्रविष्ट कर दी जाती हैं तो उस स्वर को विकृतत्व प्राप्त हो जाता है। और जिस स्वर की श्रुतियाँ अन्य स्वर में जाती हैं वह भी उसी के साथ विकृत हो जाता है। इस प्रकार श्रुतियों का भंग करने, अर्थात् एक स्वर से निकालकर दूसरे में डालने और दूसरे से निकालकर आगे पीछे के किसी और स्वर में संलग्न करने से स्वरों के अनेक भेद होने चाहिए। पर ऐसा नहीं होता। संगीत रत्नाकर में श्रुतियों के इस प्रवेश और बहिष्कार के नियम विस्तारपूर्वक दिए गए हैं। उसके अनुसार कुछ ही निर्दिष्ट श्रुतियाँ ऐसी हैं जिनका प्रवेश और बहिष्कार होता है, सबका नहीं। इसी से विकृत स्वर केवल 12 माने गए हैं। इस हिसाब से ऋषभ और धैवत का एक ही एक विकृत रूप होता है। बाक़ी के पाँच स्वरों के दो-दो विकृत रूप होते हैं। किस स्वर की किस श्रुति का भंग करके किस स्वर में संलग्न करने से स्वर विकृत होते हैं, इसके नियम संस्कृत के संगीत-ग्रंथों में विस्तारपूर्वक दिए गए हैं। परंतु विकृत स्वर-संबंधी नियम बहुत पेचीदा है। इससे इस लेख में उनका उल्लेख करना हम अनावश्यक समझते है।

    शुद्ध और विकृत स्वरों को अनेक प्रकार के रूप देने ही का नाम राग और रागिनी है। पद्य-रचना में जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग होता है वैसे ही संगीत-शास्त्र में और अलंकारों से सजाने ही का नाम राग है। ताल-लय-युक्त राग सुनने से अलौकिक रागों का प्रयोग होता है। रागिनियाँ एक प्रकार के छंद हैं। स्वरों के रूप-विशेषों को छंद आनंद होता है और मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक उसे सुनकर तन्मय हो जाते है। इसी से नाना प्रकार के रागों और रागिनियों की सृष्टि हुई—

    यस्य श्रवणमात्रेण रज्यन्ते सकलाः प्रजाः।

    सर्वासां जातोस्तेन राग इति स्मृतः॥

    रागों के श्रवणमात्र से सुनने वालों का अनुरंजन होता है। सब लोगों के हृदय में अनुराग उत्पन्न करने के वे हेतु हैं। इसी से उनका नाम राग है। स्वरों के और भी चार भेद हैं—

    वादी, संवादी, विवादी और अनुवादी।

    जटिलता के कारण हम इनके लक्षण नहीं देते। पाठकों ने संगीत-संबंधी ग्रामों और मुचर्छनाओं का नाम सुना होगा—

    स्वराणां सुव्यवस्थानां समूहो ग्राम उच्यते

    सुव्यवस्थित स्वर समूहों का नाम ग्राम है अथवा यो कहिए कि स्वरों को सुव्यवस्था ही ग्राम कहलाती है। संगीत शास्त्र के आचाव्यों की राय है कि इस लोक के केवल दो ही ग्राम गाये जा सकते हैं। एक का नाम है आदिम षड्जग्राम, दूसरे का मध्य- ग्राम ऊपर लिखा जा चुका है कि पंचम स्वर में चार श्रुतियाँ होती हैं। उनमें से जब यह स्वर चौथी श्रुति में स्थित रहता है तब तत्संयुक्त स्वर-समूह आदिम पग्राम कहलाता है। वह यदि तीसरी श्रुति का आश्रित होता है तो तत्संयुक्त स्वर-समूह मध्य-ग्राम कहलाता है। मुश्किल यह है कि संगीत में थोड़ा-बहुत ज्ञान हुए बिना ये बातें अच्छी तरह समझ में नहीं जा सकतीं। अतएव इस विषय को बढ़ाना व्यर्थ है।

    स्वरों के यथानियम चढ़ाव उतार का नाम मूचर्छना है। अथवा यों कहिए कि यथाक्रम उतार चढ़ाव की क्रिया से नियमित किए गए स्वरों के समूह को मूचर्छना कहते हैं। प्रमाण—

    क्रमात्स्वराणां सप्तानामारोहञ्चावरोहणम्।

    मूर्च्छनेत्युच्यते ग्रामन्त्रये ताः सप्त सप्त च॥

    —संगीत-रत्नाकर

    मूर्च्छनाओं की उत्पत्ति ग्रामों से है। हर ग्राम में सात मूचर्छनाएँ होती हैं। अर्थात् पड्जग्राम में सात और मध्यम-ग्राम में भी सात इस तरह दोनों में मिलाकर 14 मूर्च्छनाएँ प्रधान हैं। इनके सिवा संगीत विशारदों ने गांधार-ग्राम की भी सात मूचर्छनाएँ मानी हैं। पर उनके उल्लेख की ज़रूरत नहीं। क्योंकि वे लौकिक संगीत में नहीं आती। पज-गाम की पहली मूचर्छना पड्ज से निषाद तक होती है; दूसरी नियाद से धैवत तक, तीसरी चैवत के पंचम तक। इसी तरह बाक़ी की भी आगे के स्वर से शुरू होकर पीछे के स्वर तक आती है। मध्यम-गाम की मूचर्छनाओं में से पहली मध्यम से शुरू होकर गांधार तक जाती है; शेव पूर्वोक्त क्रम से पड़ती उतरती है। यदि गांधारग्राम की मूचर्छनाएँ भी गिनती जाएँ तो सबकी संख्या 21 हो जाती है।

    यत्र स्वरो मूच्छित एवं रानतो प्राप्ताश्च तामाहरतस्य मूर्च्छनाम्

    ग्रामोद्भवास्तस्वरसम्प्रयुक्तास्ताना भवेयुः पुनरेक्तविंशतिः॥

    स्वर मूच्छित होकर रागता, अर्थात् राग-भाव को प्राप्त होते हैं।

    इसीलिए भी उनका नाम मूर्च्छना है। इस प्रकार संयुक्त हुए स्वरों के ग्रामों ही से तानों की उत्पत्ति हूँ। अर्थात् तानों की सृष्टि मूचर्छनाओं ही से है। और मूचर्छनाएँ 21 हैं। इसलिए भी 21 हैं। इनके दो भेद हैं—शुद्ध और कूट। इन दो भेदों में हज़ारों उपभेद हैं जिन सबका जानना और एक का दूसरे से पृथक्करण करना दुस्तर काम है।

    गान-क्रिया का नाम वर्ण भी है। उसके चार भेद हैं—स्थायी, आरोही, अवरोही और संचारी। प्रमाण—

    गान क्रियोच्यते वर्णः चतुर्द्धा निरूपितः।

    स्थाय्यारोह्यवरोही सञ्चारीत्यथ लक्षणम्॥

    अतएव गान-विद्या को भी एक प्रकार का काव्य कहना चाहिए; क्योंकि इसमें भी स्थायी और संचारी आदि भेद हैं। संगीत में स्वरों के प्रस्तार-विशेषों से अलंकारों की भी कल्पना की गई है। इससे स्पष्ट है कि संगीत शास्त्र ने इस देश में किसी समय कितनी उन्नति की थी। परंतु इन सब बातों का ज्ञान रखने और शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार गानेवाले, इस समय शायद ही दो-एक निकलें।

    [नवंबर, 1907 में प्रकाशित 'विज्ञान- यार्सा' पुस्तक में संकलित।]

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-2 (पृष्ठ 378)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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