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अपने तौर पर

apne taur par

बालमुकुंद गुप्त

अन्य

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बालमुकुंद गुप्त

अपने तौर पर

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    हमारे द्विवेदी जी दूसरों के माल का उपयोग 'अपने तौर' पर करना ख़ूब जानते हैं। मैक्समूलर आदि के भाषा-विज्ञान के पढ़ने से जो संस्कार आपके चित्त पर हुआ था, उसे 'आप अपने तौर पर' लिखने की बात फ़रवरी में कह चुके थे। मार्च में फिर वही 'तौर' चला। दो सज्जनों ने आपके पास 'प्रताप चरित' लिख भेजा। आप ताक में थे ही, आपने उस 'सामग्री का उपयोग अपने तौर पर' कर डाला। धीरे-धीरे आपका 'तौर' चंगेज़ और तैमूर का 'तौरा' हुआ जाता है।

    कहते हैं कि आपके उस लेख से हिंदी के कवि और सुलेखकों की पसलियाँ फड़क उठीं। स्वर्ग में प्रताप की आत्मा तड़प गई। कलकत्ते में बनियों की गद्दी-गद्दी और साहिबों के आफिस-आफिस के कन्नौजिया दादा कह रहे हैं कि द्विवेदी जी ने प्रताप की जीवनी लिखकर हमारी जाति का एक कलंक धो डाला।

    इस ऊँचे दर्जे के लेख की अधिक प्रशंसा तो इस समय हो नहीं सकती। एक चावल से ही बिलफैल पाठकों को बटलोई भर का हाल जानना होगा द्विवेदी महाराज ने उस लेख में प्रताप के रूप-रवैये का एक विलक्षण चित्र खेंचकर प्रताप की ओर इशारा करके लिखा है—आप अपने रूप आदि की तारीफ़ में कहते हैं—

    कौसिक कुल अवतंस श्री मिश्र संकटादीन।

    जिन निज बुधि विद्याविभव वंश प्रशंसित कीन॥

    तासु तनय परताप हरि परम रसिक बुधराज।

    सुधर रूप सत कवित्त बिन, जिहि रुचत कछु काज॥

    प्रेम परायन सुजन प्रिय सुहृदय नवरस सिद्ध।

    निजता निज भाषा विषय अभिमानी परसिद्ध॥

    श्री मुख जासु सराहना किन्ही श्री हरिचंद।

    तासु कलम करतूति लखि लहै को आनंद॥

    ये चार दोहे द्विवेदी जी ने प्रताप के 'सर्गांत शाकुंतल' से नक़ल किए हैं। पाठक, ज़रा इसके अर्थ पर ध्यान दें और द्विवेदी जी की अक़ल का 'तौर' देखें। आपकी अजीब अक़ल इसमें प्रताप के रूप आदि की तारीफ़ तलाश करती है। आप फरमाते हैं—'नाटक की प्रस्तावना में कवि का अपने ही मुँह अपनी ही तारीफ़ करना अनुचित नहीं। पर यहाँ पंडित प्रताप नारायण ने मतलब से कुछ ज़्यादा अपनी तारीफ़ की है और अपने को पंडितवर लिखा है। परम रसिक, सहृदय और नवरससिद्ध इत्यादि विशेषण तो ठीक ही है। 'पर 'सुधररूप' में विलक्षणता है।'

    कवि दौड़ें! कविता के समझने वाले दौड़े। झट से आग में राई नून डालें। द्विवेदी जी के बाद कविताफ़हमी का मैदान साफ़ है। फिर ऐसे समझदार कहाँ लाखों वर्षों में पृथ्वी कभी कोई ऐसा लाल उगल देती है। पहला दोहा साफ़ ही है। उसमें कवि अपने वंश और पिता की प्रशंसा करता है। दूसरे दोहे में वह अपनी प्रशंसा करता है। उसके एक चरण के अर्थ तक भी हमारे ख़ुशफ़हम जीवनी लेखक 'ठीक ही है' मानते हैं। आप समझते हैं कि 'सुधररूप' प्रताप ने अपने ही को कहा है। उधर जनाम लिख चुके हैं कि प्रताप की 'नाक बहुत बड़ी थी', 'दिनभर नाम फाँका करती थी' तिस पर भी प्रताप 'सुधररूप' कभी वह आईने में अपना मुँह भी देखा करता था या नहीं? कान्यकुब्जों में आईना देखना मना तो नहीं है?

    द्विवेदी जी प्रश्न है कि जनाबे आली! बहुत भाषाएँ आप पढ़ गए, बहुत तरह की कविताएँ देख गए। कभी किसी भाषा के कवि को आपने अपने रूप की प्रशंसा करते भी देखा? अथवा कन्नौजियों ही में ऐसे बुद्धिसागर होते हैं कि 'बहुत बड़ी' और 'दिनभर नास फाँकने वाली' नाक चेहरे पर चिपकाकर भी अपने को सुधररूप समझते हैं? सच तो यह है कि इस दास की आलोचना ने आपको एकदम बौखला दिया। आपने यह जानकर कि यह दास भारतमित्र संपादक है और भारतमित्र संपादक का प्रताप जी से सत्संग रहा है, प्रताप की ओर से भी जी में ग़ुबार पैदा कर लिया और लगे उसकी कविता को और ही दृष्टि से देखने ज़रा ग़ुबार दूर करके एक बार प्रताप की कविता पर फिर ध्यान दीजिए देखिए वह अपने रूप की प्रशंसा नहीं करता है। वह कहता है—'उसका बेटा प्रताप हरि परम रसिक बुधराज है। जिसे सुधर रूप और सत्कविता के बिना कोई काम नहीं रुचता।' प्रताप यह नहीं कहता कि मेरा रूप सुधर है, वरन् वह कहता कि अच्छे रूप और अच्छी कविता के बिना मुझे कुछ नहीं रुचता। कवि सदा अच्छी सूरतों के दिवाने होते हैं। अंधे होने पर भी सूर ने अपने रूप के लालची नैनों के पचासों पद लिख डाले एक कवि कहता है—

    नैन हमारे लालची तनक मानत सीख,

    जहँ जहँ देखत रूप रस तंह तंह माँगत भीख॥

    हुस्न परस्ती को कवि अपनी कविता का कमाल समझते हैं। हुस्न परस्ती करना और कविता में कमाल पैदा करना कवि एक ही समझते हैं। इसी से जो लोग कविता समझने की बुद्धि रखने पर भी उसमें दख़ल दरमाकूलात करते हैं, उनके लिए 'ग़ालिब' कहता है—

    हरबुल हवस ने हुस्नपरस्ती किया शआर। अब आबरुये शेवये अहले नज़र गई।

    अर्थ है—हरबुल हवस (जो जिस विषय को नहीं जानता, पर उसमें दूसरों की देखा-देखी दख़ल देना चाहता है) अपने को हुस्नपरस्त कहने लगा, इससे जो सच्ची नज़र रखने वाले हैं, उनके काम की इज़्ज़त गई। अर्थात् ना-समझों ने कविता में दख़ल देकर समझदारों की इज़्ज़त खोई। हिंदी में जिनकी यह समझ है, वह मैक्समूलर और हर्बर्ट स्पेंसर समझते हैं, यही मज़ेदारी है।

    यदि द्विवेदी जी चाहें तो यह बात कविवर 'पूर्ण' से समझ सकते हैं। वह आपसे दूर नहीं है। कल्लू के आल्हे और शुकल की हाईकोर्ट की ज़रूरत पड़ेगी।

    —आत्माराम

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 135)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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