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भारत की चित्र-विद्या

bharat ki chitr viddya

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

भारत की चित्र-विद्या

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    नोट

    जनवरी, 1913 में प्रकाशित 'विज्ञान-वार्ता' पुस्तक में संकलित।

    प्राचीन भारत ने जैसे और अनेक विषयों में ऊँचे दरजे की उन्नति की थी वैसे ही मूर्ति-निर्माण और चित्र-विद्या में भी की थी। इस देश की यद्यपि हज़ारों उत्तमोत्तम मूर्तियाँ विधर्म्मी आक्रमणकारियों की तलवारों और हथौड़ों की निर्दय चोटों से नष्ट भ्रष्ट हो गईं तथापि अब भी बौद्धकाल की कितनी ही पुरानी इमारतों में उनके नमूने पाए जाते हैं। ये मूर्तियाँ तो विशेष प्रशंसा योग्य नहीं। परंतु भारतीय नमूने की जो मूर्तियाँ तिब्बत, ब्रह्मदेश, नेपाल, लंका और जावा आदि में पाई जाती हैं उन्हें देखकर मूर्ति-निर्माण-विद्या के आचार्य भारत की मूर्ति-विषयक कारीगरी की जी खोलकर प्रशंसा करते हैं।

    पश्चिम के विद्वानों में यह बड़ा भारी दोष है कि उनमें से बहुतेरे दूसरे देशों की विद्या और कला कुशलता को प्रायः सदा ही पक्षपात पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। इसी कारण विलायतवासी मूर्ति-निर्माण-विद्या के ज्ञाता इस देश की मूर्तियों पर कभी-कभी यह दोष लगाते हैं कि वे शरीर-शास्त्र के नियमों के अनुकूल नहीं; कभी यह कहते हैं कि वे देखने में स्वाभाविक सौंदर्य से बिलकुल ही गिरी हुई हैं; कभी कहते हैं कि प्राचीन भारत के कारीगरों ने मूर्तियाँ बनाने में ग्रीस देश के कारीगरों की नक़ल की है; यह विद्या उनके घर की नहीं। इसी तरह कुछ कुछ मीन-मेष लगाए बिना उन्हें चैन नहीं पड़ती।

    संतोष की बात है कि जहाँ इतने दोषदर्शी समालोचक हैं वहाँ एक गुणदर्शी विद्वान् भी है। उन्हें पक्षपात बिलकुल ही नहीं छू गया। उनका नाम है—ई० वी० हेविल। वे पहले कलकत्ते में स्कूल ऑफ़ आर्ट्स के प्रधान अध्यापक थे। अब आप पेंशन लेकर चले गए हैं और विलायत में हैं। आपने मूर्ति-निर्माण और चित्र-विद्या पर एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सचित्र ग्रंथ लिखा है। उसमें आपने भारतीय चित्र-विद्या। और मूर्ति-निर्माण-विद्या की बड़ी बड़ाई की है। उन्होंने इस बात को सप्रमाण सिद्ध किया है कि इन कलाओं की प्राप्ति में भारतवासी किसी के ज़रा भी ऋणी नहीं। ये सब बातें हम आपके पूर्वोक्त ग्रंथ ही से लिख रहे हैं।

