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लोभ

lobh

नोट

अप्रैल, 1908 में प्रकाशित। 'संचयन' एवं 'संकलन' पुस्तकों में संकलित।

मनुष्य लोभ बहुत बुरा है। वह मनुष्य का जीवन दुखमय कर देता है; क्योंकि अधिक धनी होने से कोई सुखी नहीं होता। धन देने से सुख नहीं मोल मिलता। इसलिए जो सोने और चाँदी के ढेर ही को सब कुछ समझता है, वह मूर्ख है। मूर्ख नहीं, तो वह वृथा अहंकारी अवश्य है। जो बहुत धनवान् है, वह यदि बहुत बुद्धिमान और योग्य भी होता तो हम धन ही को सब कुछ समझते। परंतु ऐसा नहीं है। धनी मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान नहीं होते। इसलिए धन को विशेष आदर की दृष्टि से देखना भूल है; क्योंकि उससे सच्चा सुख नहीं मिलता। इस देश के पहुँचे हुए विद्वानों ने धन को सदा तुच्छ माना है। यह बात आजकल के समय के अनुकूल नहीं। यूरोप और अमेरिका के ज्ञानी धन ही को बल—बल नहीं, सर्वस्व समझते हैं, परंतु जिस धन के कारण अनेक अनर्थ होते हैं, उस धन को प्रधानता कैसे दी जा सकती है? और देशों में उसे भले ही प्रधानता दी जाए; परंतु भारतवर्ष में उसे प्रधानता मिलना कठिन है। जिस देश के निवासी संसार ही को मायामय, अतएव दुःख का मूल कारण समझते हैं, वे धन को कदापि सुख का हेतु नहीं मान सकते।

बहुत धनवान् होना व्यर्थ है। उससे कोई लाभ नहीं। क्योंकि साधारण रीति पर खाने-पीने और पहनने आदि के लिए जो धन काम आता है वही सफल है। उससे अधिक धन होने से कोई काम नहीं निकलना। स्वभाव अथवा प्रकृति के अनुसार खाने हो पीने की आवश्यकताओं को दूर करने के लिए धन की चाह होती है। दूसरों को दिखलाने अथवा उसे स्वयं देखने के लिए धन इकट्ठा करने से कोई लाभ नहीं। कोई जगत्सेठ ही क्यों हो यदि वह सितार या वीणा बजाना सीखना चाहेगा, तो उसे उस विद्या को उसी तरह सीखना पड़ेगा जिस तरह एक निर्धन महाकंगाल को—सीखना पड़ता है। उस गुण को प्राप्त करने में उसकी धनाढ्यता ज़रा भी काम देगी। वह उसे मोल नहीं ले सकता। जब उसे धन के बल से वीणा बजाने के समान एक साधारण गुण भी नहीं मिल सकता, तब शांति, शुद्धता और वीरता आदि पवित्र क्या कभी उसे मिल सकते हैं? कभी नहीं।

जिसके पास आवश्यकता से थोड़ा भी अधिक धन हो जाता है, वह अपने आपको अर्थात् यों कहिए कि अपनी आत्मा को, अपने वश में नहीं रख सकता। क्योंकि होने के कारण वह उस धन को प्रति दिन बढ़ाने का यत्न करता है। अतएव वह धन किस काम का जो लोभ को बढ़ाता जाए? भूख लगने पर भोजन कर लेने से तृप्ति हो जाती है। प्यास लगने पर पानी पी लेने से तृप्ति हो जाती है। परंतु धन से तृप्ति नहीं होती। उसे पाकर और भी अधिक लोभ बढ़ता है। इसीलिए धनी होना एक प्रकार का रोग है। रात को जाड़े से बचने के लिए एक लिहाफ़ होता है। यदि किसी के ऊपर आठ दस लिहाफ़ डाल दिए जाए तो उसे बोझ मालूम होने लगेगा और उलटा कष्ट होगा। परंतु धन की वृद्धि से कष्ट नहीं मालूम होता। इसलिए धनाढ्यता भी एक प्रकार की बीमारी है। जिसे भस्मक रोग हो जाता है, वह खाता ही चला जाता है। उसे कभी तृप्ति नहीं होती। तृप्ति का होना, अर्थात् आवश्यकताओं का बढ़ जाना ही दुःख का कारण है। और जहाँ दुःख है, वहाँ सुख रही नहीं सकता। उन दोनों में परस्पर बैर है। अतएव उसी को धनी समझना चाहिए जिसकी आवश्यकताएँ कम है; क्योंकि वह थोड़े ही में तृप्त हो जाता है। तृप्ति ही सुख है; और लोभ ही दुःख है।

