भारतीय चित्रकला
bharatiy chitrakla
रोचक तथ्य
श्रीयुत दयानंद' नाम से फ़रवरी, 1927 में प्रकाशित 'समालोचना-समुच्चय' में संकलित।
कविता, संगीत, चित्रकला और मूर्ति-निर्माण-विद्या की गिनती ललित कलाओं में है। असभ्य, अशिक्षित और असंस्कृत देशों में इन कलाओं का उत्थान नहीं होता। जिन कृतविद्य और शिक्षा-संपन्न देशों के निवासियों के हृदय, मानवीय विकारों के अनुभव से, संस्कृत और सुपरिमार्जित हो जाते हैं वही इन कलाओं के निर्माण की ओर आकृष्ट होते और वही इनसे परमानंद की प्राप्ति भी कर सकते हैं। परंतु ऐसे देशों में एक प्रकार के और भी सौभाग्यशाली जन जन्म पाते हैं जो इन कलाओं के ज्ञाताओं और निर्माण कर्ताओं से भी अधिक सहृदय होते हैं। वे इन कलाविदों की कृतियों से कभी-कभी उस अलौकिक आनंद की प्राप्ति करते हैं जो उनकी सृष्टि करने वालों को भी नसीब नहीं। वे व्यक्ति कलावेत्ताओं के द्वारा निर्मित कलाओं के नमूनों में ऐसी-ऐसी बारीकियाँ खोज निकालते हैं जिनका अनुभव स्वयं निर्माताओं को भी नहीं होता, इतर जनों की तो बात ही नहीं। मनुष्य हृदय के सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा गुप्त भावों को हृदयंगम करने वाले ये पिछले भव्य भावुक धन्य हैं। इनके संवेद्य भावों का यथेष्ट अभिनंदन इन्हीं के समकक्ष अन्य सहृदय सज्जन कर सकते हैं, दूसरे नहीं।
चित्रकारों और कवियों के कार्य में विलक्षण साम्य या साधर्म्य होता है। कवि अपने शब्दचित्र द्वारा प्रकृति के प्रसार और मानवी हृदयों के विकार का प्रदर्शन करता है और चित्रकार उन्हीं बातों का प्रदर्शन अपने चित्रपट के द्वारा करता है। दोनों में भेद केवल इतना ही होता है कि कवि की कृति दूसरों के लिए श्रोतृगम्य होती है और चित्रकार की कृति चक्षुरिंद्रिरयगम्य। एक से प्राप्त आनंद का अनुभव कान के द्वारा होता है; दूसरे का आँख के द्वारा। पर तल्लीनता और आनंदोन्मेष, जो आत्मा का धर्म है, दोनों की कृतियों से एक-सा होता है।
कवि अपनी ही आत्मा को प्रसन्न करने के लिए अपना काम नहीं करते। तुलसीदास आदि भक्त कवियों को आप छोड़ दीजिए। चित्रकार भी अपनी कृति से अन्यों ही को अधिकतर आनंदित करना चाहते हैं। ये लोकोत्तर पुण्य-पुरुष स्वार्थी नहीं होते। ये परार्थं को स्वार्थं से अधिक श्रेयस्कर समझते हैं। अतएव इनके ललित और कोमल कार्य-कलाप से जितने ही अधिक लोगों का मनोरंजन हो, समझना चाहिए कि ये अपनी कृति के उद्देश में उतने ही अधिक सफल काम हुए। इस दशा में यह स्पष्ट है कि इनके कार्यों से आनंद का यथेष्ट अनुभव वही कर सकते हैं जिनका हृदय इन्हीं के सदृश, किम्बहुना इनसे भी अधिक, सुसंस्कृत, कोमल और भावग्राही होता है। इन भावग्राही जनों के हृदय में सहृदयता का अंश ख़ूब अधिक होता है। बात यह है कि कवि और चित्रकार तो स्वयं ही जानते हैं कि उन्होंने अपनी अमुक कृति में अमुक भाव या भावों का विकास किया है। पर दर्शक या श्रोता इस बात को नहीं जानता। उसे तो अपनी प्रखर भावग्राहिणी शक्ति ही से उस भाव को ढूँढ़ निकालना पड़ता है। अतएव इस दृष्टि से, कवि और चित्रकार की अपेक्षा सरसहृदय श्रोता या दर्शक विशेष प्रशंसनीय हैं। इसके कुछ उदाहरण लीजिए—
कालिदास ने अपने 'मेघदूत' में एक मेघ के द्वारा यज्ञ की प्रेयसी को संदेश भिजवाया है। उस संदेश का एक अंश है—