    भारत की पुरानी मूर्तियों के उत्कृष्ट नमूने तो लंका, नेपाल और तिब्बत आदि में मिलते भी हैं; परंतु बहुत पुराने चित्रों के नमूने कहीं नहीं मिलते। मूर्तियाँ धातु और पत्थर की बनती हैं। इसलिए वे तोड़ी-फोड़ी जाएँ तो हज़ारों वर्ष रह सकती हैं। परंतु चित्र काग़ज़, कपड़े, चमड़े या दीवार आदि पर बनाए जाते हैं। इसलिए यदि बहुत अधिक सावधानी की जाए तो वे जल्द नष्ट हो जाते हैं। तिस पर भी इस देश में कितने ही रंगीन चित्र बहुत पुराने पाए जाते हैं। उनसे यह साफ़ ज़ाहिर है कि भारत में मूर्ति-निर्माण-विद्या की तरह चित्र-विद्या में भी बड़ी उन्नति हुई थी। दक्षिण में अजंटा नामक स्थान में जो गुहा-मंदिर हैं वे ईसा के कोई दो सौ वर्ष पहले के हैं—अर्थात उनको बने दो हज़ार वर्ष से भी अधिक समय हुआ। इन मंदिरों की दीवारों और छतों पर जो चित्रकारी हुई थी उसके कोई-कोई अंश अब तक अच्छी दशा में है। वे चित्र-विद्या के लोकोत्तर नमूने हैं। उन्हें देखकर आजकल के भी पश्चिमी चित्र-विद्या-विशारंद दंग रह जाते है। अजंटा की इस चित्रकारी का वर्णन एक विलायती विद्वान् ने पुस्तकाकार प्रकाशित किया है। उसमें उसने चित्रों के अनेक रंगीन और सादे नमूने भी दिए हैं। इन चित्रों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि बहुत पहले नहीं तो, आज से दो हज़ार वर्ष पूर्व, भारत में चित्रण-कला की बड़ी ही अर्जितावस्था थी। परंतु भारत के यही सबसे पुराने चित्र नहीं। रामायण, महाभारत तथा पुराणादि में अनेक स्थलों पर चित्रशालाओं का जो वर्णन है वह सूचित कर रहा है कि बौद्धकाल के बहुत पहले भी यहाँ चित्र-विद्या उन्नति को पहुँच चुकी थी। राजों और धनवानों के मकानों की दीवारों पर धार्मिक और ऐतिहासिक दृश्य बड़ी ख़ूबी से चित्रित किए जाते थे। यही नहीं, किंतु लकड़ी और कपड़े आदि पर भी चित्र उतारे जाते थे। कालिदास ने अपने नाटकों में कई जगह चित्रफलकों का जो उल्लेख किया है वे चित्र ऐसे ही थे। कालिदास के बाद, ईसा के छठे शतक में, भवभूति ने उत्तर-रामचरित में जिन चित्रों का उल्लेख किया है उनके विषय में विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं। जिन्होंने उत्तर-रामचरित देखा है वे अवश्य ही रामचंद्र की चित्रशाला से परिचित होंगे। नागानंद आदि छठे शतक के बाद के नाटकों में भी ऐसी चित्रशालाओं का उल्लेख है।

    तक्षशिला, नालंदा और श्रीधन्य कटक में जो विश्वविद्यालय थे उनमें और, और विषयों के सिवा चित्र-विद्या और मूर्ति-निर्माण-विद्या की भी शिक्षा दी जाती थी। सिंहल-द्वीप और चीन तक के विद्यार्थी इन कलाओं को सीखने के लिए यहाँ आते थे। इन्हीं विद्यार्थियों ने स्वदेश लौटकर भारत की इन कलाओं का प्रचार अपने-अपने देश में किया। फल यह हुआ कि चीन ही नहीं, कोरिया और जापान तक में, भारत की चित्र-विद्या फैल गई। डॉक्टर स्टीन और वान लिकाक आदि ने तुर्किस्तान में बालू के नीचे दबे हुए बौद्धों के स्तूप और बिहार आदि खोद निकाले हैं। उनकी दीवारों और छतों पर जो चित्रकारी पाई गई है वह प्राचीन भारत के पूर्वोक्त विश्वविद्यालयों को शिक्षा ही का फल है। सिंहल द्वीप अर्थात् लंका की प्राचीन इमारतों में भी भारत की चित्र-विद्या के कुछ नमूने, दीवारों पर, अंकित किए गए मिलते हैं। वहाँ एक जगह का नाम है—सिगिरिया। उसमें इसी तरह के कई एक बहुत अच्छे नमूने अब तक विद्यमान है। ये नमूने रोम और ग्रीस के प्राचीन चित्रों से नहीं मिलते। यहाँ के चित्रों का भाव बिलकुल भारतीय है। वह भाव विदेशी चित्रों में नहीं। जो लोग यह कहते हैं कि भारतीय चित्रों पर रोम और ग्रीस देश की चित्रकला का प्रभाव पड़ा है वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। खेद है, उन्हें इन चित्रों की परीक्षा ही करना ही नहीं आता। वे स्वदेशी और विदेशी चित्रों के भिन्न भाव को पहचान ही नहीं सके।

