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दंडदेव का आत्मनिवेदन

danD dew ka atmaniwedan

महावीर प्रसाद द्विवेदी

अन्य

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

दंडदेव का आत्मनिवेदन

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    हमारा नाम दंड-देव है। पर हमारे जन्मदाता का कुछ भी पता नहीं। कोई कहता है कि हमारे पिता का नाम वंश या बॉस है। कोई कहता है नहीं, हमारे पूज्यपाद पितृमहाशय का नाम काष्ठ है। इसमें भी किसी किसी का मत-भेद है। क्योंकि कुछ लोगों का अनुमान है कि हमारे बाप का नाम वेत है। इसी से हम कहते हैं कि हमारे जन्मदाता का नाम निश्चयपूर्वक कोई नहीं बता सकता। हम भी नहीं बता सकते। सब के गर्भधारिणी माता होती है, हमारे वह भी नहीं। हम तो ज़मींतोड़ हैं। यदि माता होती तो उससे पिता का नाम पूछकर आप पर अवश्य ही प्रकट कर देते। पर क्या करें, मजबूरी है। बाप, माँ। अपना हुलिया यदि हम लिखना चाहें तो कैसे लिखावे। इस कारण हम सिर्फ़ अपना ही नाम बता सकते हैं।

    हम राजराजेश्वर के हाथ से लेकर दीन-दुर्बल भिखारी तक के हाथ में विराजमान रहते हैं। जरा-जीर्णों के तो एक मात्र अवलंब हमीं हैं। हम इतने समदर्शी हैं कि हमसे भेद-ज्ञान ज़रा भी नहीं, धार्मिक-अधार्मिक, साधु-असाधु, काले गोरे सभी का पाणिस्पर्श हम करते हैं। यों तो हम सभी जगह रहते हैं, परंतु अदालतों और स्कूलों में हमारी ही तूती बोलती है। वहाँ हमारा अनवरत आदर होता है।

    संसार में अवतार लेने का हमारा उद्देश दुष्ट मनुष्यों और दुर्वृत्त बालकों का शासन करना है। यदि हम अवतार लेते तो ये लोग उच्छृंखल होकर मही-मंडल में सर्वत्र अराजकता उत्पन्न कर देते। दुष्ट हमें बुरा बताते हैं। हमारी निंदा करते हैं, हम पर झूठे-झूठे आरोप करते हैं। परंतु हम उनकी कटूक्तियों और अभिशापों की ज़रा भी परवा नहीं करते। बात यह है कि, उनकी उन्नति के पथ-पदर्शक हमीं हैं। यदि हमीं उनसे रूठ तो जाएँ वे लोग दिन दहाड़े मार्गभ्रष्ट हुए बिना रहे।

    विलायत के प्रसिद्ध पंडित जानसन साहब को आप शायद जानते होंगे। ये वही महाशय हैं जिन्होंने एक बहुत बड़ा कोश, अंग्रेजी में, लिखा है और विलायती कवियों के जीवनचरित, बड़ी-बड़ी तीन जिल्ढों में भरकर, चरित-रूपिणी त्रिपथगा प्रवाहित की है। एक दफ़े यही जानसन साहब कुछ भद्र महिलाओं का मधुर और मनोहर व्यवहार देखकर बड़े प्रसन्न हुए। इस सुंदर व्यवहार की उत्पत्ति का कारण खोजने पर उन्हें मालूम हुआ कि इन महिलाओं ने अपनी-अपनी माताओं के कठिन शासन की कृपा ही से ऐसा भद्रेचित व्यवहार सीखा है। इस पर उनके मुँह से सहसा निकल पड़ा—

    Rod I will honour tuee for this tby duty

    अर्थात् हे दंड, तेरे इस कर्तव्य-पालन का मैं अत्यधिक आदर करता हूँ। जानसन साहब की इस उक्ति का मूल्य आप कम समझिए। सचमुच ही हम बहुत बड़े सम्मान के पात्र हैं। क्योंकि हमीं तुम लोगों के मानव-जाति के भाग्य-विधाता और नियंता है।

