जन्मदिन

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इलाचंद्र जोशी

और अधिकइलाचंद्र जोशी

    आज मेरा तिरेपनवाँ जन्म-दिन है। कुछ क्षणों के लिए पचास वर्ष की अवस्था के बाद अपने पिछले जीवन का लेखा-जोखा करने का सहज नैतिक अधिकार साधारणतः सभी व्यक्तियों को अनायास ही सुलभ हो जाता है। पर मेरी आत्मा अभी तक मुझे उस अधिकार के अयोग्य मानती है। फ़िर भी मेरे अंतर में आज जाने क्यों, इस संबंध में एक कुतुहल भाव जगा है! पिछली गतिविधियों का हिसाब-किताब संभालने के उद्देश्य में नहीं, बल्कि अतीत की छुट-पुट और धुंधली झाकियाँ देखने की इच्छा से।

    विगत जीवन का लेखा-जोखा करने की इच्छा मेरे मन में उठती ही हो, ऐसी बात नहीं है, भगवती बाबू की 'असफलता के पैंतीस वर्ष' संबंधी कविता से प्रेरित होकर 'असफलता के 53 वर्ष' शीर्षक से एक निबंध लिख डालने की बात मन में गुदगुदी अवश्य मचा रही है। पर शायद 53 की संख्या 35 में ठीक उलटी होने के कारण इस संबंध में मन के भीतर कहीं कुछ अंतर्विरोध जान पड़ता है; क्योंकि इस विशेष क्षण में असफलता को कोई भी अनुभूति पूरी भावुकता के बाद जग ही नहीं पा रही है। जो अस्पष्ट, स्फुट और बिखरी हई स्मृतियाँ जग रही हैं, उनका असफलता से कुछ संबंध ही नहीं है। उनका एक दूसरे में भी कोई संबंध नहीं है। वे सब जीवन के आनंद को मूलगत अनुभूतियों में संबंधित है।

    मझे दिखाई दे रहा है कि अपने जन्म-स्थान का वह जीर्ण वास-भवन जहाँ से अपने चंचल बचपन के विकासशील दिनों में मैं प्रतिदिन प्रातः काल पूर्व की और सूर्योदय के ठीक पहले हिमालय श्रेणी के एकार्द्ध-गोलाकार लघु-खंड को नव अरुण राग में रजित देखता था। उसके बाद ही पश्चिम की ओर वे विशाल और विस्तृत हिमगिरिमालाएँ मेरे अंतर को आँखों के आगे अपनी झिलमिल झलक दिखा रही है जहाँ संध्या को सूर्यास्त के समय क्रम से सोने, तांबे और चाँदी की प्रज्ज्वलित वर्णच्छटाएँ एक निराले ही रहस्यात्मक अनुभूतिलोक में मुझे एकाकी छोड़ देती थी। सिनतोले की ओर वाले उस माया वन की भी झांकी मुझे दिखाई दे रही है, जहाँ चीड़ के पेड़ों की दो किनारों के बीच में चीड़ की घासनुमा सूखी और नुकीली पत्तियों की लाल बजरी वन-देवी के निःशब्द विचरण के लिए पांवड़े बिछाये रहती थी। जाने अपने किशोर जीवन के कतने प्रभात, दुपहरियाँ और सांझें उस माया-वन भूमि में मैंने भावमग्न अवस्था में बितायी हैं। याद रही है, शुभ्र शरत्काल की वे निर्मल चाँदनी रातें, जो चीड़, बांस और देवदारु द्रुमों की सघन छाया के ऊपर चाँदनी का पारदर्शी चंदोला तानकर जाने पिछले जन्मों को किन-किन बहुरगों और चित्र-वैचित्र भाव वेदनाओं को जगाती रहती थीं। इस टीले का सुस्पष्ट प्रतिबिंब स्मृति पटल पर पड़ रहा है जहाँ की ऊँचाई से पहाड़ के पदमूल पर सिसकारियाँ भरने वाली कोसी नदी स्फटिकों की माला की तरह दिखाई देती थी।