    तिब्बत में भी कहीं-कहीं बहुत पुरानी चित्रकारी अब तक दृग्गोचर होती है। वह सब भारतीय ढंग की है। उसके कितने ही नमूने कलकत्ते के अजायबघर में रक्षित हैं। इन चित्रों का संबंध विशेषकर बौद्ध धर्म से है। बुद्ध के कई चित्रों के सिवा अलोक का भी एक रंगीन चित्र वहाँ है। वह बड़ा ही सुंदर चित्र है। उसमें अशोक एक बौद्ध भिक्षुक के वेश में अंकित किया गया है।

    बौद्धकाल में भी चित्रण कला की, भारत में, उन्नति रही और उसके अनंतर भी। हिंदू राजों के प्रासादों की दीवारों पर अनेक दृश्यों के चित्र सदा ही अंकित होते रहे। मंदिरों में भी इस चित्रकारी की कमी नहीं रही। काग़ज़ और कपड़े आदि पर भी चित्र बनाए जाते रहे। उस समय के मंदिरों की चित्रकारी के नमूने तो एक-आध कहीं-कहीं मिलते भी हैं, परंतु उसके बाद के नमूने प्रायः दुष्प्राप्य हैं। यह बड़े खेद की बात है।

    यहाँ तक तो हिंदुओं और बौद्धों के समय की बात हुई। मुसलमानों के आगमन से वहाँ की चित्र-विद्या ने एक नया ही रूप धारण किया। तेरहवीं सदी में मुग़ल बादशाहों ने फ़ारिस से चित्रकारों को बुलाकर अपने यहाँ रखा और उनसे फ़ारिसवालों के ढंग के चित्र बनवाना आरंभ किया। मुसलमानी धर्म में जीवधारियों के चित्र बनाने की सख़्त मुमानियत है। जब तक धार्मिक विषयों में बग़दाद के ख़लीफ़ों का प्राबल्य रहा तब तक पशुओं, पक्षियों और मनुष्यों के चित्र नहीं बने। परंतु उस प्राबल्य के कम होते ही मुसलमान चित्रकार भी मनुष्य आदि के चित्र बनाने लगे।

    यहाँ पर एक बात कह देनी चाहिए। वह यह कि फ़ारिस से हिंदुस्तान लाए हुए चित्रकारों की चित्र-विद्या भी एक प्रकार से भारतीय चित्र-विद्या ही की छाया थी। बोद्ध-काल में भारत की चित्र-विद्या तुर्किस्तान और चीन आदि देशों में पहुँची। जब तुर्किस्तान के मंगोल लोग वर्तमान टर्की और फ़ारिस में गए तब भारत से प्राप्त की गई पुरानी चित्र-विद्या का वहाँ उन्होंने प्रचार किया। उन देशों के जलवायु और विचार व्यवहार के अनुसार वहाँ पर एक नए ही ढाँचे में ढली। ईश्वर की माया तो देखिए। इतने लोट-फेर के बाद, परिवर्तित हुई उसी भारतीय चित्रकला में दीक्षित हुए, फ़ारिस के चित्रकार, मुग़लों के दरबार में, भारत पहुँचे।

