साहित्यिक चंद्रमा

sahityik chandrma

वियोगी हरि

वियोगी हरि

साहित्यिक चंद्रमा

वियोगी हरि

और अधिकवियोगी हरि

     

    चंद्रमा पृथ्वी से कितनी दूरी पर है। उसका क्षेत्रफल क्या है, किससे प्रकाश पाता है आदि बातें जाननी हैं, तो ज्योति-विज्ञानियों से पूछिए, वे सर्वज्ञ हैं। आकाश-पाताल एक कर रहे हैं। इतना ही नहीं, उनके हाथ में ईश्वर की अस्ति तक का भाग्यनिर्णय है!

    हमें इन सब प्रश्नों से कुछ मतलब नहीं! आग जाने, लुहार जाने। हम तो उस चंद्र की चर्चा चलाने आए हैं, जो साहित्य-संसार का शृंगार, संयोगियों का सुधासार, वियोगियो का विषागार, उपमाओं का भंडार एवं कल्पनाओं का आधार है। हमारे चंद्रमा का जन्म समुद्र से हुआ है। वह कुमुद-बांधव तथा रोहिणी-वल्लभ है। लक्ष्मी माता का सगा सहोदर होने से हम लोग उसे 'चंदा मामा' भी कहते हैं। साहित्य-विज्ञान में द्विजराज, सुधाकर, मृगलांछन आदि अनेक नामों से उसका उल्लेख किया गया है। वह भगवान भूतभावन की भाल स्थली का भव्य भूषण है। विष्णु का मन ही है। चंद्रमा न होता तो बेचारे कवि नायक नायिका के मुख-मंडल की तुलना किससे करते? भली-बुरी बातें किसे सुनाते? कुमुद और चकोर की प्रीति किसके साथ जोड़ते? और तो और, यामिनी-कामिनी का पाणिग्रहण किससे कराते?

    संस्कृत-साहित्य में चंद्रमा को लक्ष्य कर कवियों ने पृष्ठ के पृष्ठ रंग डाले हैं, श्रीहर्ष का चंद्रोपालंभ अद्वितीय और अपूर्व है। कालिदास और भवभूति ने भी कहीं-कहीं इस विषय पर क़लम तोड़ दी है। ‘काव्य-प्रकाश’, ‘साहित्य-दर्पण’ एवं ‘रस-गंगाधर’ प्रभृति ग्रंथों में चंद्र पर ऐसी-ऐसी साहित्यिक सूझें मिलती हैं कि जिन्हें पढ़कर हृदय मंत्रमुग्धवत् हो जाता है। वास्तव में कवियों के लिए चंद्रमा एक ऐसा आवश्यक अंग हो गया है कि जिसके बिना संयोग या वियोग शृंगार में चमत्कार आ ही नहीं सकता। इस पर जितनी उपमाएँ और उत्प्रेक्षाएँ मिलती हैं, उतनी कदाचित् ही किसी दूसरे विषय पर हों। संस्कृत के एक कवि ने उत्प्रेक्षाओं की क्या ही अनोखी और चोखी माला गूँथी है—

    लक्ष्मीक्रीड़ातड़ागो, रतिधवलगृहं दर्पणो दिग्वधूनां।
    पुष्पं श्यामालतायात्रिभुवनजयिनो मन्मथस्यातपत्रम्।
    पिंडीभूतं हरस्य स्मितममरसरित्पुंडरीको, मृगांकः
    ज्योंत्स्नापीयूषवापी जयति सितवृषस्तारको गोकुलस्य॥

    जान पड़ता है, यह चंद्रमा भगवती लक्ष्मी का केलि-सरोवर है अथवा त्रिलोक सुंदरी रति का धवल धाम है; या दिशारूपी ललनाओं के मुख देखने का स्वच्छ दर्पण या निशारूपी श्यामा लता का श्वेत पुष्प तो नहीं है? संभव है। यह कामदेव का श्वेत क्षत्र या भगवान भूतनाथ का पिंडीभूत अट्टहास्य हो। कहीं आकाश-गंगा में विकसित कमल का फूल न हो! हो न हो, यह कौमुदी-रूपी सुधा का सरोवर है। हमें तो यह निश्चय होता है कि तारारूपी गौओं के बीच में यह एक सुंदर सफ़ेद बैल है।

    ख़ूब! एक से एक बढ़कर सूझ से काम लिया गया है। आकाश-पाताल को एक कर दिया है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने, चंद्रमा पर, क्या ही सुंदर कल्पनाओं से काम लिया है—