    मुझे जाड़ों की वे विकराल सांझें और रातें याद रही हैं जब सारा आसमान हिम बरसाने की तैयारियों में जुटे हुए काले बादलों से ढका रहता था और आस-पास के पहाड़ो में घना कुहरा छाया रहता। अंगीठी के चारों ओर जब बच्चे बैठे रहते और शिब्बू भैया अध्यक्ष-पद ग्रहण किये हुए भूतों और प्रेतों की विचित्र दुनिया की अद्भुत कहानियाँ सुनाया करते। उनकी अधिकांश कहानियाँ 'आप-बीती' हुआ करती थीं। उनके चेहरे का गाढ़ा काला रंग, मस्तक के कृष्ण-पट पर अनिवार्य रूप से अंकित सिंदूरिया चिह्न और साढे छः फीट लंबा शरीर देखते बनता था, जैसे वह अभी-अभी भूतों की दुनिया की सैर करके लोटे हों। “शिब्बू भैया, फ़िर क्या हुआ? अपने दिल की धड़कन के साथ-साथ बढ़ती हुई उत्सुकता से प्रेरित होकर मैं पूछता।

    हाँ, तो भैया, उस (पथरीले) पहाड़ के एकदम संकरे रास्ते से होकर हम तीन आदमी चढ़ाई पर चले जा रहे थे। एकदम खड़ी चढ़ाई थी। हम लोग हाँफते हुए धीरे-धीरे चले जा रहे थे। कहीं एक भी पेड नहीं दिखाई दे रहा था, जिसकी छांह के नीचे बैठकर हम लोग कुछ देर सुस्ताते। आस-पास में कहीं एक भी मकान नहीं था। चलते-चलते थक गये थे। प्यास के मारे, बुरा हाल था। किसी तरह मरते-मरते जब आधे मील तक और ऊपर चढ़ गये तब अचानक मेरी नज़र बायीं ओर एक नाले की ओट में दो बाँस के पेड़ों के बीच में छिपे एक छोटे से मकान की ओर गई। एक छोटा-सा दुमंजिला मकान था। देखने में एकदम नया मालूम होता था, पर जगह-जगहे पत्थर उखड़े हुए दिखाई देते थे।

    तब क्या हुआ?

    हम लोग ऊपर चढ़कर उसी मकान के पास जा पहुँचे। जाकर देखा सारा मकान ख़ाली पड़ा था। एक बड़ा-सा कमरा नीचे था और उतना ही बड़ा एक कमरा ऊपर था। भीतर जगह-जगह दो-दो बड़े-बड़े पत्थर रखकर चूल्हे बनाये गये थे और दीवारों पर कालिख लगी हुई थी। यात्री लोग वहाँ डेरा डालकर खाना बनाते होंगे। ऊपर के कमरे में दो कोनों में पुआल पड़ी हुई थी।“

    क्या भूत लोग आकर वहाँ पुआल रख गये थे, शिब्बू भैया?

    “पता नहीं, कौन रख गया था। हम लोगों ने वहीं ठहरने का निश्चय कर लिया, अपनी-अपनी गठरी और कंबल हम लोगों ने वहीं उतार दिये। अपनी-अपनी गठरी खोल कर हमने खाने की चीजें निकाल ली और खा-पीकर घड़े का पानी पीकर जल्दी ही पुआल पर लेटकर सो गये। घड़ा हमें एक पास की छोटी नदी के पास औंधा पड़ा मिला था। आधी रात को एक ज़ोर के धमाके की आवाज़ सुन कर मेंरी नींद उचटी। जब मुझमें पूरी तरह चेतना लौट आई तब मैंने कच्चे फर्श पर कान लगा कर सुना। मुझे ऐसा लगा जैसे नीचे बहुत बड़ी महफ़िल जमी हुई है। ऐसा मालूम पड़ा कि कुछ औरतें नाच रही हैं। घुँघरुओं के बजने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई देती थी। मैंने पुआल हटाकर मिट्टी का फ़र्श जहाँ पर उखड़ा हुआ था वहाँ से नीचे की ओर देखा! एक छोटे से छेद से सब कुछ दिखाई दे रहा था।

    तो क्या देखा तुमने शिब्बू भैया?

