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साहित्य और भाषा

sahitya aur bhasha

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

    भाषा-क्लिष्टता से संबंध रखने वाले प्रशन हिंदी की तरह अपर भाषाओं में नहीं उठते। हिंदी को राष्ट्र-भाषा मानने वाले या बनाने वाले लोग साल में तेरह बार आर्त चीत्कार करते हैं—भाषा सरल होनी चाहिए, जिससे आबाल-वृद्ध समझ सकें। मैंने आज तक किसी को यह कहते हुए नहीं सुना कि शिक्षा की भूमि विस्तृत होनी चाहिए, जिससे अनेक शब्दों का लोगों को ज्ञान हो, जनता क्रमशः ऊँचे सोपान पर चढ़े।

    हिंदी की सरलता के संबंध में बकवास करने वाले लोगों में अधिकांश को मैंने देखा—लिखते बहुत हैं, जानते बहुत थोड़ा हैं। कम-से-कम हिंदी से तो उनका तअल्लुक़ स्कूल से जब से छूटा, छूटा ही रहा। फिर हिंदी की विशेष शिक्षा प्राप्त करने की उन्हें ज़रूरत नहीं मालूम दी। ज़रूरत रही दूसरों को सिखलाने की। साधारण जनों का पक्ष लेकर वे बराबर अपने अज्ञान पर मिट्टी डालते रहे।

    एक सवाल राष्ट्र-भाषा द्वारा हिंदू-मुस्लिम ऐक्य का उठता है। इसके लिए भी हिंदी को भरसक असंस्कृत करने की ज़रूरत बतलाई जाती है, जैसे मुसलमानों में राष्ट्र-भाषा का सिक्का जम गया हो, और वे क्रमशः हिंदी-साहित्य के उदार उदर में प्रवेश कर रहे हों। हिंदोस्तानी एकेडमी के पदवीधर पदाधिकारियों की ऐसी ही राय है। वे लोग स्वयं कुछ हिंदी जानते हैं या नहीं, यह मत पूछिए; इसकी जाँच व्यर्थ है। उनकी राय सुन लीजिए। ऐसी भावना से प्रेरित हो कुछ कवियों ने क़लम के कुल्हाड़े से राष्ट्र-भाषा की लकड़ी से काव्य के कुछ चैले चीरे भी हैं, जिनके मुक़ाबले ‘शुष्कं काष्ठं तिष्ठति अग्रे’ बहुत सरस है। कुछ हो, राष्ट्र-भाषा का काव्य सरल तो है, लोग आसानी से समझ तो लेते हैं।

    यथार्थ साहित्य नेताओं के दिमाग़ के नपे-तुले विचारों की तरह, आय-व्यय की संख्या की तरह प्रकोष्ठों में बंद होकर नहीं निकलता। वह किसी उद्देश की पुष्टि के लिए नहीं आता, वह स्वयं सुष्टि है। इसलिए उसका फैलाव इतना है, जो किसी सीमा में नहीं आता। ऐसे ही साहित्य से राष्ट्र का यथार्थ कल्याण हुआ है। जब कुछ ख़ास आदमियों के कल्याण की बात सोची जाएगी, तब कुछ ख़ास आदमियों का अकल्याण भी साथ-साथ होगा। यह अनुल्लंघन दर्शन है। इसलिए बृहत् साहित्य यानी ऊँचे भावों से भरा हुआ साहित्य कभी देश, काल या संख्या में नहीं रहा, और उसी से देश, काल और संख्या का अब तक यथार्थ कल्याण हुआ है। उन प्राचीन बड़े-बड़े साहित्यिकों की भाषा कभी जनता की भाषा नहीं रही। सोलह आने में चार आने जनता के लायक़ रहना साहित्य का ही स्वभाव है। क्योंकि सब तरह की अभिव्यक्तियाँ साहित्य में होती हैं। तुलसीकृत रामायण का हमारे यहाँ सब पुस्तकों से ज़्यादा प्रचार है, दूसरी किताब समाप्त होने से पहले ही लड़कियाँ सुंदरकांड खोलकर “जामवंत के वचन सुहाए सुनि हनुमान-हृदय अति भाए।” पढ़ने लगती हैं। इसके मानी यह नहीं कि तुलसीदासजी ने बड़ी सीधी भाषा में रामायण था अपने दूसरे ग्रंथ लिखे हैं। रामायण कहीं-कहीं, जहाँ जैसे कठिन भाव आए हैं, इतनी मुश्किल है कि अच्छे-अच्छे विद्वानों के छक्के छुट जाते हैं। इसके अलावा साद्यंत रामायण सालंकार है। यह सब साधारण लोग समझ सकते हैं, यह कभी कहेगा। रामायण के प्रचार का कारण रामचरित है, जिसका हज़ारों वर्ष पहले से अनेकानेक रामायणों तथा कथाओं द्वारा प्रचार होता आया है। संस्कार यहाँ के लोगों के ऐसे ही बन गए हैं। क्लिष्टता के बारे में ही यही हाल सूरदासजी की कविता का भी है। वे भी कम मुश्किल नहीं। अलंकारों के सिवा एक क़दम नहीं उठाते।—