    हसो यथा राजतपंजरस्थ सिंहो यथा मदरकदरस्थः।
    वीरो यथा गर्वितकुंजरस्थश्चंद्रोऽपि बभ्राज तथांवरस्थः॥

    पिजड़े के भीतर जैसे हंस, मंदराचल की गुफा में जैसे सिंह तथा मतवाले हाथी पर जैसे शूरवीर शोभायमान होता है, उसी प्रकार आकाश के बीच में चंद्रमा विराजमान हो रहा है। 'सिंहो यथा मदरकदरस्थः' की छाया पर गुसाईं तुलसीदास ने 'पूरब दिसि-गिरिगुहा-निवासी' लिखकर 'यद्रामायणे निगदितं' यह अपना प्रवचन सिद्ध किया है। कवि-कल्पना के आचार्य केशवदास ने भी चंद्रमा का विलक्षण वर्णन किया है—

    फूलन की सुभ गेद नई। सूँघि सचो जनु डारि दई॥
    दर्पन सौ ससि श्री रति को। आसन काम महीपति को॥
    मोतिन को श्रुति-भूषन भनो। भूलि गईरवि की तिय मनो॥
    अंगद को पितु सौ सुनिए। सोहत तारहि संग लिए॥
    भूप मनोभव छत्र धरेउ। लोक वियोगिन को बिड़रेउ॥
    देवनदी-जल राम कह्यो। मानहुँ फूलि सरोज रह्यो॥
    फेन किधौं नभ-सिंधु लसै। देवनदी-जल हंस बसै॥
    चारु-चंद्रिका-सिंधु में, सीतन स्वच्छ सतेज।
    मनो सेषमय सोभिजै, हरिणाधिष्ठित सेज॥

    इन सब में एक कल्पना बड़ी ही अनूठी है। दिन भर के परिश्रांत सूर्य संध्या-समय अपनी उत्कंठिता रमणी के यहाँ जा रहे हैं। पति का आगमन सुन पतिव्रता कामिनी पति से मिलने को तुरंत दौड़ आई। शृंगार तक ठीक-ठीक नहीं कर पाया था। उतावली में उसका एक कर्णफूल छूट गया। यह चंद्रमा नहीं कर्णफूल है!

    कभी चंद्रमा मंदाकिनी का धवल कमल कहा जाता है, तो कभी आकाश-रूपी समुद्र का फेन। कहीं वह रति का दर्पण बन जाता है, तो कहीं कामदेव का राज-छत्र। कल्पनाओं का कुछ ठिकाना है! सुंदर मुख के लिए तो सिवा चंद्र के दूसरी उपमा ही नहीं। इस सब मान प्रतिष्ठा से चंद्रमा को बड़ा घमंड होगा। मन ही मन कहता होगा कि मेरे समान सुंदर, सुशील और सम्मान-पात्र कदाचित् ही कोई हो। पर, चंद्रदेव! इस घमंड में न भूले रहना। जिन कवियों ने तुम्हें सातवें अर्श पर चढ़ा रखा है, यही तुम्हें फ़र्श पर गिराने को तैयार हैं। कवियों का क्या भरोसा? ये साँप के बच्चे हैं। इनसे बहुत बच बचकर चलना चाहिए। देखो, इन लोगों ने जितनी तुम्हारी प्रशंसा नहीं की, उतनी निंदा कर डाली है। सीताजी के मुख से तुम्हारी पटतर दी जाने का थी, पर विचार करने पर यह मालूम हुआ कि ऐसा करना महा अनुचित है। तुम तो उनके मुख के आगे कुछ भी नहीं। देखो न—

    जनम सिंधु पुनि वधु विष, दिन मलीन सकलंक।
    सियमुख-समता पाव किमि, चंद्र बापुरो रंक॥
    इतना ही नहीं, तुममें और भी कई दोष हैं—
    घटइ बढ़इ विरहिनि-दुखदाई। प्रसइ राहु निज सधिहिं पाई॥
    कोक-शोक-प्रद पंकज-द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥
    वैदेही-मुख पटतर दीन्है। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हैं॥
    —तुलसी

    तुम्हारे साथ उपमा देने के विचार मात्र से प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ेगा। तुममें सबसे बड़ा ऐब तो यह है कि तुम सदा विरही-जनों को अपनी शीतल किरणों से जलाया करते हो। बड़े विरोध की बात है। कहीं शीतलता में भी दाहकता होती है? हाँ, अवश्य। न जाने, किसने तुम्हारा ‘शीतकर’ नाम रख दिया—

