गअणत गअणत तइला बाड़ी हेञ्चे कुराड़ी

ganat ganat taila baDi henche kuraDi

शबरपा

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गअणत गअणत तइला बाड़ी हेञ्चे कुराड़ी

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    गअणत गअणत तइला बाड़ी हेञ्चे कुराड़ी।

    कण्ठे नैरामणि बालि जागन्ते उपाड़ी॥

    छाड़ छाड़ु माआ मोहा विषम दुन्दोली।

    महासुहे विलसन्ति शबरो लइआ सुणमेहेली॥ध्रुवपद॥

    हेरि से मेरे तइला बाड़ी खसमे समतूला।

    सुकड़ से रे कपासु फुटिला॥ध्रु॥

    तइला बाड़िर पासेँ जोह्ना बाड़ी एउला।

    फिटेल अन्धारि रे आकाश फुलिया॥ध्रु॥

    कङ्गरि पाकेला रे शबराशबरी मातेला।

    अणुदिन शबरो किम्पि चेवइ महासुहेँ भोला॥ध्रु॥

    चारिवासेँ भाइला रे दिया चञ्चाली।

    तहिँ तोलि शबरो डाह कएला कान्दइ सगुण शिआली॥ध्रु॥

    मारिल भवमत्ता रे दहदिहे दिधलि बली।

    हेर से सबर निरेवण भइला फिटिलि सबराली॥ध्रु॥

    गगन एवं गगन अर्थात् शून्य, अतिशून्य और तृतीय महाशून्य में वाटिका उपस्थित है। प्रभास्वर चतुर्थ शून्यरूपी हृदय को कुठार द्वारा तीनों शून्यों के दोषों को नष्ट कर जो योगी कंठ यानी संभोग चक्र में नैरात्मा के संग संभोग करते हुए जागते रहते हैं, उनके लिए त्रैलोक्य सुखद होता है।

    अरे योगी! विषम द्वन्द्वमयी माया और मोह को छोड़ो। शून्यरूपी ज्ञानमुद्रा को साथ ले, शबर महासुख में रमण करते हैं।

    गुरु प्रसाद से मैं देख रहा हूँ, मेरा वह तइला घर अर्थात् तृतीय महाशून्य घर खसम यानी प्रभास्वर आकाश के समान है। अरे, यह आश्चर्य की बात है कि वह कपास यानी चतुर्थ शून्य फूट उठा।

    तृतीय महाशून्य घर का पार्श्ववर्ती घर तब उदित हुआ। ज्ञानरूपी कमल का जब उदय हुआ, क्लेशरूपी अंधकार भाग गया।

    अरे, कंगुचिना फल यानी बोधिचित्त अब पक गया, उसे खाकर शबर और शबरी पागल हो उठे। शबर अब कुछ भी हो, प्रतिदिन जाग्रत नहीं होते। वे उस महासुख में विभोर हैं।

    चतुर्थी संध्या में योगीन्द्र ने चतुरानंद-रूपी वासस्थान निर्मित किया, और चंचाली अर्थात् चंचल विषय और इन्द्रियादि को उसी जगह उतारकर, शबर ने उनका दाह किया। सगुण शृगाली रोने लगी।

    बलवान भवमत्तता को दशों दिशाओं में दग्ध कर शबर ने मारा। वही शबर निर्वाण को प्राप्त हुआ और उसकी शबराली भी जल गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सहज सिद्ध : चर्यागीति विमर्श (पृष्ठ 222)
    • संपादक : रणजीत साहा
    • रचनाकार : शबरपा
    • प्रकाशन : यश पब्लिकेशन्स
    • संस्करण : 2010

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