त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलाया—
मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम्।
अस्त्रै स्तावन्मुहुरुपचितैर्दृ ष्टिरालुप्ते मे
क्रूरतस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्तः॥
यज्ञ कहता है—तुझ प्रणयकुपित प्रेयसी का चित्र मैं गैरिक (गेरू) से बनाता हूँ तदनंतर जब तक मैं अपना भी चित्र वहीं बनाकर, तुझे मनाने के लिए, तेरे पैरों पर अपना सिर रखना चाहता हूँ, तब तक मेरे आँसुओं से मेरी दृष्टि का लोप ही हो जाता है। हाय! चित्र में भी हम दोनों का समागम नहीं होने पाता।
एक साधारण संस्कृतज्ञ से किसी ने पूछा कि, पंडित जी इस श्लोक में कालिदास ने गैरिक से चित्र बनाने का उल्लेख क्यों किया? उत्तर में पंडित जी ने फ़रमाया कि पहाड़ पर क्या क़लम-दवात रखी थी, अथवा दया वहाँ रंगों का बक्स और ब्रश धरा था? गेरू हो वहाँ सुलभ थी। इसी से उसका प्रयोग किया। इस पर वह एतराज हुआ कि महाराज, पहाड़ों ही से कोयला, खड़िया, कासीस और शिलाजीत भी तो प्राप्त होता है। गेरू में ऐसी कौन-सी विशेषता थी जो उसी से चित्र बनाया गया। इसका जवाब पंडित जी न दे सके। पर दैवयोग से वहीं मिस्टर एन० सी० मेहता के सदृश एक चित्र-कलाभिज्ञ रसिक शिरोमणि बैठे हुए थे। उनसे न रहा गया। वे बोल उठे—कुपित मनुष्य, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष और चाहे उसके कोप का कारण प्रणय हो चाहे अपमान, चाहे और कुछ, उसका चेहरा तमतमा उठता है और उस पर अरुणिमा छा जाती है। उसे प्रकट करने के लिए अरुणवर्ण गैरिक ही का प्रयोग उचित था। इससे खड़िया और कोयले से काम न लेकर कालिदास ने गेरू ढूँढ़ने की तकलीफ़ गवारा की। कहने की आवश्यकता नहीं, इस पिछले उत्तरदाता का हृदय सरसता से लबालब भरा था। इसी से उसने उस ख़ूबी का पता लगा लिया जो शायद कालिदास के भी ध्यान में न आई होगी। एक और उदाहरण लीजिए किसी की उक्ति है—
इयं सन्ध्या दूरादहमुपगतो हन्त मलयात्
तवैकान्ते गेहे तरुणियत नेष्यामि रजनीम्।
समीरेणोक्तैवं नवकुसुमिता चूतलतिका
धुनाना मूर्द्धानं नहि नहि नहीत्येव कुरुते॥
बसंत ऋतु थी। शाम हो गई थी। ऐसे समय में फूले हुए आम की लता से मलयानिल कहता है—मैं बहुत दूर, मलयाचल से जा रहा हूँ। थक गया हूँ। बेला कुबेला है। हे तरुणी आलते! अपने इस एकांत घर में मुझे रात भर पड़ा रहने दे। इसके उत्तर में वह लतिका, अपना सिर तीन दफ़े हिला-हिलाकर कहती है—नहीं, नहीं, नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती।
एक अरसिक से इस नकारात्मक निषेध का कारण पूछा गया तो उसने बताया कि कोई भी तरुण स्त्री, अपने एकांत घर में रात को, किसी अपरिचित पुरुष को रहने की आशा कदापि नहीं दे सकती। लोकाचार यही है। इससे च्युत होने वाली कुलकामिनी कलंकित समझी जाती है। इसी से आम्रलता ने पवन को अपने घर नहीं ठहरने दिया। यह उत्तर एक काव्य-कला-मर्मज्ञ के हृदय में पैने बाण की तरह घुस गया। उसने कहा—आपने अर्थ का अनर्थ कर डाला। आम्रलता का अभिप्राय तो इसका बिलकुल ही उलटा था। उसने तो उस रसिक पवन-पथिक को ठहराना स्वीकार कर लिया। उसने तीन दिन बाद आने की अवधि नियत कर दी। इसका संकेत उसने तीन ही बार न, न, न कह कर दिया। इसका कारण भी उसने, अपने को नवकुसुमित कह कर, प्रकट कर दिया। सच पूछिए तो यह दूसरा अर्थ उन्हीं संस्कृत हृदयों के ध्यान में आ सकता है जिनको परमात्मा ने सरसता और सहृदयता प्रदान की है।
