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स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

istri shiksha ke virodhi kutarkon ka khanDan

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    रोचक तथ्य

    इसके पूर्व संकलित निबंध पर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में विरोध में बहस-तलब छपे थे उन लेखों के पंडितों ने स्त्री-शिक्षा के विरोध में कई तर्क दिए थे। द्विवेदी ने उन सभी को एक साथ इस लेख में उत्तर दिया है।—भारत यायावर

    बड़े शोक की बात है, आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। और लोग भी ऐसे वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग—ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बड़े स्कूलों और शायद कॉलेजों में भी शिक्षा पाई है, जो धर्मशास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को शिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मिकों को धर्मतत्त्व समझाना है। उनकी दलीलें सुन लीजिए—

    (1) पुराने संस्कृत-कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियों से अपढ़ों की भाषा में बातें कराई गई हैं। इससे प्रमाणित है कि इस देश में स्त्रियों को पढ़ाने की चाल थी। होती तो इतिहास-पुराणादि में उनको पढ़ाने की नियम-बद्ध प्रणाली ज़रूर लिखी मिलती।

    (2) स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं। शकुंतला इतना कम पढ़ी थी कि गँवारों की भाषा में मुश्किल से एक छोटा-सा श्लोक वह लिख सकी थी। तिस पर भी उसकी इस इतनी कम शिक्षा ने भी अनर्थ कर डाला। शकुंतला ने जो कटु वाक्य दुष्यंत को कहे, वह इस पढ़ाई का ही दुष्परिणाम था।

    (3) जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक रचा था वह अपढ़ों की भाषा थी। अतएव नागरिकों की भाषा की बात तो दूर रही, अपढ़ गँवारों की भी भाषा पढ़ाना स्त्रियों को बरबाद करना है।

    इस तरह की दलीलों का सबसे अधिक प्रभावशाली उत्तर उपेक्षा ही है। तथापि हम दो चार बातें लिखे देते हैं।

    नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत बोलना उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं। अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत बोल सकती थीं। संस्कृत बोल सकना अपढ़ होने का सबूत है और गँवार होने का। वाल्मीकि रामायण के तो बंदर तक संस्कृत बोलते हैं। बंदर संस्कृत बोल सकते थे, स्त्रियाँ बोल सकती थीं! अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की वेदांत-वादिनी पलियाँ कौन-सी भाषा बोलती थीं? उनकी संस्कृत क्या कोई गँवारी संस्कृत थी? भवभूति और कालिदास आदि के नाटक जिस ज़माने के हैं उस ज़माने में शिक्षितों का समस्त समुदाय संस्कृत ही बोलता था, इसका प्रमाण पहले कोई दे ले तब प्राकृत बोलने वाली स्त्रियों को अपढ़ बताने का साहस करे। इसका क्या सबूत कि उस ज़माने में बोलचाल की प्रचलित भाषा होती तो बौद्धों तथा जैनों के हज़ारों ग्रंथ उसमें क्यों लिखे जाते, भाषा प्राकृत थी? सबूत तो प्राकृत के चलन के ही मिलते हैं। प्राकृत यदि उस समय और भगवान् शाक्य मुनि तथा उनके चेले प्राकृत ही में क्यों धर्मोपदेश देते? बौद्धों का ‘त्रिपिटक’ हमारे महाभारत से भी बड़ा है। उसकी रचना प्राकृत में की जाने का एक मात्र एक मात्र कारण यही है कि उस ज़माने में प्राकृत ही सर्व साधारण की भाषा थी। अतएव प्राकृत बोलना और लिखना अपढ़ और अशिक्षित होने का चिह्न नहीं। जिन 'पंडितों ने 'गाथा सप्तशती', 'सेतुबंध-महाकाव्य' और 'कुमारपालचरित' आदि। प्राकृत में बनाए हैं वे यदि अपढ़ और गँवार थे तो हिंदी के प्रसिद्ध से भी प्रसिद्ध अख़बार का संपादक इस ज़माने में अपढ़ और गँवार कहा जा सकता है; क्योंकि वह अपने ज़माने की प्रचलित भाषा में अख़बार लिखता है। हिंदी, बँगला आदि भाषा आज की प्राकृत है, शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्री और पाली आदि भाषाएँ उन ज़माने की थीं। प्राकृत पढ़कर भी उस ज़माने में लोग उसी तरह सभ्य, शिक्षित और पंडित हो सकते थे जिस तरह कि हिंदी, बँगला, मराठी आदि भाषाएँ पढ़कर इस ज़माने में हम हो सकते हैं। फिर प्राकृत बोलना अपढ़ होने का सबूत है, यह बात मानी जा सकती है?