    सारा कमरा रोशनी से जगमगा रहा था। रोशनी किस चीज़ से हो रही थी, पता नहीं। कहीं मिट्टी का कोई दीया दिखाई देता था, शीशे की चिमनी वाला कोई लैंप। एक ओर कई जवान औरतें खड़ी थीं, जो रंग-बिरंगे दुपट्टे, और लहँगे पहने थी। सिर से लेकर पाँव की उँगलियों तक वे सोने और चाँदी के गहनों से लदी थीं। दूसरी ओर सफ़ेद पगड़ी, लाल कोट पीले चूड़ादार पाजामें पहले कई जवान खडे थे, उनके पाँव में भी घुँघरू बंधे थे। किसी के हाथ में डमरू और किसी के हाथ में बाँसुरी थीं। बीच में एक आदमी सोने की झालरदार पगड़ी पहने खड़ा था। और हाथ में सोने की ही एक बहुत बड़ी बाँसुरी थी। उसकी हिदायतों के अनुसार स्त्री-पुरुष के जोड़े घुँघरुओं में छूम-छनन, छूम-छनन करके नाचते थे। नाचते समय कई डमरू एक साथ बजते थे और कई बाँसुरियाँ भी। पर उनकी आवाज़ बहुत ही धीमी लगती, जैसे कहीं बहुत दूर से रही हो।

    “तब क्या हुआ? पूछते समय मेरे रोंगटे खड़े थे और हृदय बेतहाशा धड़क रहा था।

    “होता और क्या था? बहुत देर तक वे लोग इसी तरह नाचते, गाते और बजाते रहे। बीच-बीच में टकसाल से एक दम नये निकले हुए-से चाँदी के रुपयों की बौछार होती थी। एक आदमी जालीदार थैली से मुट्टी-मुट्ठी भर रुपये निकाल कर ऊपर उछालता हुआ नीचे बिखेरता था। पर उठाने वाला कोई नहीं था। रुपये फ़र्श पर ही पड़े रह जाते। जब सुबह होने को कुछ ही देर रह गई तब चाँदी और सोने की थालियों में बढ़िया व्यंजन परोसे गये और सबने बैठकर खाया।

    “खाना कहाँ से आया? किसने बनाया?

    यह मैं कुछ देख सका; समझ ही सका। जब वे लोग खा-पी चुके तब कहीं से किसी जंगली मुर्गे की बांग देने की आवाज़ सुनाई दी। मुर्गे के बांग देते ही सारी रोशनी बुझ गई और महफ़िल में सन्नाटा छा गया।

    वे लोग सब कहाँ चले गये?

    उस समय अँधेरे में मैं कुछ देख सका। अचानक ऊपर वाले कमरे के दरवाज़े पर जिसके भीतर हम लोग लेटे थे, किसी ने दस्तक दी।”

    दस्तक क्या चीज़ होती है, शिब्बू भैया? काँपती हुई आवाज़ में मैंने पूछा।

    दस्तक दी, माने दरवाज़ा खटखटाया और किसी ने जवानी आवाज़ में कहा—“ला मेरा घड़ा! ला मेरा घड़ा! मैं तो मारे डर के थर-थर काँपने लगा। मैंने चुपचाप कंबल में अपना मुँह ढाँक लिया। बहुत देर तक मैं उसी तरह लेटा रहा...

    फ़िर क्या हुआ?

    काफ़ी देर बाद एक कौवे ने उस मकान की टूटी छत के ऊपर से कांव-कांव की आवाज़ निकाली! सुनकर मेरी जान में जान आई।

    कैसे?

    कौवे की आवाज़ सुन कर सब भूत भाग जाते हैं।

    तब क्या वे लोग सचमुच भूत थे?

    और नहीं तो क्या।

    “फ़िर क्या हुआ?

    मैं फ़िर काफ़ी देर तक मुँह बंद किये लेटा रहा। मेरे साथी अभी तक आराम से खर्राटे भर रहे थे। अंत में जब मैंने खोलने का साहस किया तब देखना हूँ कि चारों ओर धूप छाई हुई है। कंबल फेंक कर मैं दरवाज़ा खोलकर सीधे नीचे वाले कमरे में गया, जहाँ रात भर महफ़िल जमी थी। वहाँ जाकर देखता क्या हूँ कि सारे फ़र्श पर हड्डी के गोल-गोल टुकड़े ठीक रुपये के बराबर बिखरे पड़े थे। यह ज़ाहिर था कि जो चाँदी के नये रुपये सब बिखेरे गये थे, वे भूतों के चले जाने के बाद हड्डी के हो गये थे।

    फ़िर क्या हुआ?