    संसार की सृष्टि करते समय परमेश्वर को मानव हृदय में एक उपदेष्टा के निवास की योजना करनी पड़ी थी। उसका नाम है विवेक। इस विवेक ही के अनुरोध से मानव-जाति पाप से धर-पकड़ करती हुई आज इस उन्नत अवस्था को प्राप्त हुई है। इसी विवेक की प्रेरणा से मनुष्य, अपनी आदिम अवस्था में हमारी सहायता से पापियों और अपराधियों का शासन करते थे। शासन का प्रथम आविष्कृत अस्त्र, दंड, हमीं थे। परंतु कालक्रम से हम अब नाना प्रकार के उपयोगी आकारों में परिणत हो गए है। हमारी प्रयोग-प्रणाली में भी अब बहुत कुछ उन्नति, सुधार और रूपांतर हो गया है।

    पचास-साठ वर्ष के भीतर इस संसार में बड़ा परिवर्तन बहुत उथल-पथल हो गया है। उसके बहुत पहले भी, इस विशाल जगत् में, हमारा राजत्व था। उस समय भी रूस में, आज-कल ही की तरह, मार-काट जारी थी। पोलैंड में यद्यपि इस समय हमारी कम चाह है, पर उस समय वहाँ की स्त्रियों पर रूसी सिपाही मनमाना अत्याचार करते थे और बार-बार हमारी सहायता लेते थे। चीन में तब भी वंश-दंड का अटल राज्य था। तुर्की में तब भी डंडे चलते थे। श्यामवासियों की पूजा तब भी लाठी ही से की जाती थी। अफ़्रीका से तब भी मंबो-जंबो (गैंडे की खाल का हंटर) अंतर्हित हुआ था। उस समय भी वयस्क भद्र महिलाओं पर चाबुक चलता था। पचास-साठ वर्ष पहले, संसार में, जिस दंड-शक्ति का निष्कंटक साम्राज्य था, यह समझना कि अब उसका तिरोभाव हो गया है। प्राचीन काल की तरह अब भी सर्वत्र हमारा प्रभाव जागरूक है। इशारे के तौर पर हम जर्मनी के हर प्रांत में वर्तमान अपनी अखंड सत्ता का स्मरण दिलाए देते हैं। परंतु वर्तमान वृत्तांत सुनाने की अपेक्षा पहले हम अपना पुराना वृत्तांत सुना देना ही अच्छा समझते है।

    प्राचीन काल में रोम-राज्य यूरोप की नाक समझा जाता था। दंड-दान या दंड-विधान में रोम ने कितनी उन्नति की थी, यह बात शायद सब लोग नहीं जानते। उस समय हम तीन भाई थे। रोमवाले साधारण दंड के बदले कशा-दंड (हंटर या कोड़े) का उपयोग करते थे। इसी कशा-दंड के अनुसार हमारे भिन्न भिन्न तीन नाम थे। इनमें से सबसे बड़े का नाम फ्लैगेलम (Flagellum), मँझले का सेंटिका (Sentica) और छोटे का फेरूला (Ferula) था। रोम के न्यायालय और वहाँ की महिलाओं के कमरे हम इन्हीं तीनों भाइयों से सुसज्जित रहते थे। अपराधियों पर न्यायाधीशों की असीम क्षमता और प्रभुता थी। अनेक बार प्रभु या प्रभु-पत्नियाँ, क्या के वशवर्ती होकर, हमारी सहायता से अपने दासों के दुःखमय जीवन का अंत कर देती थीं। भोज के समय, आमंत्रित लोगों को प्रसन्न करने के लिए, दासों पर कशाघात करने की पूर्ण व्यवस्था थी। दासियों को तो एक प्रकार से नंगी ही रहना पड़ता था। वस्त्राच्छादित रहने से वे शायद कशाघातों का स्वाद अच्छी तरह ले सके। इसीलिए ऐसी व्यवस्था थी। यहीं पर तुम हमारे प्रभाव का कहीं अंत समझ लेना। दासियों को एक और भी उपाय से दंड दिया जाता था। छत की कड़ियों से उनके लंबे-लंबे बाल बाँध दिए जाते थे। छत से लटक जाने पर उनके पैरों से कोई भारी चीज़ बाँध दी जाती थी, ताकि वे पैर हिला सकें। यह प्रबंध हो चुकने पर उनके अंगो की परीक्षा करने के लिए हमारी योजना होती थी। यह सुनकर शायद तुम्हारा दिल दहल उठा होगा और तुम्हारा बदन काँपने लगा होगा। पर हम तो बड़े ही प्रसन्न है। ऐसा ही दंड दासों को भी दिया जाता था। परंतु बालों के बदले उनके हाथ बाँधे जाते थे।

