'मैं हूँ ना' प्रस्तुत पुस्तक में लेखक की नुकीली क़लम राजनीतिक यथार्थ की भीतरी परतें भी कुरेदती फरोलती है और 'मैं हूँ ना' के रूप में एक व्यंग्य रचना का जन्म होता है। इस कहानी में फैंटेसी भी है निजी स्वार्थ हेतु, , सत्ता-भोग हेतु, सांठ-गांठ व गठबंधन के प्रतीकात्मक विद्रुप भी हैं। कहानी चाटुकारिता तथा लोगों की चेतना-शून्यता पर भी सशक्त प्रहार करती है, नेताओं का मुखौटा उघाड़ती है।