    हौं ही बौरी बिरह-बस, के बौरो सब गाम।
    कहा जानिकै कहत हैं, ससिहि सीत-कर नाम॥
    —बिहारी

    एक विरहिणी नायिका कहती है—विरह-वश मैं ही बावली हो गई हूँ; या गाँव भर बावला है? वे लोग क्या जानकर इस अंगार को 'शीतकर' कहते हैं?
    तू बावली नहीं है, गाँववाले ही बावले हैं। अरी; यह चंद्रमा ही नहीं है। मूर्ख लोग इसे चंद्रमा या शीतकर कहते होंगे। फिर कौन है? ग्रीष्म ऋतु का प्रचंड मार्तंड। देखती नहीं है, अंगारों के समान अपनी विषम किरणों से समस्त संसार को भस्मसात् करता हुआ यह साक्षात् सूर्य निकल रहा है—

    अंगारप्रखरैः करैः कवलयन्नेतन्महीमंडलम्।
    मार्तंडोऽयमुदेति केन पशुना लोके शशांकीकृतः॥
    —पंडितराज जगन्नाथ

    फिर भी संदेह है?

    विष-संयुक्त कर-निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी॥
    -तुलसी

    वास्तव में, यह धधकती हुई आग का एक बड़ा भारी गोला है। नहीं, इसे जलता हुआ भाड़ कहना चाहिए। विरही-जनों के भूनने के लिए ब्रह्मा ने इसे बनाया है। यह भी संदेह होता है कि कहीं यह विषैला सफ़ेद साँप न हो। शेषनाग के वंश के सफ़ेद साँप होते ही हैं। संभव है, उसी वंश का यह भी हो। महाकवि गंग ने भी चंद्रमा को साँप ही साबित किया है—

    सेत सरीर हिए विष स्याम कला फन री मन जान जुन्हाई।
    जीभ मरीचि दसों दिसि फैलति काटति जाहि वियोगिनि ताई॥
    सीस ते पूछ लौं गात गयो पै डसे बिन ताहि परै न रहाई।
    सेस के गोत के ऐसेहि होत हैं चंद नहीं ये फनिंद है माई॥

    मरते-मरते भी दुष्टों की दुष्टता नहीं जाती। सिर से पूँछ तक इसका सारा शरीर गल गया है, फिर भी इस साँप को काटे बिना कल नहीं पड़ती!

    इसमें संदेह नहीं कि इसकी किरणें तीक्ष्ण और विषैली हैं। पत्थर तक इन किरणों से पिघलकर मोम हो जाता है, फिर मनुष्यों का पूछना ही क्या। तिस पर, सुकुमार शरीरवालों की तो और भी मौत है।

    रात्रिराज। सुकुमारशरीरः कः सहेत तव नाम मयूखान्।
    स्पर्शमाप्य सहसैव यदीयं चंद्रकांतहषदोपि गलंति॥
    —मयंक

    यह बिल्कुल सफ़ेद झूठ है कि चंद्रमा का नाम सुधाकर है। सुधाकर होता तो भला क्यों बेचारे वियोगियों की हत्या सर पर चढ़ाता? पर ईश्वर बड़ा मालिक है। जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल देता है। इस निर्दय चंद्रमा की भी अक़ल ठिकाने लगानेवाला कोई है, और वह है वीरवर राहु। ग्रहण के समय एक न चलती होगी। राहु के आगे, जनाब चाँद साहिब, आपकी सारी चालाकी चंपत हो जाती है। उस दिन तुम्हें छठी का दूध याद आता होगा। न जाने, राहु के कराल गाल से तुम कैसे जीवित निकल पाते हो। राहु तुम्हें जान-बूझकर उगल देता है, क्योंकि तुम्हारी विष-ज्वाला उसे सहन न होती होगी। अच्छा होता, यदि किसी न किसी तरह वह तुम्हें स्वाहा कर देता। पर, पापियों की आयु बड़ी लंबी होती है। तुम क्यों मरोगे? चंद्रमा, तुमने लगभग सभी पाप किए हैं। न जाने, अंत में तुम्हारी क्या दुर्गति होगी। तुम्हारे पीछे तुम्हारे बाप समुद्र की तो पूरी दुर्दशा हो ही चुकी, अब तुम्हारी चाहे जो हो। न तुम सरीखे कपूत होते, न बेचारे को इतनी आफतें भोगनी पड़तीं।