    “अद्भुत एक अनूपम बाग़।

    युगल कमल पर गजवर क्रीड़त तापर सिंह करत अनुराग।”

    यह सब साधारण जनों की समझ में आने लायक़ काव्य नहीं। कबीर तो अपनी विशेषता में और मुश्किल है। पंडित होते हुए भी अलंकार लिखते हैं। केशव अपनी क्लिष्टता के लिए काफ़ी बदनाम हैं। ये चार हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। बिहारी की ठेठ देहाती बग़ैर टीका देखे मैं अब भी नहीं समझ पाता। उर्दू के ग़ालिब मुश्किल लिखने के लिए काफ़ी बदनाम थे। पर वही उसके सर्वश्रेष्ठ महाकवि हैं। शेक्सपियर के गीतों के भाव गहन, भाषा तदनुकूल है। शेली की भाषा और भी लच्छेदार। रवींद्रनाथ भी इसके लिए कम बदनाम नहीं थे। वह मुश्किल-आसान दोनों तरह की भाषा लिखते हैं, पर भाव साधारण जन नहीं समझ सकते। एक बार ‘चरका’ प्रबंध में उन्होंने महात्माजी पर जो आक्षेप किया था, उसकी दिल्लगी तथा पेचीदे भाव पर महात्माजी ने अपने लोगों को समेटकर समझाया था कि तुम लोग उसका अर्थ कुछ-का-कुछ समझ लोगे। अर्थात् महात्माजी के लोग इतने पुष्ट विचारों के हैं! फिर नेतृत्व का एक संस्कार भी होता है, जो चेतन को जड़ और समझदार को मूर्ख मानता है।

    अस्तु। बड़े-बड़े साहित्यिकों ने प्रकृति के अनुकूल ही भाषा लिखी है। कठिन भावों को व्यक्त करने में प्रायः भाषा भी कठिन हो गई है। जो मनुष्य जितना गहरा है, वह भाव तथा भाषा की उतनी ही गंभीरता तक पैठ सकता है, और पैठता है। साहित्य में भावों की उच्चता का ही विचार रखना चाहिए। भाषा भावों की अनुगामिनी है।

    जनता को तरह-तरह की अहितकर अनुकूल सीख देकर कुछ परिश्रम करने के लिए ही कहना ठीक होगा। जिनको संधि-समास का भी ज्ञान नहीं, ऊँचे साहित्य की सृष्टि उनके लिए नहीं, “Words, in one syllable” असमस्त शब्दों की किताबें लिखने से राष्ट्र-भाषा का उद्धार हुआ जाता है।

    जो लोग समय को देखते हुए अपनी पुस्तकों या पत्रों के प्रचार के लिए उनमें साधारण भाषा और सरल भावों के रखने का प्रयत्न करते हैं, वे ऐसा व्यवसाय की दृष्टि से करते हैं। यह हिंदी का हित हुआ। हित तो गहन शिक्षा द्वारा ही होगा।

    हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के लिए ललित शब्दावली की टाँग तोड़कर लँगड़ी कर देने से लड़खड़ाती हुई भाषा अपनी प्रगति में पीछे ही रहेगी। हमारा यह अभिप्राय भी नहीं कि भाषा मुश्किल लिखी जाए; नहीं, उसका प्रवाह भावों के अनुकूल ही रहना चाहिए। आप निकली हुई और गढ़ी हुई भाषा छिपती नहीं। भावानुसारिणी कुछ मुश्किल होने पर भी भाषा समझ में जाती है। उसके लिए कोष देखने की ज़रूरत नहीं होती। जिस तरह हिंदी के लिए कहा जाता है कि वह अधिकसंख्यक लोगों की भाषा है, उसी तरह यदि अधिक संख्या उसकी योग्यता को भी मिलेगी, तो योग्यतम की विजय में फिर कोई असंभाव्यता रह जाएगी। इसके लिए भी भाषा-साहित्य में अधिकाधिक प्रसार की आवश्यकता है। जो लोग साधारण भाषा के प्रेमी हैं, उनके लिए साधारण पुस्तकें रहेंगी ही। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पुस्तकों की तरह भाषा-साहित्य का भी स्तर तैयार रहेगा।

