चंद्रोदय

chandroday

बालकृष्ण भट्ट

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और अधिकबालकृष्ण भट्ट

    अँधेरा पाख बीता, उजेला पाख आया। पश्चिम की ओर सूर्य डूबा और वक्राकार हँसिया की तरह उसी दिशा में चद्रमा दिखलाई पड़ा। मानो कर्कशा के समान पश्चिम दिशा सूर्य के प्रचंड ताप से दुखी हो क्रोध में इसी हँसिया को लेकर दौड़ रही है और सूर्य भयभीत हो पाताल में छिपने के लिए जा रहा है। अब तो पश्चिम ओर आकाश सर्वत्र रक्तमय हो गया। क्या सचमुच ही इस कर्कशा ने सूर्य का काम तमाम किया जिससे रक्त यह निकला, अथवा सूर्य भी क्रूर हुआ जिससे उनका चेहरा तमतमा गया और उसी की यह रक्त आभा है? इस्लाम धर्म के माननेवाले नए चंद्र की बहुत बड़ी इज़्ज़त करते हैं; सो क्यों? मालूम होता है इसीलिए कि दिन-दिन क्षीण होकर नाश को प्राप्त होता हुआ चंद्रमा मानों सबक देता है कि रमज़ान में अपने शरीर को इतना सुखाओ कि वह नष्ट हो जाए, तब देखो कि उत्तरोत्तर कैसी वृद्धि होती है। अथवा यह कालरूपी श्रोत्रीय ब्राहाण के नित्य जपने का ओंकार महामंत्र है; या अंधकार महाराज के हटाने का अंकुश है; या विरहिणियों के प्राण कतरने की कैंची है; अथवा शृंगार रस से पूर्ण पिटारे के खोलने की कुंजी है; या तारामौक्तिकों से गुंथे हार के बीच का यह सुमेर है, अथवा जंगम जगत् मात्र को डसने वाले अनंगभुजंग के फन पर का चमकता हुआ मणि है; या निशा-नायिका के चेहरे की मुस्कराहट है या सँध्यानारी की कामकेलि के समय में उसकी छाती पर लगा हुआ नखक्षत है; अथवा जगज्जेता कामदेव का धब्बा है, या तारामोतियों की दो सीपियों में से एक सीपी है।

    इसी प्रकार दूज से बढ़ते-बढ़ते यह चंद्र पूर्णता को पहुँचा। यह पूनों का पूरा चाँद किसके मन को भाता होगा? यह गोल-गोल प्रकाश का पिंड देख भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में उदय होती हैं कि क्या यह निशाअभिसारिका के मुख देखने की आरसी है, या उसके कान का कुंडल अथवा फूल है; या रजनीरमणी के लिलार पर बुक्के का सफ़ेद तिलक है; अथवा स्वच्छ नीले आक़ाश में यह चंद्र मानो त्रिनेत्र शिव की जटा में चमकता हुआ कुंद के सफ़ेद फूलों का गुच्छा है। कामवल्लभा रति की अटा में कूजता हुआ यह कबूतर है, अथवा आकाशरूपी बाज़ार में तारारूपी मोतियों का बेचनेवाला सौदागर है। कूई की कलियों को विकसित करते, मृगनयनियों के मान को समूल उन्मूलित करते, छिटकी हुई चाँदनी से सब दिशाओं को धवलित करते, अंधकार को निगलते चंद्रमा सीढ़ी दर सीढ़ी शिखर के समान आकाशरूपी विशाल पर्वत के मध्य भाग में चढ़ा चला रहा है। क्षपा-तम-कांड का हटाने-वाला यह चंद्रमा ऐसा मालूम होता है मानो आक़ाश महासरोवर में श्वेत कमल खिल रहा है जिसमें बीच-बीच जो कलंक की कालिमा है सो मानों भौंरे गूंज रहे हैं। अथवा सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के स्नान करने की यह बावड़ी है, या कामदेव की कामिनी रति का यह चूना पोता धवल गृह आक़ाशगंगा के तट पर विहार करनेवाला हंस है जो सोती हुई कूइयों को जगाने को दूत बनकर आया है; या देवनदी आक़ाशगंगा का पुंडरीक है, या चाँदनी का अमृतकुंड है; अथवा आक़ाश में जो तारे देख पड़ते हैं वे सब गौए हैं उनके झुंड में यह सफ़ेद बैल है; या यह हीरे से जड़ा हुआ पूर्वदिगगना का कर्णफूल है; या कामदेव के बाणों को चोखा करने के लिए शान धरने का सफ़ेद गोल पत्थर है या संध्यानायिका के खेलने का गेंद है। इसके उदय से पहले सूर्यास्त की किरणों से सब ओर जो ललाई छा गई है सो मानो फागुन में इस रसियाचंद्र ने दिगगनाओं के साथ फाग खेलने में अबीर उड़ाई है, वही सब ओर आकाश में छाई हुई है। निशायोगिनी ने तार-प्रसून-समूह से कामदेव की पूजा कर यावत् कामो जनों को अपने वश में करने के लिए छिटकी हुई चाँदनी के बहाने वशीकरण बुक्का उड़ाया है; अथवा स्वच्छ नीले जल से भरे आकाशहौदा में कालमहागणक ने रात के नापने को एक घटीयंत्र छोड़ रखा है; अथवा जगद्विजयी राजा कामदेव का यह श्वेत छत्र है; विवोयीमात्र को कामाग्नि में झुलसाने को यह दिनमणि है, कंदर्पसीमंतिनी रति देवी की छप्पेदार कर्धनी का टिकड़ा है; या उसी में जड़ा चमकता हुआ सफ़ेद हीरा है; या सब कारीगरों के सरताज आतशबाज की बनाई हुई चरखियों का यह एक नमूना है; अथवा महापथगामी समयराज के रथ के सूर्य और चंद्रमारूपी दो पहियों में से यह एक पहिया है जो चलते-चलते घिस गया है। इसी से बीच में कलाई देख पड़ती है; अथवा लोगों की आँखों और मन को तरावट और शीतलता पहुँचानेवाला यह बड़ा भारी बर्फ़ का कुंड है, इसी से वेदों ने परमेश्वर के विराटवैभव के वर्णन में चँद्रमा को मन और नेत्र माना है; या कालखिलाड़ी के खेलने का सफ़ेद गेंद है, समुद्र के नीले पानी में गिरने से सूखने पर भी जिसमें कहीं-कहीं नीलिमा बाकी रह गई है; या तारेरूपी मोतीचर के दानों का यह बड़ा भारी पनसेरा लड्डू है; अथवा लोगों के शुभाशुभ काम का लेखा लिखने के लिए यह विल्लोर की गोल दवात है; या खड़िया मिट्टी का बडा भारी ढोंका है; या काल खिलाड़ी की जेबी घड़ी का डायल है; या रजत का कुंड है; या प्रक़ाश के नीले गुंबज में संगमरमर का गोल शिखर है। शिशिर और हेमंत में हिम से जो इसकी द्युति दब जाती है सो मानो यह तपस्या कर रहा है जिसका फल यह चित्रा के संयोग से शोभित हो चैत्र की पूनों के दिन पावेगा, जब इसकी द्युति फिर दामिनी सी दमकेगी। इसी से कविकुलगुरु कालिदास ने कहा है :

    हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्राचंद्रमसोरिव।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी निबंधमाला (दूसरा भाग ) (पृष्ठ 153)
    • संपादक : श्यामसुंदर दास
    • रचनाकार : बालकृष्ण भट्ट
    • प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा

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