    मैंने अपने साथियों को जगाया, उन्हें नीचे ले जाकर हड्डी के रुपये दिखाये, और रात का सारा किस्सा सुनाया।”

    फ़िर क्या हुआ?

    “सुनकर वे लोग चकित रह गये। हमारे साथ एक पंडितजी थे। उन्होंने बताया कि जो घड़ा हम लोग उठा लाये थे वह निश्चय ही श्मशान में किसी मुर्दे की प्यासी आत्मा के लिए रखा गया घड़ा होगा तभी उस मृतात्मा ने अपने साथियों के साथ इस टूटे मकान में धावा बोला।

    रात काफ़ी हो चुकी थी। शिब्बू भैया उठ खड़े हुए। उनके उठते ही 'अंगीठिया गोष्ठी' समाप्त हुई। हम लोग भी उनके साथ बाहर वाले कमरे तक गये। किसी साहसी लड़के ने विशुद्ध कुतूहलवश एक खिड़की खोली। तलवार से भी तीखी धार वाले एक झोंके ने सबके मुँह पर थप्पड़ मारा। पर बाहर झाँकते ही हवा के तीखे-नुकीले पंजों की सारी चपेट मैं भूल गया। बाहर चारों और बिना चाँद की चाँदनी बिछ गई थी। जब हम लोग भीतरी भूतों की कहानी सुन रहे थे तब चुपचाप बर्फ़ गिर रही थी और तब तक पाँच-छ: इंच के करीब जम चुकी थी। शिब्बू भैया बाहर जाकर एक अपेक्षाकृत 'शुद्ध स्थान' से बहुत-सी बर्फ़ उठा लाये, जो रूई से भी अधिक नरम मालूम होती थी। हम सबने गुड़ के साथ इसे खाया।

    जब शिब्बू भैया चले गये तब मैं बाहर वाले कमरे में बिना कुछ ओढ़े ही चुपचाप बैठ गया और ठंड से तथा भूतों के भय से बरबस किटकिटाते हुए दाँतों की भी परवाह करके बाहर घुप्प अँधेरी रात में चारों ओर फैली हुई बर्फ़ का दृश्य तन्मय होकर देखता रहा। एक अजीब-रहस्यात्मक सफ़ेद रोशनी चारों ओर छिटकी हुई नज़र आती थी।

    बाहर ठंड लग जायगी। भीतर जाकर लिहाफ़ ओढ़कर सो रहो। अम्मा डांट बताती हुई कहती।

    सिर्फ़ पाँच मिनट के लिए देखने दो अम्मा, बहुत अच्छा लग रहा है! मैं अनुनय के स्वर में कहता। बड़ा दुष्ट लड़का है, किसी की नहीं सुनता। कहती हुई अम्मा भीतर से एक कंबल लाकर मेरे ऊपर डाल देती।

    मुझे वृद्ध हलवाई जोगासाह की याद रही है, जिसके हाथ की तैयार हुई विशेष प्रकार की गरम-गरम गुझिया पर लोग मक्खियों की तरह टूट पड़ते थे। अनाज की बालियों की तरह पकने वाले बड़े-बड़े 'बाल', सींग की तरह लपेटी गई पंक्तियों में बंद ‘सिंगौरिया' बासी होने पर अधिक रस स्वाद देने वाली खस्ता गण्डेदार जलेबियाँ तथा और भी बहुत-सी मिठाइयाँ जिन्हें जोगासाह तैयार करते थे, मुझे बहुत पसंद थीं। मैं प्रायः सारे भारत में घूम चुका हूँ, पर जोगासाह की बनाई हुई मिठाइयों की तुलना सारे देश की किसी भी दूसरी मिठाई से करना मेरे लिए असंभव हो जाता है। 30 वर्ष पूर्व अल्मोड़ा छोड़ने के बाद फ़िर मिठाई खाने का सुख सदा के लिए जैसे जाता रहा। आज भी कभी-कभी कोई प्रेमी सज्जन जब भूले-भटके अल्मोड़े की मिठाइयाँ चखा जाते हैं तो अपने को सातवें स्वर्ग में अनुभव करने लगता हूँ।