    इससे तुम समझ गए होंगे कि रोम की महिलाएँ हमारा कितना आदर करती थी। परंतु यह बात वहाँ के कर्तृपक्ष को असह्य हो उठी। उन्होंने कहा—'इस दंड-देव का इतना आदर उन्होंने हमारी इस उपयोगिता में विघ्न डालने के लिए कई क़ानून बना डाले। सम्राट आड्रियन के राजत्वकाल में इस क़ानून को तोड़ने के अपराध में एक महिला को पाँच वर्ष का देश-निर्वासन दंड मिला था। अस्तु।

    अब हम जर्मनी, फ़्रांस, रूस, अमेरिका आदि का हाल सुनाते हैं। ध्यान लगाकर सुनिए। इन सब देशों के घरों, स्कूलों और अदालतों में भी पहले हमारा निश्चल राज्य था इनके सिवा संस्कार-घरों (Houses of correction) में भी हमारी षोडशोपचार पूजा होती थी। इन संस्कार-घरों अथवा चरित्र सुधार-घरों में चरित्र और व्यवहार-विषयक दोषों का सुधार किया जाता था। अभिभावक जन अपनी दुश्चरित्र स्त्रियों और अधीनस्थ पुरुषों को इन घरों में भेज देते थे। वहाँ वे हमारी ही सहायता हमारे ही आघात से सुधारे जाते थे।

    जर्मनी में तो हम अनेक रूपों में विद्यमान थे। हमारे रूप थे कशादंड, वेत्रदंड, चर्मदंड आदि। कोतवालों और न्यायाधीशों को कशाघात करने के अख़तियारात हासिल थे। संस्कार घरों में हतभागिनी नारियों ही की संख्या अधिक होती थी। वहाँ बहुधा निरपराधिनी रमणियों को भी, दुष्टों के फंदे में फँसकर, कशाघात सहने पड़ते थे। पहले वे नंगी कर डाली जाती थीं। तब उन पर बेंत पड़ते थे। जर्मन भाषा के ग्रंथ-साहित्य में इस कशाधात का उल्लेख सैकड़ों जगह पाया जाता है।

    फ़्रांस में भी हमने मनमाना राज्य किया है। वहाँ के विद्यालयों में किसी समय, हमारा बड़ा प्रभाव था। विद्यालयों में कोमलकलेवरा बालिकाओं को भी हमें चूमना पड़ता था। यहाँ तक कि उन्हें हमारा प्रयोग करने वाली का अभिवादन भी करना पड़ता था। फ़्रांस में तो हमने पवित्रहृदया कामिनियों के कर-कमलों को भी पवित्र किया था। आपको इस बात का विश्वास हो तो एक प्रमाण लीजिए। “रोमन-डि-लारोज नामक काव्य में कविवर क्लपिनेले ने स्त्रियों के विरुद्ध चार सतरे लिख मारी है। उनका भावार्थ कवि पोप के शब्दों में है- Every woman is at heart a rake इस उक्ति को सुनकर कुछ सम्मानीय महिलाएँ बेतरह कुपित हो उठी। एक दिन उन्होंने कवि को अपने क़ब्ज़े में पाकर उसे सुधारना चाहा। तब यह देखकर कि इनके पंजों से निकल भागना असंभव है, कवि ने कहा—मैंने ज़रूर अपराध किया है। अतएव मुझे सजा भोगने में कुछ भी उन नहीं। पर मेरी एक प्रार्थना है। वह यह कि उस उक्ति को पढ़कर जिस महिला को सबसे अधिक बुरा लगा हो वही मुझे पहले दंड दे।” इसका फैसला कोई स्त्री कर सकी। फल यह हुआ कि कवि पिटने से बच गया।

