वरदान

wardan

 

मेरा जन्म मध्य श्रेणी के एक ग्रामीण कान्यकुब्ज ब्राह्मण के घर में हुआ। ईश्वर की कृपा से माता, पिता और चचा अभी जीवित हैं। मैं अपने पिता का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। मेरे पिता संस्कृत के एक अच्छे विद्वान हैं। पिताजी चार भाई थे। उनमें सबसे छोटे का स्वर्गवास हो गया। मेरे ख़ानदान में खेती होती है। मेरे पिता ही घर के स्वामी हैं। यह गद्दी, ज्येष्ठ होने के कारण, उनको मेरे दादा के वक़्त ही मिली थी। चूँकि मातहतदार भी वह हैं, कुछ ज़मीन अपनी और कुछ लगानी, दोनों प्रकार मिलाकर दो हल की काश्त होती थी। इसलिए किसी प्रकार का कष्ट न था। धनबल, जनबल, विद्याबल—सभी प्रकार से सुखी थे। यदि अब उन्हें किसी बात की कमी थी तो यह कि चार भाइयों के बीच कोई संतान न थी। मेरे पिता कट्टर सनातनधर्मी हैं। जब घर बालकों के बिना सूना मालूम होने लगा तो पिताजी ने गंगा-स्नान करना प्रारंभ किया। आप जानते हैं कि यदि सच्चा आस्तिक किसी लालसा से कोई तप करता है तो उसकी कामना अवश्य पूरी होती है—ऐसा गीता का वाक्य है। फल यह हुआ कि मेरा जन्म हुआ।  फिर क्या था, सारा परिवार ख़ुशियाँ मनाने लगा। चूँकि मैं बड़ी मान-मन्नतों के बाद पैदा हुआ था, इसलिए मेरा लाड़-प्यार भी बहुत होता था—मेरी दादी मुझे बहुत प्यार करती थीं। कभी-कभी चाचा-चाची भी दुलराया करते थे, लेकिन दादी मुझे कभी अपनी आँखों से ओझल न करती थीं। जब मैं 7-8 वर्ष का हुआ तो विद्यारंभ कराया गया। मेरे मँझले चाचा प. दुर्गाप्रसाद मुझे पढ़ाया करते थे। रामायण के छंद तथा शिवराजभूषण के कवित्त ज़बानी याद कराते, कुछ अपनी कविता भी याद कराया करते। वह स्वयं कवि थे। इसीलिए अधिकतर कविताएँ ही याद कराया करते। मुझे पढ़ने से प्रेम था, इसलिए मैं प्रेम के साथ याद करने लगा। जब कोई कवित्त याद करके सुना देता तो मुझे कुछ पुरस्कार भी मिल जाता।

दस साल की अवस्था में मुझे सारस्वत आरंभ कराया गया। मेरे चचा पढ़ाने लगे। यदि मैं कभी पढ़ना छोड़ के खेलने लगता तो चाचा आकर डपट बताते, परंतु दादी के कारण उनमें इतना साहस न था कि वह मुझको पीट सकते। मुझे घोड़े की सवारी का भी बड़ा शौक़ था। घर में ही घोड़े थे, इसलिए मैं उन पर कभी-कभी नज़र बचाकर चढ़ जाता। एक मर्तबा की बात है कि कार्तिक की पूर्णिमा का, गंगा-स्नान का मेला था। लोग गंगा-स्नान करने जा रहे थे। मेरे घर में भी गंगा-स्नान की तैयारी हुई। दो रोज़ पहले ही मेले के वास्ते कूच बोल दिया गया। रात को हम गाड़ी पर सोते रहे, सवेरा हुआ तो एक जगह पड़ाव पड़ा। भोजन इत्यादि से निपट कर फिर चले। पिताजी के एक मित्र ठाकुर सूरजबख़्शसिंह भी साथ थे। उनकी सवारी में 500 रुपए की घोड़ी थी। सूरजबख़्श काका ने मुझे पुकारा और बोले—माँ के लहँगे में क्या घुसे बैठे हो! मेरे साथ घोड़ी पर सवार होकर चलो। अब मुझे ताव आ गया। मैंने अपनी दादी से कहा—बुवा, मुझे चढ़ने को घोड़ी दिला दो। दादी ने कहा कि बेटा घोड़ी पर तेरे पिता चढ़े हैं, दूसरे मेले की बात है, तू कहीं गिर-गिरा पड़ेगा। चोट लग जावेगी। जब मैंने बहुत ज़िद की और गाड़ी से नीचे उतर पड़ा तब दादी ने पिताजी से मुझे घोड़ी दिला दी। ठाकुर चाचा ने मुझे घोड़ी पर चढ़ा दिया। थोड़ी दूर तक तो मैं धीरे-धीरे चलाता रहा, फिर मैंने ठाकुर काका से कहा कि ज़रा घोड़ी दौड़ाओ। काका ने एड़ लगाई, घोड़ी क़दम चलने लगी। मैंने भी घोड़ी के एक हल्का-सा चाबुक लगाया। चाबुक लगते ही मेरी घोड़ी भी चौंकी और उसके पीछे हो ली। हम दोनों बहुत आगे निकल गए। मेले वाले एक बालक को निश्शंक घोड़ी दौड़ाते देखकर तालियाँ बजाते थे। इससे मेरा दिल और बढ़ता था।