    ऐसे मतिमंद चंद धिग है अनंद तेरो,
    जो पै विरहिनि जरि जात तेरे ताप तें।
    तू तो दोषाकर दूजे धरे है कलंक उर,
    तीसरे कपालि संग देखौ सिर छाप ते।
    कहै मतिराम, हाल जाहिर जहान तेरो,
    बारूनी के वासी भासी रवि के प्रताप ते।
    बाँध्यो गयो, मथ्यो गयौ; पियो गयौ, खारो भयो,
    बापुरो समुद्र तो कुपूत ही के पाप ते॥

    रामचंद्रजी ने बाँधा, देवताओं और राक्षसों ने अमृत के लिए मंथन किया, अगस्त्य ने आचमन कर डाला और खारा है ही। बेचारे समुद्र को तुम्हारे कुकर्मों का फल भोगना पड़ा!

    कर्म करै कोउ और ही, और पाव फल-भोग।
    अति विचित्र भगवंत गति, को जग जानइ जोग॥
    —तुलसी

    हे मृगलांछन। पाप छिपाए नहीं छिपता, किसी न किसी दिन-उजागर हो ही जाता है। करोड़ों वियोगियों का रुधिर पान करके तुम कुछ मोटे नहीं हो गए। घटने-बढ़ने का असाध्य रोग भी नहीं दूर हुआ। हाँ, मुँह बेशक काला हो गया। तुम्हारा यह कलुष-कलंक मरने पर भी न छूटेगा। मदिरा-पान क्या बट्टे खाते जाएगा? वियोगियों को जला देना क्या हंसी-खेल है, अभी तो ज़रा-सी कारिख लगी है, कुछ दिनों में सारा मुँह काला हो जाएगा। तुम्हारी कालिमा पर भी कवियों ने कई कल्पनाएँ की हैं। आलम कहते हैं—

    विधु ब्रह्म कुलाल को चक्र कियो मधि राजति कालिमा रेनु लगी।
    छबि धौं सुरभीर पियूख की कीच कि बाहन पीठ की छाँह खगी॥
    कवि आलम रैनि सँजोगिनि है पिय के सुख संगम रंग पगी।
    गए लोचन बूड़ि चकोरन के सु मनो पुतरीन की पाँति जगी॥

    अंत की क्या ही अनोखी सूझ है—गए लोचन बूड़ि चकोरन के सु मनो पुतरीन की पाँति जगी। चकोरों ने तुम्हारी सुंदरता देखते-देखते अपनी आँखे डुबो दीं, तल्लीन कर दी। यह कालिमा उन्हीं की पुतलियों की है, आँख के तारों की है। चकोर की लगन भी आदर्शरूप है। अहा!

    चिनगी चुगै अंगार की चुगै कि चंद-मयूख।
    —बिहारी

    चकोर अंगार की चिनगारियाँ क्यों चुगता है? इसलिए कि आग खाकर मर जाऊँ। फिर? भस्म हो जाऊँ और वह भस्म शिवजी अपने मस्तक पर चढ़ाएँ; चंद्रशेखर के ललाट पर
    प्यारे चंद्रमा का वास है ही। बस, वहाँ इससे भेंट हो जाएगी। आग चुगने का यही तात्पर्य है।

    चिनगी चुगत चकोर यो, भसम होइ यह अंग।
    ताहि रमावै शिव तहाँ, मिलै पाउ ससि संग॥

    कुमुद-बाँधव, तुम्हें भी चकोर का कुछ ख़याल है? न होगा, तुम बड़े ही कठोर हो। तुम्हारा हृदय एकदम काला है।
    विष-रस भरा कनक घट जैसे।

    अस्तु तुम्हारी कालिमा पर गुसाईं तुलसीदास ने भी कुछ सूक्तियाँ लिखी हैं। श्रीरामचंद्रजी के पूछने पर सुग्रीव प्रमुखमंत्री उत्तर देते हैं—

    कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महें प्रकट भूमि की छाई॥
    मारेहु राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥
    कोउ कह जब विधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
    छिद्र सो प्रकट इंदु-उर मांही। तेहि मग देखिय नभ परिछाही।
    मंत्रियो से यथेष्ट उत्तर न पाकर प्रभु स्वयं बोले— 
    कह प्रभु, गरल बंधु ससि केरा। अति प्रियतम उर दीन्ह बसेरा॥
    भक्तवर हनुमानजी ने हाथ जोड़ कर कहा—
    कह हनुमंत सुनहु प्रभु, ससि तुम्हार प्रिय दास।
    तब मूरति तेहि उर बसत, सोइ स्यामता भास॥