    रूस में भी हमारा आधिपत्य रह चुका है। वहाँ तो सभी प्रकार के अपराध करने पर साधारण दंड या कशादंड से प्रायश्चित्त कराया जाता था। क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बालक, क्या वृद्ध, क्या राजकर्मचारी, क्या साधारण जन, सभी को अपराध करने पर हमारा अनुग्रह ग्रहण करना पड़ता था। किसान तो हमारी कृपा के सबसे अधिक पात्र थे। उन पर तो, जो चाहता था वही, निःशंक और निःसंकोच, हमारा प्रयोग करता था। हमारा प्रसाद पाकर वे बेचारे चुपचाप चल देते थे और अपना क्रोध अपनी पत्नियों और पशुओं पर प्रकट करते थे। रूस के अमीरों और धनवानों से हमारी बड़ी ही गहरी मित्रता थी। दोष-दमन करने में वे सिवा हमारे और किसी की भी सहायता, कभी भूलकर भी, लेते थे। उनका ख़याल था कि अपराधियों को अधमरा करने के लिए ही भगवान ने हमारी सृष्टि की है।

    रूस में तो, पूर्वकाल में, दंडाघात प्रेम का भी चिह्न माना जाता था। विवाहिता बधुएँ अपने पतियों से हमीं को पाने के लिए सदा लालायित रहती थी। यदि स्वामी, बीच बीच में, अपनी पत्नी का दंड-दान नामक आदर करता तो पत्नी समझती कि उसके स्वामी का प्रेम उस पर कम होता जा रहा है। यह प्रथा केवल नीच या छोटे लोगों ही में प्रचलित थी, बड़े-बड़े घरों में भी इसका पूरा प्रचार था। बर्कले नाम के लेखक ने लिखा है कि रूस में दंडाघातों की न्यूनाधिक संख्या ही से प्रेम की न्यूनाधिकता की माप होती थी। इसके सिवा स्नानागारों में भी हमारा प्रबल प्रताप छाया हुआ था। स्नान करने वालों का समस्त शरीर ही हमारे अनुग्रह का पात्र बनाया जाता था। स्टिफेंस साहब ने इसका विस्तृत विवरण लिख रखा है। विश्वास हो तो उनकी पुस्तक देख लीजिए।

    हमारे संबंध में तुम अमेरिका को पिछड़ा हुआ कही मत समझ बैठना। वहाँ भी हमारा प्रभाव कम था। बालकों और बालिकाओं का गार्हस्थ्य जीवन वहाँ हमारे ही द्वारा नियंत्रित होता था प्यूरिटन नाम के क्रिश्चियन-धर्म संप्रदाय के अनुयायियों के प्रभुत्व के समय लोगों को बात-बात में कशाघात की शरण लेनी पड़ती थी। क्वेकर-संप्रदाय को देश से दूर निकालने में अमेरिका के निवासियों ने हमारी ख़ूब ही सहायता ली थी। हमारा प्रयोग बड़े ही अच्छे ढंग से किया जाता था। काठ के एक तख़्ते पर अपराधी बाँध दिया जाता था। फिर उस पर सड़ासड़ बेंत पड़ते थे।

    अफ़्रीका की तो कुछ पूछिए ही नहीं। वहाँ तो पहले भी हमारा अखंड राज्य था और अब भी है। यह एक देश ऐसा है जिसने हमारे महत्त्व को पूर्णतया पहचान पाया है। बच्चों की शिक्षा से तो हमारा बहुत ही घनिष्ठ संबंध था। वहाँ के लोगों का विश्वास था कि हमारा आगमन स्वर्ग से हुआ है और हम ईश्वर के आशीर्वाद रूप हैं। हम नहीं, तो समझना, चाहिए कि परमेश्वर ही रूठा है। मिस्त्रवाले तो इस प्रवाद पर आँख-कान बंद करके विश्वास करते थे। वहाँ के दीनवत्सल महीपाल प्रजावर्ग को इस आशीर्वाद का स्वाद बहुधा चखाया करते थे। इस राज्य में बिना हमारी सहायता के राज-कर वसूल होना प्रायः असंभव था। मिस्त्र के निवासी राजा का प्राप्य अंश, कर, अदा करना चाहते थे। इस कारण हमें उन पर सदा ही कृपा करनी पड़ती थी। उनकी पीठ पर हमारे जितने ही अधिक चिह्न बन जाते थे वे अपने को उतने ही अधिक कृतज्ञ या कृतार्थ समझते थे।