मेले में गंगा-तट पर मेरा मुंडन-संस्कार हुआ। सिर तरबूज़-सा निकल आया। पुरस्कार में मुझे कुछ पैसे मिले। घर के लोग तो ख़ुशियाँ मना रहे थे, मैं मेले की सैर करने निकला और बड़ी सावधानी से इधर-उधर की बहार देखता हुआ लौटा तो यहाँ सभी घबराए हुए थे। पिताजी और अन्य लोग मुझे खोजने निकले थे। मैं दौड़कर अपनी दादी से चिपट गया। दादी ने मुझे गले लगा कर कहा—अरे बेटा, तू कहाँ गया था? इतने में शीतल काका और ठाकुर काका भी आ गए। बोले—क्यों बेटा, आज अच्छा हैरान किया। मैंने ज्यों ही पिताजी को देखा, दादी की गोद में पड़ रहा। फिर किसी ने कुछ नहीं कहा। कई दिनों के बाद एक दिन मौलवी इमामबख़्श पिताजी से मिलने आए। पिताजी से उनकी पुरानी मित्रता थी। उर्दू फ़ारसी के ज्ञाता थे। मुझे देखकर बोले—यह लड़का आप हमें दे दें। हम इसे उर्दू-फ़ारसी पढ़ावेंगे; यह लड़का होनहार है। अब पिताजी कुछ न बोले। शायद इसका कारण यह था कि वह कट्टर सनातनधर्मी थे और अक्सर कहा करते—'न पठते यावनीय भाषा, कंठे प्राण गतेरपि।' यह मुझे पूरा तो नहीं याद है, कुछ गलत-सलत याद है, वही मैंने लिख दिया। ख़ैर, पर पिताजी मुंशीजी का बड़ा आदर करते थे। उन्होंने कहा कि इसकी मालिक इसकी दादी है, उससे माँगिए, वह दे दे तो मुझे इंकार नहीं है। चूँकि मुंशीजी का दादी भी आदर करती थीं—मुंशीजी अशरफ़ाबाद लखनऊ के रहनेवाले थे; परंतु उनकी सारी ज़िंदगी मोहनलालगंज में गुज़री थी और वह मेरे ही गाँव में रहते थे—किसी प्रकार उन्होंने दादी को राजी कर लिया। अब मैं मुंशीजी के हवाले किया गया। बजाए सारस्वत चंद्रिका के उर्दू का क़ायदा पड़ने लगा और मुंशीजी जी-जान से पढ़ाने लगे। मुंशीजी दही-बड़े के बड़े शौक़ीन थे। दादी उन्हे दही-बड़े ख़ूब खिलाती थीं। उन्होंने भी पढ़ाने में कोई कसर न की और एक साल के अंदर ख़त वग़ैरा लिखना सिखा दिया और आमदनामा, ख़ालिकबारी गुलिस्तां आदि पुस्तकें समाप्त कर दीं। जिस परिवार में सिवा ईश्वर के ख़ुदा के नाम से चिढ़ थी, अब मैं रात-दिन ख़ुदा की ही वंदना के शेर याद करता था। मुझे ग़ज़ल से ऐसा प्रेम हुआ कि मैं अब मारफ़त की ग़ज़लों में मस्त रहने लगा। इसके बाद मुंशीजी ने मुझे स्कूल में भर्ती किया। ज़बान तो मेरी पहले ही अच्छी थी, हिसाब वग़ैरा ही मुझे पढ़ना पड़ता था। इस प्रकार मैं फाइनल स्कूल में भर्ती हुआ।
 