    जिस समय आचार्यों ने नाट्य-शास्त्र-संबंधी नियम बनाए थे उस समय सर्व-साधारण की भाषा संस्कृत थी। चुने हुए लोग ही संस्कृत बोलते या बोल सकते थे। इसी से उन्होंने उनको भाषा संस्कृत और दूसरे लोगों तथा स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम कर दिया।

    पुराने ज़माने में स्त्रियों के लिए कोई विश्वविद्यालय था। फिर नियमबद्ध प्रणाली का उल्लेख आदि पुराणों में मिले तो क्या आश्चर्य। और, उल्लेख उसका नहीं रहा हो, पर नष्ट हो गया हो तो? पुराने ज़माने में विमान उड़ते थे। बताइए उनके बनाने की विद्या सिखाने वाला कोई शास्त्र! बड़े-बड़े जहाज़ों पर सवार होकर जोगीपांतरों को जाते थे। दिखाइए, जहाज़ बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के दर्शक ग्रंथ! पुराणादि में विमानों और जहाज़ों द्वारा की गई यात्राओं के हवाले देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं, परंतु पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ पंडिताओं के नामोल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख अपढ़ और गँवार बताते हैं! इस तर्कशास्त्रज्ञता और इस न्यायशीलता की बलिहारी! वेदों को प्रायः सभी हिंदू ईश्वर-कृत मानते हैं। सो ईश्वर तो वेद-मंत्रों की रचना अथवा उनका दर्शन विश्ववरा आदि स्त्रियों से करावे और हम उन्हें ककहरा पढ़ाना भी पाप समझे। कला और बिना आदि कौन थी? वे स्त्री थी या नहीं? बड़े-बड़े पुरुष कवियों से आदृत हुई है या नहीं? 'शारंगधर-पद्धति में उनकी कविता के नमूने हैं या नहीं? बौद्ध-ग्रंथ ‘त्रिपिटक’ के अंतर्गत थेरीगाथा में जिन सैकड़ों स्त्रियों की पद्य-रचना उद्धृत है वे क्या अपढ़ थीं? जिस भारत में कुमारिकाओं को चित्र बनाने, नाचने, गाने, बजाने फूल चुनने, हारने, पैर मलने तक की कला सीखने की आज्ञा थी उनको लिखने-पढ़ने की आज्ञा थी! कौन विज्ञ ऐसी बात मुख से निकालेगा? और, कोई निकाले भी तो मानेगा कौन?

    अत्रि की पत्नी पत्नी धर्म पर व्याख्यान देते समय घंटों पांडित्य प्रकट करे, मार्गी बड़े-बड़े ब्रह्मवादियों को हरा दे, मंडन मिश्र की सह-धर्मचारिणी शंकराचार्य के छक्के छुटा दे! ग़ज़ब! इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो सकेगी! यह सब पापी पढ़ने का अपराध है। वे पढ़तीं वे पूजनीय पुरुषों का मुक़ाबला करतीं। यह सारा दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने ही का कुफल है। समझे! एम० ए०, बी० ए०, शास्त्री और आचार्य होकर पुरुष जो स्त्रियों पर हंटर फटकारते हैं और डंडों से उनकी ख़बर लेते है वह सारा सदाचार पुरुषों की पढ़ाई का सुफल है! स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घूँट! ऐसी ही दलीलों और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़ रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं!