चित्रों के विषय में भी यही बात चरितार्थ है। एक प्रवासी पति ने अपनी पत्नी के पास अपना चित्र भेजा। उसे देखकर उसका नन्हा-सा तीन वर्ष का बच्चा, सिहर उठा। वह अपनी माँ की गोद में यह कहकर छिपा रहा कि बाबा गुस्से में हैं। और सचमुच वह चित्र उसी भाव का व्यंजक था।
सुनते हैं, एक स्त्री के चित्र में किसी भी अंग का विशेष उपचय न दिखाया जाने पर भी, चित्रकला के एक मर्मज्ञ ने, केवल उसके मुखगत भावों से उसकी गर्भावस्था ताड़ ली थी।
बनारस में एक रईस साहब1 चित्रकला के ज्ञाता हैं। उनके पास चित्रों का संग्रह भी अच्छा है। एक दिन वे हमें अपने कुछ चित्र दिखाने लगे। हम ठहरे इस कला में बिलकुल ही कोरे। अतएव दो चार मामूली आलोचनात्मक बातों से उनकी प्रशंसा करके हम चुप ही रहे। इस पर जब उन्होंने कुछ चित्रों की ख़ूबियाँ बयान कीं तब हम स्तब्ध हो गए। हमें तब जाकर कहीं यह अच्छी तरह मालूम हुआ कि चित्रों का पारखी होने के लिए कुछ लोकोत्तर गुणों की जो आवश्यकता बताई जाती है वह सर्वथा सच है।
भारत में संगीत, चित्रकला और मूर्ति निर्माण का प्रारंभ कब से हुआ, यह तो ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता; पर वैदिक समय में भी उनका अस्तित्व अवश्य था। सामगान होना और वेदों में न तस्य प्रतिमा अस्ति आदि मंत्रों का पाया जाना इसका प्रमाण है। 'कवि शब्द' तो वेदों में अनेक स्थलों पर आया है। रामायण, महाभारत तथा पुराणों में इन कलाओं के नामोल्लेख ही नहीं, इन विषयों के ग्रंथों और ग्रंथकारों तक का उल्लेख है। किसी-किसी में तो इसके लक्ष्य-लक्षण भी पाए गए हैं। काव्यों और नाटकों की तो कुछ पूछिए ही नहीं। चित्रों, चित्रफलकों और देवपाटों के लंबे-लंबे वर्णन तक उनमें है। संगीत, मूर्ति-निर्माण और चित्रकला के विषय में, पीछे तो सैकड़ों ग्रंथ बन गए थे । उनमें से अधिकांश, अनेक कारणों से नष्ट हो गए। अवशिष्टों में से कुछ छपकर प्रकाशित हो भी गए हैं और कुछ शायद प्राचीन संग्रहालयों में पढ़े, अब तक सड़ रहे होंगे।
बौद्धों और जैनियों की बड़ी ही सुंदर मूर्तियाँ तो अब भी हज़ारों की संख्या में यहाँ मौजूद हैं। आाततायियों के द्वारा कितनी नष्ट हो गईं, और कितनी विदेशों में पहुँच गईं। यह बताना कठिन है। मूर्तियाँ बहुत दिनों तक रह सकती हैं। जब तक वे स्वयं स्थान भ्रष्ट होकर विकृत नहीं हो जातीं या जब तक तोड़ी नहीं जातीं तब तक बनी रहती हैं। इसी से बहुत बड़ी संख्या में अब तक पाई जाती हैं और भारतीय मूर्ति-निर्माण-कला की ऊर्जितावस्था की गवाही दे रही हैं पर चित्र बहुत समय तक—हज़ारों वर्ष तक—नहीं रह सकते। वे प्रायः काग़ज़ और कपड़े (कनवास याने किरमिच) तथा दीवारों पर बनते हैं। इसी से शीघ्र बिगड़ जाते, फट जाते और रंगों की असलियत को खो देते हैं। ग्रंथों की नक़ल तो कोई भी लिपिकार कर सकता है। अतएव उनकी अत्यधिक ह्रास या नाश भारत में नहीं हुआ। पर चित्रों की नक़ल करना सबका काम नहीं। चित्रकार ही चित्रों की नक़ल कर सकता है और प्रसिद्ध-प्रसिद्ध चित्रकारों की कृतियों की नक़ल करने के लिए तो उन्हीं के सदृश चतुर चितेरे चाहिए। ऐसे चितेरे सर्वत्र ही दुर्लभ होते हैं। यही कारण हैं जिनसे भारत की प्राचीन चित्रकला के उतने नमूने नहीं मिलते जितने कि मूर्तियों