    अफ़्रीका की असभ्य जातियों में स्त्रियों के ऊपर हमारा बड़ा प्रकोप रहता था। ज्योंही स्वामी अपनी स्त्री के सतीत्वरत्न को जाते देखता था त्योंही वह हमारी पूर्ण तृप्ति करके उस कुलकलंकिनी को घर से निकाल बाहर करता था। कभी कभी स्त्रियाँ भी हमारी सहायता से अपने अपने स्वामियों की यथेष्ट ख़बर लेती थी। अफ़्रीका के पश्चिमी प्रांतों में यद्यपि बालक-बालिकाओं पर हमारा विशेष प्रभाव था तथापि उन्हें हमसे भी अधिक प्रभावशाली व्यक्तियों का सामना करना पड़ता था। नटखट और दुष्ट लड़कों और लड़कियों की आँखों में लाल मिर्च मल दी जाती थी। वे बेचारे इस योजना का कष्ट सहन करने में असमर्थ होकर घंटों छटपटाते और चिल्लाते थे। वयस्कों को तो इससे भी अधिक यातनाएँ भोगनी पड़ती थीं। ये पहले पेड़ों की डालों से लटका दिए जाते थे। फिर ख़ूब पीटे जाते थे। देह लोहू-लोहान हो जाने पर उस पर सर्वत्र लाल मिर्च का चूर्ण मला जाता था। याद रहे, ये सब पुरानी बातें हैं। आजकल की बातें हम नहीं कहते क्योंकि हमारे प्रयोग में यद्यपि इस समय कुछ परिवर्तन हो गया है, तथापि हमारा कार्यक्षेत्र घटा नहीं, बढ़ा ही है।

    तुम्हारे एशिया-खंड में भी हमारा राज्य दूर दूर तक फैला रहा है। एशिया कोचक (एशिया माइनर ) के यहूदियों में, किसी समय, हमारी बड़ी धाक थी। वहाँ हमारा प्रताप बहुत ही प्रबल था। ईसाई धर्म फैलाने में सेंट पाल नामक धर्माचार्य ने बड़े-बड़े अत्याचार सहे हैं। वे 48 दफ़े कशाहत और 3 दफ़े दंडाहत हुए थे। बाइबिल में हमारे प्रयोग का उल्लेख सैकड़ों जगह आया है।

    यहूदियों की तरह पारसियों में भी हमारा विशेष आदर था। क्या धनी, क्या निर्धन सभी को-यदा-कदा-डंडो की मार सहनी पड़ती थी। यह चाल बहुत समय तक जारी रही। तदनंतर वह बदल गई। तब माननीय मनुष्यों के शरीर की जगह उनके कपड़ों पर कोड़े लगाए जाने लगे। चीन में तो हमारा आधिपत्य एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक फैला हुआ था। ऐसा एक भी अपराधी था जिसे सजा देने में हमारा प्रयोग होता रहा हो। उच्च राज-कर्मचारियों से लेकर दीन-दुखी भिखारियों तक को, अपराध करने पर, हमारे अनुग्रह का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से करना पड़ता था। दंड की मार खाने में, उस समय, चीनी लोग अपना अपमान समझते थे। हाँ, हमारे कृपा-कटाक्ष से उन्हें जो यंत्रणा भोगनी पड़ती थी उसे वे ज़रूर नापसंद करते थे। बड़े-बड़े सेना-नायक और प्रांत-शासक हमारे कठोर अनुग्रह को प्राप्त करके भी अपने उच्च पदों पर प्रतिष्ठित रहते थे। चीन में अपराधियों ही तक हमारे कोप की सीमा बद्ध थी। कितने ही निरपराध जन भी हमारे स्पर्श-सुख का अनुभव करके ऐसे गद्गद हो जाते थे कि फिर जगह से उठ तक सकते थे। हमारी पहुँच बहुत दूर-दूर तक थी। चोरों, डाकुओं और हत्यारों आदि को जब कोतवाल और पुलिस के अन्य प्रतापी अफ़सर पकड़ सकते थे तब वे हमारी शरण आते थे। उस समय हम उन पर ऐसा प्रेम दरसाते थे कि उछल-उछलकर उनकी देह पर जा पड़ते थे! चीन की पुरानी अदालतों में जितने अभियुक्त और गवाह आते थे वे बहुधा बिना हमारा प्रसाद पाए लौट सकते थे।