    जोगासाह की गुझिया की मीठी याद होली के उन रंगीन उत्सवों की सुप्त स्मृति जगा रही है जो उन विशेष गुझियों के बिना फीकी लगने लगती थी। पहाड़ की टोलियों का रूप उन दिनों क्या था, इसकी कल्पना भी आज ठीक से कर सकना संभव नहीं है। लगातार छः दिन और छः रातों तक (एकादशी से लेकर होली जलाने के दूसरे दिन तक) सारी जनता भीतर और बाहर से विविध रंगों से रंजित होकर जैसे बौरा उठती थी। चारों ओर रंगीनियों और मस्तियों का एक अपूर्व समां बँध जाता था। घर-घर भीतर शास्त्रीय होली का रंग जमता तो बाहर लोग मंडलियाँ बाँध कर ढोलकियाँ बजाते हुए 'खड़ी होली’ के उन्माद भरे राग में मग्न होकर झूमते हुए गाते रहते।

    वर्षा और शरद् के बीच वाले काल में लगने वाले पहाड़ी मेलों की याद रही है, जब देहातों के छैल-छबीले और बांके जवान और रंगीली कृषक-युवतियाँ लगातार तीन-तीन रात जगकर मेले के उन्मादक रागरंग के प्रवाह में मुक्त भाव में बहे चलते। हर छैल के गले में एक 'छड़का' (डमरू बंधा रहता) और चारों ओर से डमरुओं का 'द्वां-द्वां डविक' की आवाज़ कानों में बजती रहती। आशु कविता करने वाले युवक-गायकों की मंडलियाँ अपने प्रेम-भरे पहाड़ी तरानों में सारे पहाड़ी वातावरण के प्राणों की सुप्त रंगीन वेदना को उभार कर एक निराली पुलक भरी व्याकुलता से सारे अंतर्मन को छा देती थी।

    'शुद्ध-साहित्य-समिति' नामक पुस्तकालय की याद रही है, जहाँ से तरह-तरह की कहानियों की पुस्तकें प्राप्त करके मैं निराली ही तिलस्माती दुनिया में विचरता हुआ अपने चारों ओर के वास्तविक जगत् को एकदम भूला हुआ रहता। लगता कि सारा संसार-चक्र विशुद्ध रंगमय और अद्भुत रहस्यमय है, और मनुष्य की रंगीन कल्पनाओं का जाल अपने रेशम से भी सुकोमल और चमकीले तानों-बानों से ढककर उसकी मोहकता को और अधिक उजागर करता चला जा रहा है।

    उसके बाद जब धीरे-धीरे उस मोहक जाल को कुछ तो अपने ही दुर्निवार मन के चंचल कुतूहल से और कुछ परिस्थितियों के दबाव से छिन्न-भिन्न करता हुआ मैं वास्तविक संसार से आकर टकराया तब कुछ एकदम नये, अकल्पित और अप्रत्याशित अनुभव होने लगे। तब से लेकर आज तक के संघर्षरत जीवन में जाने कैसे-कैसे विकट-बेमेल और व्यामोहक अनुभव होते चले गये हैं। आज सोचता हूँ कि क्या वास्तविक जीवन के इन सब अनुभवों का मूल्य शैशव के तथाकथित अवास्तविक और रंगीन अनुभवों की अपेक्षा अधिक है! आज मेरा मन इस प्रश्न को लेकर घोर संशयाच्छन्न हो उठा है।

    53 वर्ष की अवस्था तक वास्तविक जीवन के जो विचित्र उलझनों से पूर्ण अनुभव मुझे हुए हैं, उन्होंने मुझे कहाँ लाकर पटका है, इसका ठीक-ठीक निर्धारण कर सकने में मैं अपने को असमर्थ अनुभव कर रहा हूँ। बचपन के निर्द्वंद्व जीवन के अनुभवों के बीच में मुझे सहज प्रेरणा से लगता था कि जीवन का एक निजी महत्व है, एक विशेष अर्थ है। पर आज जैसे जीवन का कोई अर्थ ही सामने नहीं आता-जगता है जैसे सर्वत्र अनर्थ ही अनर्थ हो रहा है। आज के युग की कूट-राजनयिक, जड़-वैज्ञानिक और विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों ने जो प्रगति की है उसमें ऐसा लगता है जैसे मानव-जीवन की कोई सार्थकता ही आज शेष नहीं रह गई, सब कुछ निरर्थक, भ्रम-जाल से पूर्ण और उद्देश्य-रहित है। यदि सामूहिका जीवन की परिणति इन्हीं दिशाओं में होती है तब तो सचमुच जीवन को युगों तक अंधकार में चट्टानों पर टकराते हुए अपना सिर पटकने रहना होगा।