    प्रायः यह शिकायत होती है कि छायावादी कविताएँ समझ में नहीं आती; उनके लिखने वाले भी नहीं समझते, समझा पाते हैं। इस तरह के आक्षेप हिंदी के उत्तरदायी लेखक तथा संपादकगण किया करते हैं। कमज़ोरी यहीं पर है। हिंदी में बहुत-से लोग ऐसे भी हैं, जो छायावादी कविताएँ समझते हैं। उन्होंने समर्थन भी किया है। मैं अपनी तरफ़ से इतना ही कहूँगा कि छायावाद की कविताएँ भाषा-साहित्य के विकास के विचार से अधिक विकसित रूप हैं! जहाँ-जहाँ उन कविताओं में ख़ूबी गई है, वहाँ-वहाँ बहुत अच्छी तरह यह प्रमाण मिल जाता है। जिन स्थानों में धुँधलापन है, भावों का अच्छा प्रकाशन नहीं हुआ, चित्र चमकते हुए नहीं नज़र आते, वहाँ सामयिक दुर्बलता है, जिससे आगे बढ़ने की साहित्य तथा साहित्यिकों को ज़रूरत है। जो लोग यह कहते हैं कि खड़ी बोली की कुछ प्राचीन काल की कृतियों की तुलना में आधुनिक कविताएँ (मेरा मतलब दोनों समय की अच्छी कविताओं से है) नहीं ठहरतीं, मैं उन्हें अत्युक्ति करते हुए समझता हूँ। मुझे दृढ़ विश्वास है, यह मेरी नहीं, उन्हीं की अल्पज्ञता है। वे साहित्य के साथ अन्याय करते हैं।

    ग़ैर लोगों को अपने में मिलाने का तरीक़ा भाषा को आसान करना नहीं, मधुर करना, उसमें व्यापक भाव भरना और उसी के अनुसार चलना है। ब्रज-भाषा भाषा-साहित्य के विचार से बड़ी मधुर भाषा है। उसके शब्द टूटते हुए इतने मुलायम हो गए हैं, जिससे अधिक कोमलता नहीं सकती। ब्रज-भाषा का प्रभाव तमाम आर्यावर्त तथा दाक्षिणात्य तक रहा है। सभी प्रदेशों के लोग उसकी मधुरता के क़ायल थे। बँगला, गुजराती, मराठी आदि भाषाओँ में उसकी छाप मिलती है। ब्रज-भाषा-साहित्य के अंग के अपर प्रांत वाले लोग भी अपनी भाषा को ब्रज-भाषा की तरह, उसी तूलिका से, मधु-सिक्त कर देते हैं। यही साधना वर्तमान खड़ी बोली के लिए ज़रूरी है। पहले के अनेक मुसलमान-कवि ब्रज-भाषा के रंग में रंग गए थे। उनके पद्य हिंदू-कवियों के पद्यों से अधिक मधुर हो रहे हैं। यही स्वाभाविक खिंचाव खड़ी बोली की कोमलता तथा व्यापकता में आना चाहिए। अच्छे को अधिकांश लोग अच्छा कहते हैं। यों तूल-तकरारवाली बातें तो हैं ही, और होती ही रहेंगी, प्रचार का इससे अच्छा उपाय आज तक संसार में दूसरा नहीं हुआ। जितने भी धर्म प्रचारित किए गए, सब अपनी व्यापकता तथा सहृदयता के बल पर फैले। उनकी साधारण युक्तियाँ मृदुल, जल्द समझ में आने वाली, आलोचनाएँ तथा अपर सभ्य अंग वैसे ही गहन, अगाध विद्वता से भरे हुए। हिंदी के लिए एक तरह की आवाज़ उठाने से अच्छा अनेक तरह का प्रदर्शन है, क्योंकि इससे कुछ प्राप्त होता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रबंध-पद्म (चुने हुए साहित्यिक निबंध) (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
    • प्रकाशन : गंगा फ़ाइन आर्ट प्रेस
    • संस्करण : 1934

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