    चतुर और चाणाक्ष चीन के अद्भुत क़ानून की बात कुछ पूछिए। वहाँ अपराध के लिए अपराधी ही ज़िम्मेदार नहीं। उसके दूर तक के संबंधी भी ज़िम्मेदार समझे जाते थे। जो लोग इस ज़िम्मेदारी का ख़याल करते थे उन्हें स्वयं हम पुरस्कार देते थे। चीन में एक सौ परिवारों के पीछे एक मंडल की स्थापना होती थी। उसकी ज़िम्मेदारी भी कम होती थी। यदि कोई व्यक्ति अपने फिरके के सौ कुटुंबों का कोई अपराध करता तो उसके बदले में मंडल सजा पाता था। देव-सेवा के लिए रखे गए शूकर-शावक बीमार या दुबले हो जाते हो प्रति शावक के लिए तत्वावधायक पर पचास डंडे लगते थे।

    चीनी की विवाह-विधि में भी हमारी विशेष प्रतिपत्ति थी। पुत्र-कन्या की सम्मति लिए बिना ही उनका पहला पाणिग्रहण कराने का अधिकार माता-पिता को प्राप्त था। परंतु दूसरा विवाह वे करा सकते थे। यदि वे इस नियम का उल्लंघन करते तो उन पर तड़ातड़ अस्सी डंडे पड़ते थे। विवाह-संबंध स्थिर करके यदि कन्या का पिता उसका विवाह किसी और वर के साथ कर देता तो उसे भी अस्सी डंडे खाने पड़ते। जो लोग अशौच-काल में विवाह कर लेते थे उनकी पूजा पूरे एक सौ दंडाघातों से की जाती थी। स्वामी के जीवन-काल ही में जो रमणियाँ सम्राट द्वारा सम्मानित होती, वे, विधवा होने पर, पुनर्विवाह कर सकती थी। यदि कोई अभागिनी इस क़ानून को तोड़ती तो उसे पुरस्कृत करने के लिए हमें सौ बार उसके कोमल कलेवर का चुंबन करना पड़ता।

    ये हुई पुरानी बातें! अपना नया हाल सुनाना हमारे लिए, इस छोटे से लेख में, असंभव है। अब यद्यपि हमारे उपचार के ढंग बदल गए हैं और हमारा अधिकार-क्षेत्र कहीं कहीं संकुचि हो गया है, तथापि हमारी पहुँच नई-नई जगहों में हो गई है। आजकल हमारा आधिपत्य केनिया, ट्रांस्वाल, केप कालनी आदि विलायतों में सबसे अधिक है। वहाँ के गोरे कृषक हमारी ही सहायता से हवशी और अन्य देशीय कुलियों से बारह-बारह सोलह-सोलह घंटे काम कराते हैं। वहाँ काम करते-करते, हमारा प्रसाद पाकर, अनेक सौभाग्यशाली कुली समय के पहले ही स्वर्ग सिधार जाते हैं। फोजी, जमाइका, गायना, मारिश आदि टापुओं में भी हम ख़ूब फूल-फल रहे हैं। जीते रहें गन्ने की खेती करने वाले गौरकाय विदेशी। वे हमारा अत्यधिक आदर करते है। कभी अपने हाथ से हमें अलग नहीं करते। उनकी बदौलत ही हम कुलियों को पीठ, पेट हाथ आदि अंग-प्रत्यंग छू-छूकर कृतार्थ हुआ करते हैं अथवा कहना चाहिए कि हम नहीं हमारे स्पर्श से वही अपने को कृतकृत्य मानते हैं। अंडमन टापू के क़ैदियों पर भी हम बहुधा ज़ोर-आज़माई करते हैं। इधर भारत के जेलों में भी, कुछ समय से हमारी विशेष पूछ-पाछ होने लगी है। यहाँ तक कि पढ़े-लिखे क़ैदी भी हमारे संस्पर्श से अपना परित्राण नहीं कर सकते। कितने ही असहयोगी कैदियों की अक्ल हमीं ने ठिकाने लगाई है।