    बलिहारी! क्या ही अनोखी शक्ति है! अब तक तो यही सुनने में आया था कि चंद्रमा की उत्पत्ति समुद्र से है पर बेनी कवि इस संबंध की एक निराली ही बात बतला रहे हैं। उनकी राय में चंद्रमा की उत्पत्ति यों हुई है।

    राधे कों बनाय बिधि धोयो हाथ जाम्यो रंग,
    ताको भयो चंद्र कर मारे भय तारे हैं॥

    जब ब्रह्मा राधिकाजी को बना चुका, तब हाथ धोकर चुपचाप बैठ गया। समझ गया होगा कि अब इनसे सुंदर कौन बन सकेगा। हाथ धोने से जो रंग छूटा, उसका, जम जाने पर चंद्रमा बन गया और हाथ झाड़ देने से जो इधर-उधर बूँदें गिरीं, वही तारे हो गए। स्यात् इसी कारण से शिवजी ने इसे अपने मस्तक पर धारण किया हो। पर भगवान भूतभावन की कृपा बंक मयंक पर है, पूर्ण मृगांक पर नहीं। पद्मकोट के रसिक-भ्रमर पंडित श्रीधर पाठक ने इस बंक मयंक पर बड़ी ही उत्तम उत्प्रेक्षाएँ लिखी हैं—

    दिसि भामिनि-भ्रूभंग, काल-कामिनि निहंग असि॥
    कै जामिनि रही अधर-बिंब सौं मंद हाँसि हँसि॥
    मंदाकिनि-तट पन्यो तृषित जल-हीन मीन कोइ।
    तड़पि रह्यो तन छीन व्योमचर कै नवीन कोइ॥
    वृत्र-विदारक इंद्र-कुलिस की कुटिल नौंक तू।
    निसि-विरहिनि तन लगी मदन की किधौं जौंक तू॥
    निसा-योगिनी भाल भस्म को, बाँकौ टीकौ।
    कै माया महिषी-किरीट छाया सुश्री कौ॥
    कै सुमेरु सुचिवर्न स्वर्न सागर को कौड़ा।
    कै सुर-कानन कदलि-मूल को कोमल बौंड़ा॥
    किधौं स्वर्ग-फुलवारी के माली को हँसिया।
    अमृत एकत्र करन की सेत अँकुसिया॥
    रवि-हय-खुर की छाप किधौं, के नाल नुकीली।
    काल-चक्र की हाल परी खंडित कै कोली॥
    नभ-आसन-आसीन कोई कै तपोलीन ऋपि।
    कै कछु जोति मलीन, कृसित सोइ कलाछीन ससि॥

    सब ने षोडश-कला-युक्त चंद्रमा का वर्णन किया है, पर हमारे पाठकजी ने दो ही कलावाले बंक मयंक पर कमाल हासिल कर दिखाया है।

    मयंक! तुम सदा टेढ़े रहते, तो राहु को तुम्हें ग्रसने का कभी साहस न होता। कहा भी है— 'वक्र चंद्रमहि ग्रसइ न राहू।

    वक्र चंद्रमा से राहु इसी से डरता है कि कहीं यह जोंक की तरह चपटकर रक्त न चूस ले। अथवा हंसिया की तरह काट कर काम तमाम न कर डाले। पर, सदा एक सी स्थिति में रहना चंद्रमा के भाग्य में नहीं लिखा। पौष्टिक पदार्थों का सेवन करते-करते जैसे-तैसे पूर्णिमा तक हृष्ट-पुष्ट हुए भी, तो फिर रोग ने आ धर दबाया। बीमारी बढ़ती ही गई। यहाँ तक कि अमावस की रात काल-रात्रि हो गई। इस रोग को स्वर्ग के वैद्यराज अश्विनीकुमार तक दूर नहीं कर सके। औरों की गिनती ही क्या? हाँ, एक उपाय से निःसंदेह चंद्रमा का रोग नष्ट हो सकता है। यदि यह विरही-जनों का रुधिर पान करना छोड़ दे, तो मिनटो में बीमारी चली जाए। कुपथ्य करने से कहीं औषध प्रभाव डाल सकती है? अब भी चंद्रमा परहेज से चलने लगे तो एक भी रोग न रहे, सदा हष्ट-पुष्ट रहे, नित्य ही पूर्णमासी का आनंद भोगे। पर वह दुर्बुद्धि हमारे उपाय के अनुसार क्यों चलने लगा!