के मिलते हैं। तथापि चित्र प्रेमियों के संग्रह में अब भी पुरानी क़लम के सहस्रशः चित्र ऐसे पाए जाते हैं जिनकी भाव-व्यंजकता, शारीरिक शुद्ध-चित्रण और रंगों का वैशद्य आदि देखकर चित्रकलाकोविदों के मनोमयूर नृत्य करने लगते हैं। कवियों के लिए जैसे शब्दों, वृत्तों और स्वाभाविक वर्णनों की आवश्यकता होती है वैसे ही चित्रकारों के लिए चित्रित वस्तु के स्वाभाविक रंग-रूप की तद्वत् प्रतिकृति निर्मित करने की आवश्यकता होती है। तथापि चित्रकार और कवि के लिए ये गुण गौण हैं। इन दोनों ही का मुख्य गुण तो है भावव्यंजकता। जिसमें भाव-व्यंजना जितनी ही अधिक होती है वह अपनी कला का उतना ही अधिक ज्ञाता समझा जाता है।
भारत की बहुत प्राचीन चित्रकला के नमूने जिन्हें देखना हो उन्हें एलोरा के गुफ़ा-मंदिरों की सैर करनी चाहिए। वहाँ दीवारों और छतों पर हज़ारों वर्ष के पुराने रंगीन चित्र अब भी प्रायः पूर्ववत् बने हुए हैं। दक्षिण के कुछ मंदिरों में भी—जैसे एलोरा और सितानवासल के गुफ़ा मंदिरों में पुराने चित्र पाए जाते हैं। उन चित्रों को देखकर देशों और विदेशी, सभी चित्र कलाकोविद मुग्ध हो जाते हैं। एक साहब ने तो अजंता के अधिकांश चित्रों की नक़ल पुस्तकाकार प्रकाशित कर दी है। पुरातत्व-विभाग के कितने ही अधिकारियों ने अन्यान्य स्थानों के भी प्राचीन भारतीय शिल्प का उद्धार किया है। वे सब भिन्न-भिन्न पुस्तकों और रिपोटों में विद्यमान हैं। भारतीय चित्रकला का अभ्यास अभी बहुत कम हुआ है और रामगिरि, अजंता, वाढा, सितानवासल एलोरा को छोड़कर मध्यकालीन चित्र-सामग्री अभी तक अप्राप्य है।
मुग़ल बादशाहों के विशेष करके जहाँगीर के ज़माने में भारतीय चित्रकला पर उनके समानधर्मा चित्रकारों का प्रभाव पड़ा। इस कारण उसकी गति कुछ बदल गई। तथापि वे लोग भारतीय चित्रकारों से भी काम लेते रहे। ये चित्रकार ईरानी चित्रकला से प्रभावान्वित तो हुए पर इन्होंने जो चित्र अपने मन से बनाए उनमें इन्होंने अपनी पैत्रिक कला के तत्त्वों की पूर्ववत् यथासंभव रक्षा की। शाही समय के चित्र अब भी, बहुत बड़ी संख्या में, पाए जाते हैं।
अब तक अपने भारत की प्राचीन कला के नमूने देखने को एकत्र प्राप्य न थे। हाँ, पुरानी सचित्र पुस्तकों में जब भी बहुत से चित्र देखे जाते हैं। परंतु वे सभी उत्कृष्ट नहीं। डॉक्टर कुमारस्वामी ने कुछ चित्र, बहुत समय हुआ, एक साथ निकाले थे। तथापि ये डॉक्टर साहब भारतीय नहीं, सिंहली हैं। कुछ कलावेत्ताओं का यह भी ख़याल है कि मूर्ति-निर्माण-विद्या के वे चाहे भले ही बहुत बड़े ज्ञाता या पारदर्शी हों, पर चित्रकला के वे उतने अच्छे ज्ञाता नहीं। कुछ भी हो, भारत के सौभाग्य से अब एक भारतीय ही सज्जन ने अपने चित्रकलावेत्ता होने का पूरा प्रमाण देने की कृपा की है। आपका नाम है नानालाल चमनलाल मेहता (N.C.Mehta) आई० सी० एस०। आप सिविलियन (Civilian) हैं और शायद इसी प्रांत के प्रतापगढ़ में डेपुटी कमिश्नर हैं। आपने अभी कुछ ही समय हुआ, एक पुस्तक अँग्रेज़ी में लिखकर प्रकाशित की है। उसके प्रकाशक हैं—बंबई के तारापुरवाला ऐंड संस, पुस्तक बहुत बड़ी है। चित्राधिक्य होने के कारण मूल्य उसका 56 रुपए है। नाम पुस्तक का है—'Studies in Indian Painting'—यह पुस्तक स्वयं हमने तो नहीं देखी; परंतु अँग्रेज़ी अख़बारों में इसकी जो संक्षिप्त समालोचनाएँ और परिचय निकले हैं वे यदि यथार्थ हैं और अतिरंजना से पूर्णं नहीं तो इसकी महत्ता में संदेह नहीं।