    पर संभव है, सच्चे जीवन को उन्हीं दिशाओं से होकर लंबी यात्रा करनी है, जिनकी पूर्व छाया मुझे बचपन में दिख चुकी थी। और यह संभव है कि वैयक्तिक तथा सामूहिक मानव-मन के भीतर ही भीतर जीवन की वह विशेष धारा शैशव की रंगमयी अनुभूतियों में होकर अंतर्धारा के रूप में प्रगति करती हुई अज्ञान और अलक्ष्य में निरंतर आगे को बढ़ती जा रही है, और आज के युग की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तथा वैज्ञानिक प्रसार एक दिन अपना महादम्भ त्याग कर अपने को उसी विशुद्ध आनंदमयी कल्पना के साथ एकाकार करने के लिए विवश होगा, जिसका अनुभव मुझे बचपन के दिनों में हुआ था। वह विशिष्ट और विशुद्ध जीवन-धारा विकसित होती हुई एक दिन बीसवीं सदी के सारे ज्ञान-विज्ञान के मलबे के ऊपर से बहती उसे अपने महाप्लावन से धोती और बहाती हुई, एक दिन जीवन की सारी व्यर्थता को सफलता में, और निरर्थकता को परिपूर्ण सार्थकता में परिणत करके ही रहेगा, ऐसा विश्वास करने को आज बरबस जी चाह रहा है।

    53 वर्ष समाप्त करने पर मेरे जीवन के अनुभवों की गति मंद हो चुकी हो या सभी अनुभव पुराने लगते हों, ऐसी बात नहीं है। आज मुझे नित्य ऐसे-ऐसे नये-नये अनुभव होते चले जा रहे हैं, जिनकी कोई कल्पना ही में दो-एक वर्ष पूर्व तक नहीं कर सकता था। इन नित्य-नये अनुभवों के आधार पर मानव मन और मानव-जीवन के जो विचित्र रहस्य आज मेरे सामने रहे हैं वे मेरे पिछले मनोवैज्ञानिक ज्ञान को बहुत पीछे छोड़ते चले जा रहे हैं। बाहर के वास्तविक जीवन के नित-नव परिवर्तित और अंतर्जीवन को नित-नया-निखार पाती रहने वाली नयी-नयी अनुभूतियाँ आज भी मुझे एक रहस्यमय हिंडोल में झुलाती चली जा रही हैं। ये द्विविध अनुभव और अनुभूतियाँ दो विशिष्ट पृथक् धाराओं में बहती हुई एक समान लक्ष्य-बिंदु की ओर जैसे निरंतर बढ़ती चली जा रही हैं। पता नहीं, कितने युगों, कितने जन्म-जन्मातरों के बाद वे एक दूसरे से मिल कर वहाँ आनंद-सागर में एकाकार हो पायेंगी। कभी एकाकार हो भी पायेंगी या नहीं, यह भी जैसे निश्चित नहीं है।

    मुझे तो लगता है कि असंख्य युगों और अगणित जन्मों के अनुभवों के बाद भी—

    शेष नहीं होगी यह

    मेरे जीवन को कीड़ा!

    लगता है, जैसे युग-युग की इस अशेष क्रीड़ा के भीतर ही जीवन का महान् लक्ष्य छिपा है, जिसे हम जीवन के बाहर किसी रहस्य में खोजते और व्यर्थ में रहते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : निबंध गरिमा (नवल किशोर एम ए) (पृष्ठ 90)
    • संपादक : नवल किशोर (एम ए)
    • रचनाकार : इलाचंद्र जोशी
    • प्रकाशन : जयपुर पब्लिशिंग हाउस

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