    जाको प्रभु दारुण दुख देहीं। ताकी मति पहलेहि हरि लेहीं॥

    निशानाथ! अब भी चेत जाओ, नहीं तो कोई तुम्हें कौड़ी दाम पर भी न पूछेगा। हमने तो यहाँ तक सुना है कि तुम अपने पद से हटाए जाने वाले हो। महाकवि बिहारी को तुम्हारी
    ज़रूरत नहीं रही। उन्हें एक ऐसी चंद्रमुखी नायिका मिल गई है, जो नित्य ही पूर्णिमा की छटा दिखा देती है। असली पर्व की पूनो जानने के लिए पंचांग से काम ले लिया जाता है। अब तुम किस काम के रहे?

    पत्रा ही तिथि पाइयतु, वा घर के चहुँ पास।
    नित प्रति पून्यो ही रहै, आनन-ओप-उजास॥

    कहो, बर्ख़ास्त हुए न? पेंशन की भी आशा न करना। क्योंकि तुम्हारे और तो सब कसूर माफ़ हो जाएँगे, पर एक माफ़ न होगा। तुमने एक दिन भगवान कृष्ण की अवज्ञा की थी। वे तुम्हें बुलाते ही रहे, पर तुमने गर्ववश अनसुना कर दिया। यदि तुम नीचे उतरकर नंदनंदन का मनोरंजन कर देते, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? बाल-गोविंद ने तुम्हें लाल-लाल खिलौना समझा था। तुम्हारे साथ हँसते, नाचते, कूदते; पर यह सुख यह रस तुम्हें नहीं बदा था! श्रीकृष्ण तुम्हें देखकर कैसे मचल गए हैं! अपनी यशोदा मैया से कहते हैं—

    मैया यह मीठो कै खारो। देखत लगत मोहि यह प्यारो॥
    देहि मँगाय निकट में लैहों। लागी भूख चंद मैं खैहों॥

    स्यात् इसी से न आए होंगे, कि कहीं श्रीकृष्ण मुझे सचमुच ही न खा जायँ। किंतु यह तुम्हारा अज्ञान है! भगवान तुम्हें क्या खाते, तुम्हारे काल को खा जाते। तुम्हें अमर कर देते; अस्तु। 
    यशोदाजी समझाने लगी कि लला! चंदा के ताईं हठ न करो—

    देखत रहौ खिलौना चंदा। हठ नहिं कीजै बाल-गोविंदा॥
    मधु मेवा पकवान मिठाई। जो भावै सो लेहु कन्हाई॥

    कन्हैया नहीं माने, रोते ही रहे। यशोदा मैया ने एक थाली में पानी भरकर कृष्ण से कहा—

    लेहु लाल यह चंद्र मैं, लीन्हो निकट बुलाय।
    रोवै इतने के लिए, तेरी स्याम बलाय॥

    थाली में चंद्रमा का प्रतिबिंब देखकर बालकृष्ण कुछ शांत हुए, पर जब पकड़ने से वह हाथ में न आया तब फिर रोने लगे, फिर मचल गए—

    लउँगो री माँ चंदा लउँगौ। वाहि आपने हाथ गहौंगो॥
    यह तो कलमलात जल माहीं। मेरे कर में आवत नाहीं॥

    यशोदाजी बोली—लला, चंदा तोको डरै है मारे डर के बेचारो भाजिकै पाताल पैठि गयो—

    तुम तिहि पकरन चहत गुपाला। ताते ससि भजि गयो पताला॥
    अब तुमतें ससि डरपत भारी। कहत, अहौं हरि सरन तुम्हारी॥

    चंद्रदेव! यशोदाजी को धन्यवाद दो, जिन्होंने श्रीकृष्ण से तुम्हारी तरफ से इतनी अच्छी सिफ़ारिश कर दी। जाओ, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। अशरणशरण कृष्णचंद्र तुम्हारा
    कल्याण करेंगे। क्या तुमने भगवान का यह अभय-वचन नहीं सुना—

    सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेक शरण व्रज।
    अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

    बस, वही भक्तवत्सल भगवान तुम्हें निष्कलंक कर सकेंगे, वही 'वैद्यों नारायणो हरिः' तुम्हारे सब रोगों का नाश करेंगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी निबंधमाला (पहला भाग ) (पृष्ठ 177)
    • संपादक : श्यामसुंदर दास
    • रचनाकार : वियोगी हरि
    • प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
    • संस्करण : 1945

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