मेहता महाशय की इस पुस्तक में ईसा की सातवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध तक की चित्रकला के नमूने और उनकी आलोचनाएँ हैं। आपने अनेक नए-नए नमूनों और अनेक नई-नई ख़ूबियों का उद्घाटन किया है। पुस्तक में 9 अध्याय या विभाग और कुल मिलाकर 61 चित्रों का प्रदर्शन है। दक्षिण के पल्लववंशी नरेंद्र महेंद्रवर्मा (प्रथम) के समय के तथा गुजरात के मध्यकालीन भी कुछ दुष्प्राप्य चित्रों का विवरण देकर आपने जहाँगीर के समय के कई विख्यात चित्रकारों के चित्रों की आलोचना की है। मुग़लों के समय की चित्रकारी का ह्रास होने पर अठारहवीं सदी के मध्य में हिंदू शैली की जिस चित्रकला का उदय काश्मीर और कुमायूँ से लेकर राज-पूताने और बुंदेलखंड तक हुआ था उस पर भी मेहता महोदय ने अच्छा प्रकाश डाला है। हिंदूपन से पूर्ण इस पिछली चित्रकारी की कई शाखाएँ थीं। जयपुरी और पहाड़ी आदि शाखाएँ उन्हीं के अंतर्गत हैं। इन सब के विवरण और नमूने देकर मेहता महाशय ने उनको विशेषताएँ बताई हैं। बहुत पुराने समय के चित्र आपको दक्षिणी प्रांतों और पश्चिमी गुजरात ही में अधिक मिले है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं। जिस उत्तरी भारत में ग्यारहवीं सदी ही से आततायियों के आक्रमणों का आरंभ हो गया था मला हिंदुओं की कारीगरी और ललित कलाओं के अधिक चिह्न कैसे सुरक्षित रह सकते थे?
संस्कृत-साहित्य के ग्रंथ देखने से विदित होता है कि पुराने ज़माने में लाट और सौराष्ट्र—आधुनिक गुजरात—संघीय चित्रकला और मूर्ति-विधान के लिए विशेष प्रसिद्ध थे। अकबर के दरबार में भी कई गुजराती चित्रकार और गवैये विद्यमान थे। लाट-देश की चित्रकला का उल्लेख कथासरित्सागर एवं मध्यकालीन प्राकृत-ग्रंथों में भी मिलता है।
साधारण जनों के लिए मेहता महोदय की पुस्तक का अंतिम भाग सबसे अधिक मनोरंजक होगा। उसमें आपने अपनी सहृदयता और चित्रकला की तत्त्वज्ञता का परिचय देकर, पुस्तक में प्रकाशित चित्रों की अच्छी आलोचना की है। जो सज्जन चित्रकला के पारदर्शी वा प्रेमी है, उन्हें चाहिए कि मेहता जी की यह पुस्तक ख़रीदकर इस बात की परीक्षा करें कि उनकी चित्रकलाभिज्ञता की प्रशंसा में अख़बारों ने जो कुछ लिखा है। वह यथार्थ है या नहीं। यदि उसमें उन्हें कुछ त्रुटि भी मिलेगी तो भी आशा है, सरसहृदय चित्रकलाकोविदों को उससे कुछ न कुछ लाभ न सही, मनोरंजन तो अवश्य ही होगा।
मिस्टर मेहता की मातृभाषा गुजराती है। अँग्रेज़ी में पुस्तक उन्होंने इसलिए लिखी होगी, जिससे उसका अधिक प्रचार हो अँग्रेज़ीदां लोग ही इन बातों की क़दर भी अधिक करते हैं। तथापि बहुत से रईस ऐसे भी निकलेंगे जो चित्रों के क़दरदान तो हैं, पर अँग्रेज़ी नहीं जानते। अतएव इस पुस्तक में प्रकाशित चित्रों की केवल ख़ूबियों आदि का संक्षिप्त वर्णन यदि हिंदी में भी लिख दिया जाता तो अँग्रेज़ी न जानने वाले इसी प्रांत के नहीं, कई अन्य प्रांतों के भी चित्रप्रेमियों का उपकार होता।
- पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-2 (पृष्ठ 383)
- संपादक : भारत यायावर
- रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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