    मान लीजिए कि पुराने ज़माने में भारत की एक भी स्त्री पढ़ी लिखी थी। सहीं। उस समय स्त्रियों को पढ़ाने की ज़रूरत समझी गई होगी। पर अब तो है। अतएव पढ़ाना चाहिए। हमने सैकड़ों पुराने नियमों, आदेशों और प्रणालियों को तोड़ दिया है या नहीं? तो चलिए, स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ दें। हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री-शिक्षा के विपक्षियों को क्षण भर के लिए भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान देना चाहिए कि पुराने ज़माने में यहाँ की सारी स्त्रियाँ अपढ़ थीं अथवा उन्हें पढ़ने की आज्ञा थी। जो लोग पुराणों में पढ़ी-लिखी स्त्रियों के हवाले माँगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत, दशम स्कंध, के उत्तरार्द्ध का वेपनवां अध्याय पढ़ना चाहिए। उसमें रुक्मिणी हरण की कथा है। रुक्मिणी ने जो एक लंबा-चौड़ा प्रेम-पत्र (Loveletter) एकांत में लिखकर एक ब्राह्मण के हाथ, श्रीकृष्ण को भेजा था वह तो प्राकृत में था। उसके प्राकृत में होने का उल्लेख भागवत में तो नहीं। उसमें रुक्मिणी ने जो पांडित्य दिखाया है वह उसके अपढ़ और अल्पज्ञ होने अथवा गँवारपन का सूचक नहीं। पुराने ढंग के पक्के सनातन धर्मावलबियों की दृष्टि में तो नाटकों की अपेक्षा भागवत का महत्त्व बहुत ही अधिक होना चाहिए। इस दशा में यदि उनमें से कोई यह कहे कि सभी प्राक्कालीन स्त्रियाँ अपढ़ होती थीं तो उसकी बात पर विश्वास करने की ज़रूरत नहीं। भागवत की बात यदि पुराणकार या कवि की कल्पना मानी जाए तो नाटकों की बात उससे भी नई बीती समझी जानी चाहिए।

    स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा ही का परिणाम समझना चाहिए। बम के गोले फेंकना, नरहत्या करना, डाके डालना, चोरियाँ करना, घूस लेना, व्यभिचार करना—यह सब यदि पढ़ने-लिखने ही का परिणाम हो तो ये सारे कॉलेज, स्कूल और पाठशालाएँ बंद हो जानी चाहिए। परंतु विक्षिप्तों, वातव्यथितों और ग्रहग्रस्तों के सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे। शकुंतला ने दुष्यंत को कटु वाक्य कहकर कौन-सी अस्वाभाविकता दिखाई? क्या वह यह कहती कि आर्य पुत्र, शाबाश! बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ गांधर्व विवाह करके मुकर गए। नीति, न्याय, सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं! पत्नी पर घोर से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी आशा रखते हैं वे मनुष्य-स्वभाव का किंचित् भी ज्ञान नहीं रखते। सीता से अधिक साध्वी स्त्री नहीं सुनी गई। जिस कवि ने 'शकुंतला' नाटक में अपमानित हुई शकुंतला से दुष्यंत के विषय में दुर्वाक्य कहलाया है उसी ने परित्यक्त होने पर सीता से रामचंद्र के विषय में क्या कहाया है, सुनिए—

    वाच्यस्त्वया मद्वचनात् राजा—

    वह्नी विशुद्धामपि यत्समक्षम्।

    मां लोकवाद श्रवणादहासोः

    श्रुतस्य तत्किं सदृशं कुलस्य?