    भारत में, ईसा की तेरहवीं सदी में, फ़ारिस के ढंग की चित्र-विद्या का आरंभ हुआ। यहाँ उस समय भी अच्छे-अच्छे स्वदेशी चित्रकार थे। वे भी शाही दरबारों में पहुँचे। उनके सहवास से फ़ारिस की चित्र-विद्या ने बहुत कुछ भारतीय भाव धारण कर लिया। यद्यपि यह सब दुआ, तथापि मसजिदों और मक़बरों में, फिर भी, प्राणियों के चित्र अंकित किए जाने की मनाही ही रही। हाँ, अन्यत्र छतों और दीवारों पर, बेल-बूटे और फूल-पत्ते के सिवा अनेक सामाजिक और ऐतिहासिक दृश्य अंकित किए जाने लगे और अलग भी इस प्रकार के उत्तमोत्तम चित्र तैयार होने लगे। फ़ारसी और अरबी को किताबों में वर्णनीय घटनाओं के दृश्य चित्रों में दिखाए जाने लगे। सैकड़ों सचित्र पुस्तकें भी तैयार हो गईं। इनमें से अनेक पुस्तकें इस समय भी विद्यमान हैं, जिनका मूल्य हज़ारों नहीं, लाखों रुपए तक कूता जाता है।

    तेरहवीं से लेकर ईसा की सोलहवीं सदी तक इस प्रकार के जितने चित्र बने वे प्रायः बहुत अच्छे नहीं। तथापि उनमें से कोई-कोई अच्छे भी हैं। कलकत्ते के अजायबघर में उस समय के चित्रों में से एक चित्र बहुत अच्छा है। इस चित्र में सुलतान मुहम्मद बालक के दरबार में नाच का एक दृश्य दिखाया गया है।

    अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ चित्र-विद्या के बड़े प्रेमी थे। उनके दरबार में हिंदू और मुसलमान दोनों जातियों के अनेक प्रतिष्ठित चित्रकार नौकर थे। उन्हें तनख़्वाह भी अच्छी मिलती थीं और उनके बनाए हुए चित्र बादशाह को पसंद जाने पर उन्हें हज़ारों रुपया इनाम भी मिलता था। मुग़ल बादशाहों के लिए लिखी गई चंगेज़नामा, उफ़रनामा, रक्मनामा, नलदमन और रामायण आदि सचित्र पुस्तकों के चित्र देखकर उस समय के शाही चित्रकारों की योग्यता का अच्छा परिचय मिलता है। बसावन, माधव, महेश, जगन, खेमकरण, फ़र्रुख़ ख़्वाजा, अब्दुस्समद आदि उस समय के प्रसिद्ध चित्रकारों में से थे। उस समय की सचित्र पुस्तकों के कई नमूने विलायत की अलबर्ट म्यूज़ियम और कलकत्ते के अजायबघर में मौजूद हैं। जयपुर और अलवर में भी इस तरह की कई बहुमूल्य पुस्तकें हैं। महाराज जयपुर के पास एक 'रज़्मनामा' है। उसको लिखाने में, सुनते हैं, अकबर के छः लाख रुपए ख़र्च हुए थे।

    पिछले मुग़ल बादशाहों के समय में बने हुए बहुत से उत्तमोत्तम चित्र राजा महाराजों के पास अब तक सुरक्षित हैं। कई अच्छे-अच्छे चित्र कलकत्ते के अजायबघर में भी हैं। अमरसिंह के बेटे सूरजमल का चित्र उन्हीं में से है। एक और चित्र भी बहुत अच्छा है। उसमें यह दिखाया गया है कि मशाल के प्रकाश में एक राजकुमार और एक राजकुमारी, रात के समय, एक पहाड़ की घाटी से जा रहे हैं। राजकुमारी हाथ उठाकर कुमार से कह रही है कि जहाँ हम लोगों को जाना है वह जगह सामने ही दिख पड़ रही है। जिस चित्र में रात के समय लालटेन के प्रकाश में धनुष-बाण से हिरनों के शिकार का दृश्य दिखाया गया है वह चित्र भी बहुत अच्छा है। गान समाज और जनाना बाग़ के दृश्य भी जिन चित्रों में अंकित हैं वे भी बड़े ही सुंदर हैं। ये सब चित्र कलकत्ते के अजायबघर में हैं। उनके प्रतिबिंब हेवल साहब ने अपनी पुस्तक में भी दिए हैं। उनका महत्त्व असल रंगीन चित्र देखने ही से अच्छी तरह ध्यान में सकता है। उनसे लिए गए फ़ोटो के चित्रों में उनकी सुंदरता का शतांश भी नहीं।