संतोष नीरोगता का लक्षण है; लोभ बीमारी का लक्षण है। जो मनुष्य खाते-खाते संतुष्ट नहीं होता, उसे अधिक खिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके लिए वैद्य की आवश्यकता होती है। ऐसे मनुष्यों को अधिक खिलाने की अपेक्षा उसके खाए हुए पदार्थों को, वमन कराके बाहर निकालना पड़ता है। क्योंकि अनावश्यक अथवा आवश्यकता से अधिक पदार्थ पेट में रहने से रोग हुए बिना नहीं रहता। इसी तरह जिनको संतोष नहीं, अर्थात् जो लोग प्रति-दिन अधिक-अधिक धन इकट्ठा करने के यत्न में रहते हैं, उनको अधिक देने की अपेक्षा उनसे कुछ छीन लेना अच्छा है। क्योंकि जब कोई वस्तु कम हो जाती है, तब मनुष्य बची हुई से संतोष करता है। अतएव संतोष होने से उसे सुख मिलता है। संतोष होने से कभी सुख नहीं मिलता किसी किसी वस्तु की सदैव कमी ही बनी रहती है। लोभी मनुष्य को चाहे त्रिलोक की संपत्ति मिल जाए, तो भी उसे और सम्पत्ति पाने की इच्छा बनी ही रहेगी।

लोभ एक तरह की बीमारी है; परंतु है वह बड़ी सख़्त बीमारी। सख़्त इसलिए है कि वह अपने को बढ़ाने का यत्न करती है, घटाने का नहीं। जो मनुष्य भूखा होता है, वह भोजन करता है; भोजन छोड़ नहीं देता। परंतु लोभी का प्रकार उलटा है। उसे द्रव्य की भूख रहती है; परंतु जब वह उसे मिल जाता है, तब उसे वह काम में नहीं लाता; रस छोड़ता है; और अधिक धन पाने के लिए दौड़ धूप करने लगता है।

लोभी मनुष्य बहुधा इसलिए धन इकट्ठा करता है जिसमें उसे किसी समय उसकी कमी पड़े। परंतु उसे उसकी कमी हमेशा ही बनी रहती है। पहले उसकी कमी कल्पित होती है; परंतु पीछे से वह यथार्थ—असली हो जाती है; क्योंकि घर में धन होने पर भी वह उसे काम में नहीं ला सकता। लोभ से असंतोष की वृद्धि होती है और संतोष का सुख ख़ाक में मिल जाता है। लोभ से भूख बढ़ती है और तृप्ति घटती है। लोभ से मूलधन व्यर्थ बढ़ता है, और उसका उपयोग कम होता है। लोभी का धन देखने के लिए, वृथा रक्षा करने के लिए और दूसरों को छोड़ जाने ही के लिए होता है। ऐसे धन से क्या लाभ? ऐसे धन को इकट्ठा करने में अनेक कष्ट उठाने की अपेक्षा संसार भर में जितना धन है, उसे अपना ही समझना अच्छा है। क्योंकि लोभी का धन तो उसके काम तो आता नहीं; इसलिए उसे दूसरे का धन मन ही मन अपना समझने में कोई हानि नहीं। उससे उलटा लाभ है; क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता। लोभियों को ख़ज़ाने के संतरी समझना चाहिए। लोभी मनुष्य जब तक जीते हैं, तब तक संतरी के समान अपने धन की रखवाली करते हैं और मरने पर उसे दूसरों के लिए छोड़ जाते हैं।

कोई-कोई लोभी, अपने पीछे, अपने लड़कों के काम आने के लिए धन इकट्ठा करते हैं। उनको यह समझ नहीं कि जिस धन के बिना उनका काम चल गया, उसके बिना उनके लड़कों का भी चल जाएगा। इस प्रकार बाप-दादे का धन पाकर अनेक लोग बहुधा उसे बुरे कामों में लगाकर ख़ुद भी बदनाम होते हैं और अपने बाप-दादे को भी बदनाम करते हैं।

धनवान् यदि लोभी है तो उसे रात को वैसी नींद नहीं सकती जैसी निर्धन अथवा निर्लोभी को आती है। धनवान् को निर्धन की अपेक्षा भय भी अधिक रहता है। यदि मनुष्य लोभी है तो थोड़ी संपत्तिवाले से हम अधिक संपत्तिवाले ही को दरिद्र कहेंगे। क्योंकि जिसे 5 रुपए की आवश्यकता है, वह उतना दरिद्री नहीं, जितना 500 रुपए की आवश्यकतावाला है। कहाँ 5 और कहाँ 500! सघनता और निर्धनता मन की बात है। जिनका मन उदार है, वे अनुदार और लोभी मनुष्यों की अपेक्षा अधिक धनवान् हैं, क्योंकि उदारता के कारण उनका धन किसी के काम तो आता है—चाहे वह बहुत ही थोड़ा क्यों हो। बहुत धनी होकर भी यदि मनुष्य लोभी हुआ और उसका धन किसी के काम आया तो उसका होना होना दोनों बराबर हैं। शेख सादी ने बहुत ठीक कहा है—'तवंगरी बदिलस्त बमाल।

अर्थात् अमीरी दिल से होती है, माल से नहीं।

स्रोत :
  • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-2 (पृष्ठ 368)
  • संपादक : भारत यायावर
  • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
  • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
  • संस्करण : 2007

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