    हम और सब कहीं की बातें तो बता गए, पर इंग्लैंड के समाचार हमने एक भी नहीं सुनाए। भूल हो गई। क्षमा कीजिए। ख़ैर तब सही, अब सही। सूद में अब हम भारतवर्ष का भी कुछ हाल सुना देगे। सुनिए—

    लक्ष्मी और सरस्वती की विशेष कृपा होने से इंग्लैंड अब उन्नत और सभ्य हो गया है। ये दोनों ठहरी स्त्रियाँ। और स्त्रियाँ बलवानों ही को अधिक चाहती हैं। निर्बलों को नहीं। सो बलवान होना बहुत बड़ी बात है। सभ्यता और उन्नति का विशेष आधार पशुबल ही है। हमारी इस उक्ति को सच समझिए और गाँठ में मजबूत बांधिए। सो सभ्य और समुन्नत होने के कारण इंग्लैड में अब हमारा आदर कम होता जाता है। तिस पर भी कशादंड का प्रचार वहाँ अब भी ख़ूब है। कोड़े वहाँ अब भी ख़ूब बरसते हैं। वहाँ के विद्यालयों में हमारी इस मूर्ति की पूजा बड़े भक्ति-भाव से होती है। हमारा प्रभाव घोड़े की पीठ पर जितना देखा जाता है उतना अन्यत्र नहीं। इसके सिवा सेना में भी हमारा सम्मान अभी तक थोड़ा बहुत बना हुआ है।

    भारतवर्ष में तो हमारा एकाधिपत्य ही सा है। भारत अपाहिज है। इसीलिए भारतवासी हमारी मूर्ति को बड़े आदर से अपनी छाती से लगाए रहते हैं। वे डरते हैं कि हो जो कहीं धन-मान की रक्षा का एकमात्र बचा खुचा यह साधन भी छिन जाए। इसी से हम पर उन लोगों का असीम प्रेम है। भारतवासी असभ्य और अनुन्नत होने पर भी विलासप्रिय कम हैं। इसीलिए वे ऋषियों और मुनियों द्वारा पूजित हम दंड-देव के आश्रय में रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं। शिक्षकों का बेंत या कमची, सवारों का हंटर, कोचमैनों का चाबुल, गाड़ीवानों को औगी या छड़ी, शुहदों के लट्ठ, शौक़ीन बाबुओं को पहाड़ी लकड़ी, पुलिसमैनों के डंडे, बूढ़े बाबा की कुबड़ी, भँगेड़ियों के भवानीदीन और लठतों की लाठियाँ आदि सब क्या है? ये सब हमारे ही तो रूप है। ये सभी, शासनकार्य में सहायक होते है। भारत में ऐसे हज़ारों आदमी हैं जिनकी जीविका के आधार एकमात्र हम हैं। थाना नाम के देवस्थानों में हमारी ही पूजा होती है। हमारी कृपा और सहायता के बिना हमारे पुजारी (पुलिसमैन) एक दिन भी अपना कर्तव्यपालन नहीं कर सकते। भारत में तो एक भी पहले दरजे का मैजिस्ट्रेट ऐसा होगा जिसकी अदालत के अहाते में हमारे उपयोग की योजना का पूरा पूरा प्रबंध हो। जेलों में भी हमारी शुश्रूषा सर्वदा हुआ करती है। इसी से हम कहते है कि भारत में तो हमारा एकाधिपत्य है।

    बहुत समय हुआ, हमने अपने अपूर्व, अलौकिक और कौतूहलोद्दीपक चरित का सारांश प्रदीप के पाठकों को सुनाकर उन्हें मुग्ध किया था। उसे बहुत लोग शायद भूल गए हो। इससे उसकी पुनरावृत्ति आज हमें करनी पड़ी। पाठक, हम नहीं कह सकते कि हमारा यह चारुचरित सुनकर आप भी मुग्ध हुए या नहीं। कुछ भी हो, हमने अपना कर्तव्य कर दिया। आप प्रसन्न हो, या हो पर इससे हम कितने प्रसन्न हैं, यह हम लिख नहीं सकते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी निबंधमाला (पहला भाग ) (पृष्ठ 96)
    • संपादक : श्यामसुंदर दास
    • रचनाकार : महावीर प्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा

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