मैं दर्जा 4 में था कि यकायक मेरे परिवार पर वज्रपात हुआ। गाँव में कालरा की बीमारी शुरू हुई और उसका हमला मेरे घर में भी हुआ। अड़ोसी-पड़ोसी अपने-अपने घर में ईश्वर को मना रहे थे। कोई पास न फटकता था। एक रात बीमारी का हमला मुझ पर भी हो गया। मेरे बचने की आशा न रही। घर में कुहराम मच गया। मेरी दादी ने निराश होकर मेरी चारपाई के चारों तरफ़ 7 फेरे लगाए और बोलीं—हे भगवती, यदि यही करना था तो इसे क्यों दिया था। इसे बख़्श दो और मुझे ले लो, उनकी दुआ क़बूल हुई। सवेरा होते ही वह चल बसीं।
 
वाह रे ईश्वर! तेरी लीला अपरंपार है। दादी के जाते ही सारा घर चंगा हो गया। मैं, मेरे भाई, मेरी माता, चाची, ग़रज जो-जो बीमार थे एक-एक करके सब अच्छे होने लगे। एक माह के बाद मैं भी अच्छा हो गया, परंतु दादी की याद मुझे किसी वक़्त न भूलती। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरा मिज़ाज चिड़चिड़ा हो गया। घर वालों की बात मुझे ज़रा न भाती। दो-तीन महीने के बाद अब लोगों को यह फ़िक्र हुई कि जो संपत्ति बूढ़ी के पास थी वह कैसे हाथ लगे। घर की मालकिन वही थीं। इसका किसी को पता न था कि वह रुपए कहाँ रखती थीं। बैंक या पोस्ट-ऑफ़िस की प्रथा न थी। प्राचीन प्रथा के अनुसार वह ज़मीन में गाड़ दिया जाता था। जहाँ जहाँ शुबहा था, मकान खोदा गया; पर ऐसे नसीब फूटे कि किसी के पल्ले कुछ न पड़ा। कुछ रक़म उसने छोटे चाचा को बता रक्खी थी, वह तो मिली; परंतु बाहरी रक़म ज़मीन में गड़ी रह गई, सब हाथ मल-मल के बैठ रहे। दादी के मरते ही घर की शोभा जाती रही। लक्ष्मी ने अपनी कृपा-दृष्टि हटाई और शनीचर का डेरा घर में पड़ा। थोड़े दिन के बाद घर में कलह शुरू हो गई। जो घर दादी के सामने स्वर्ग था, अब नरक बन गया। बात-बात पर झगड़ा, बात बात पर टंटा। मैं अपनी क्या सुनाऊँ। मेरी तो मिट्टी पलीद थी। बात-बात पर मुझे झिड़कियाँ खानी पड़ती थीं। जिन गालों का दादी के सामने प्यार से चाचा लोग चुंबन लिया करते थे, दादी के न रहने पर अब उन गालों पर थप्पड़ रसीद होने लगे। हमारा गाँव ठाकुरों का गाँव है। आप जानते हैं कि ज़मींदारों के यहाँ जब तक मंगला-मुखियों का नाच-गाना न हो, तब तक उनकी शान में बट्टा लगता है। अक्सर जाड़ों में मुजरे हुआ करते थे। मेरे मँझले चचा ज़रा शौक़ीन आदमी थे। उनके एक मित्र गाँव से एक मील की दूरी पर रहते थे। वह भी दिलदार आदमी थे। उनकी प्रवृत्ति के और भी लोग थे। वहीं यारों की बैठक होती और इस मंत्र का जाप किया जाता—
'जगमाँ चार सजीवन मूरी।
कलिया, पान, पतुरिया, पूरी॥'

और यह शेर पढ़कर आत्मा को शांति दी जाती—
'चार चीज़स्त बर रईसाँ फ़र्ज़।
पालकी, गुड़गुड़ी, पतुरिया, क़र्ज़॥'