    मुग़ल बादशाहों का पतन होने पर, ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में भी, भारतीय चित्रकारों की कुछ-कुछ क़दर होती रही। कंपनी के अफ़सर उनसे अपने और अपनी मेम साहिबाओं के चित्र बनवाते रहे। परंतु भारत में फ़ोटोग्राफ़ी का प्रचार होते ही भारतीय चित्रकारों की रोज़ी मारी गई। अब तो ढूँढ़ने से कहीं किसी रियासत में एक-आध अच्छा चित्रकार मिल जाए तो भले ही मिल जाए। हाँ, दक्षिण के राजा रविवर्मा और कलकत्ते के बाबू अवनींद्रनाथ ठाकुर आदि ने भारतीय चित्रविद्या की थोड़ी बहुत लाज रख ली है।

    हेवल साहब का परामर्श कि भारतीयों को विलायती रंग-ढंग और भाव-भंगी वाले चित्रों की नक़ल करनी चाहिए। उन्हें अपने देश, धर्म, समाज के अनुकूल बने हुए चित्रों की क़दर करना चाहिए। पुरानी भारतीय चित्र-विद्या की अवहेलना बने करके उन्हें उससे प्रेम और उसके पुनरुत्थान का प्रयत्न करना चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि चित्रण-कला भी उन कलाओं में से है जो किसी जाति के आधार और व्यवहार की महत्ता और उसकी सभ्यता की श्रेष्ठता का उत्साह वर्धक संदेश उसकी भावी संतानों को सुनाती है। प्राचीन ग्रीस का बाज पता नहीं; परंतु संसार अब भी उसकी बड़ाई का गीत गा रहा है। प्राचीन ग्रीस में बहुत-सी ख़ूबियाँ थीं। परंतु यदि उसमें चित्रकला के सिवा अन्य कोई ख़ूबी होती; तो भी आज उसकी कीर्ति का गान अवश्य ही होता। यदि भारत की प्राचीन सभ्यता के अन्य चिह्न मिलते, तो भी प्राचीन काल में बने हुए उसके अजंटा के खोहों के चित्र और साँची के स्तूपों की मूर्तियाँ ही सहृदय दर्शकों को, निपुण चित्रकारों को, परिश्रमी पुरातत्त्ववेत्ताओं को और देशों तथा जातियों की जीवन-कथा की रक्षा करने वाले इतिहासकारों को सजीव होकर भारत की प्राचीन यशोगाथा, उसके सदाचार और व्यवहार, उसके बुद्धि-वैभव और उसके आध्यात्मिक बल और सभ्यता की वार्ता सहसमुख से सुनाती इस समय भारतीय चित्रविद्या का ह्रास हो रहा है। लोग नक़ल ही में अपनी अक़ल लड़ाने लगे हैं। रंग और ढंग भाव और भंगी सभी की नक़ल की जाती है। यह बात अच्छी नहीं। नक़ल करना मानसिक दौर्बल्य का सूचक है। परंतु चित्रण-कला की सी कला में, जिसके द्वारा आनेवाली संतानें अपने पूर्वजों के आचार और व्यवहार और उनके रहन-सहन के ढंग की जाँच पड़ताल करेंगी, नक़ल करना विदेशी भाव-भंगी से काम लेना—उनमें विदेशी रंग-ढंग का भाव प्रविष्ट कर देना केवल मानसिक दौर्बल्य ही नहीं अक़ल की ग़ुलामी भी है। वह अपनी संतानों को धोखा देने—उन्हें अपने इतिहास, अपने आचरण और रहन-सहन के ढंग जानने के एक पथ को नष्ट कर डालने का पाप —भी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-2 (पृष्ठ 378)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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