    लक्ष्मण! ज़रा उस राजा से कह देना कि मैंने तो तुम्हारी आँख के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। तिस तर भी, लोगों के मुख से निकला मिथ्यावाद सुनकर ही, तुमने मुझे छोड़ दिया! क्या यह बात तुम्हारे कुल के अनुरूप है? अथवा क्या यह तुम्हारी विद्वत्ता या महत्ता को शोभा देने वाली है? अर्थात् तुम्हारा यह अन्याय तुम्हारे कुल, शील, पांडित्य सभी पर बट्टा लगाने वाला है।

    सीता का यह संदेश कटु नहीं तो क्या मीठा है? रामचंद्र के कुल पर भी कलंकारोपण करना छोटी निर्भर्त्सना नहीं। सीता ने तो रामचंद्र को नाथ, देव, आर्यपुत्र आदि कहे जाने योग्य भी नहीं समझा 'राजा' मात्र कहकर उनके पास अपना संदेशा भेजा। यह उक्ति किसी वेश्या पुत्री की है, किसी गँवार स्त्री की किंतु महाब्रह्म-ज्ञानी राजा जनक की लड़की और मन्वादि महर्षियों के धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी की—

    नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत्

    एव धम्म मनुना प्रणीतः

    सीता की धर्मशास्त्रज्ञता का यह प्रमाण वहीं, आगे चलकर, कुछ ही दूर पर, कवि ने दिया है। सीता परित्याग के कारण वाल्मीकि के समान शांत, नीति और क्षमाशील तपस्वी तक ने अस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे' कहकर रामचंद्र पर क्रोध किया है। अतएव, शकुंतला की तरह, पति द्वारा अपने त्याग को अन्याय समझने वाली सीता का, रामचंद्र के विषय में, कटुवाक्य कहना सर्वथा स्वाभाविक है। यह पढ़ने-लिखने का परिणाम है गँवारपन का, अकुलीनता का।

    पढ़ने-लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके। अनर्थ का बीज उसमें हरगिज़ नहीं। अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। आप और पढ़े-लिखों, दोनों से। अनर्थ, दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं और वे व्यक्ति-विशेष का चाल चलन देखकर जाने भी जा सकते हैं। अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए। जो लोग यह कहते हैं कि पुराने ज़माने में यहाँ स्त्रियाँ पढ़ती थीं अथवा उन्हें पढ़ने की नियत भी वे या तो इतिहास से अभिज्ञता नहीं रखते या जान बूझकर लोगों को धोखा देते हैं। समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय हैं। क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है—समाज की उन्नति में बाधा डालना है।

    'शिक्षा' बहुत व्यापक शब्द है। उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है। पढ़ना-लिखना भी उसी के अंतर्गत है। इस देश की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली अच्छी नहीं। इस कारण यदि कोई स्त्रियों को पढ़ाना अनर्थकारी समझे तो उसे उस प्रणाली का संशोधन करना या कराना चाहिए, ख़ुद पढ़ने-लिखने को दोष देना चाहिए। लड़कों ही की शिक्षा-प्रणाली कौन बड़ी अच्छी है। प्रणाली बुरी होने के कारण क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए जाएँ? आप ख़ुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा को प्रणाली का संशोधन कीजिए। उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए, कितना पढ़ाना चाहिए, किस तरह की शिक्षा देना चाहिए और कहाँ पर देना चाहिए—घर में या स्कूल में—इन सब बातों पर बहस कीजिए, विचार कीजिए, जी में आवे सो कीजिए; पर परमेश्वर के लिए यह कहिए कि स्वयं पढ़ने-लिखने में कोई दोष है—वह अनर्थकर है, वह अभिमान का उत्पादक है, वह गृह-सुख का नाश करने वाला है। ऐसा कहना सोलहों आने मिथ्या है।

    सितंबर, 1914 को 'सरस्वती' में 'पढ़े-लिखों का पांडित्य’ शीर्षक से प्रकाशित।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-7 (पृष्ठ 153)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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