ऐसे रईसों की संगति में रहकर भला पंडितजी कब तक अपने को सँभाल सकते थे। दिल मचला और आख़िर उसने स्थान पर पहुँचकर ही दम लिया। इनके मित्र ने एक वेश्या को एक खेड़े में आबाद कराया और 'मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक' की कहावत चरितार्थ होने लगी। चोरी छिपे चचा जान भी फलाँ जान के घर जाने लगे। पर किसी ने ठीक कहा है कि 'ये छिपाए न छिपे; इश्क़, मुश्क, मद, पान'। गाँव में, घर में, इधर-उधर चर्चा होने लगी। इधर जब से चचाजी ने उधर रुख किया, तब से घर के काम की ओर से उनका कुछ मन हट-सा गया। मेरे एक मँझले चचा हैं, जो जन्म से ही परशुराम के भतीजे बन कर संसार में आए हैं। उनमें जहाँ क्रोध की मात्रा अधिक है, वहाँ वह मेहनती भी अव्वल दर्जे के हैं। वह यह कब देख सकते थे कि मैं काम करूँ, दूसरा ऐश।  इसी पर एक दिन ठन गई। फिर क्या था। घर में तीन दिन की हंगर स्ट्राइक हो गई। जब ज़रा शांति हुई तो पिताजी ने रँगीले चचा को समझाया। इसका उत्तर उन्होंने यह दिया कि वह मुझसे नहीं छूट सकती, चाहे आप छूट जावें। हुआ भी वैसा ही; वह एक दूसरे मकान में चले गए और आज तक उसी मकान में हैं। मैं बराबर पढ़ने जाता रहा; परंतु मेरे मार्ग में अब रोड़े अटकने शुरू हुए।  जो सहूलत मेरी दादी के ज़माने में थी, अब वह न रही। अब मैं पिताजी से कुछ बोलने लगा था, पर पिताजी का ध्यान मेरी ओर विशेष न था। इसका कारण शायद चचा साहब की करनी थी। वह अधिक उदास रहा करते थे। उनका मन यदि कुछ लगता था तो श्रीमद्भागवत के पाठ में। दिन भर वह यही काम करते थे। मैंने सोचा मुझे कम-से-कम मिडिल तो पास ही करना है। कभी-कभी माता से कुछ सहायता ले लेता था। मैं बचपन से हृष्ट-पुष्ट और चतुर था। स्कूल में भी मेरा काफ़ी प्रभाव था। टूर्नामेंट में मैं हमेशा अव्वल रहता। जो-जो कठिनाइयाँ मेरे सम्मुख आईं, मैंने उनका वीरता के साथ मुक़ाबला किया। जो शेर पसंद आ जाता था, उसे मैं अपने हृदय-पटल पर लिख लेता था। एक दिन मैंने यह शेर पढ़ा—
'सिर शमा-सा कटाइए, पर दम न मारिए।
मंजिल हज़ार सख़्त हो, हिम्मत न हारिए॥'

इस उपदेश को मैंने गाँठ बाँधा, उस दिन से मेरे सामने चाहे जैसा मुश्किल काम आ जाए, उससे कभी नहीं घबराता। आज भी वह शेर मुझे शेर बना देता है। गुरुवर मुंशी गिरजादयाल की मुझ पर बड़ी कृपा थी। अपनी विद्या का भंडार खोलकर मेरे सामने रख दिया। मैं जीवनपर्यंत उनसे उऋण नहीं हो सकता। मैं अभी सातवें दर्जे में पहुँचा था कि मेरी देह में ख़ारिश निकल आई और उसने तीन माह तक मेरा पीछा न छोड़ा। जब मैं स्कूल पहुँचा तो मेरे सहपाठी मुझसे बहुत आगे निकल गए थे; परंतु मुंशी गिरिजादयाल साहब ने मेरा साहस बढ़ाया और मेरा पिछड़ा हुआ कोर्स पूरा करा दिया; किंतु मेरी औसत हाज़िरी 75 फ़ीसदी से भी कम हो गई और मुझे इम्तिहान में दाख़िल न किया गया। हेडमास्टर ने साफ़ कह दिया कि हम उसे भेजकर अपना नतीजा नहीं ख़राब करना चाहते। इतना सुनना था कि मैं सन्नाटे में आ गया। चित्त अब किसी काम में न लगता था। शाम को जब नाइट स्कूल लगा तो मैं भी दुखी चित्त से किताब लेकर मुंशी गिरजादयालजी के पास गया। उन्होंने मेरी सूरत देखते ही कहा—क्या वह शेर भूल गए? मैं सँभल गया और कहा—नहीं, जब तक आपकी कृपा मुझ पर है, मुझे कोई चिंता नहीं। आख़िर यह राय हुई कि डॉक्टर से एक सार्टिफिकेट लेकर इम्तिहान के दाख़िले के साथ भेज दिया जाए। फिर कोई एतराज़ न कर सकेगा। डॉक्टर साहब मुझ पर बड़ी कृपा करते थे। सार्टिफिकेट दे दिया और मेरी फ़ीस ले ली गई।
 
जैसे आज स्वतंत्रता के पुजारी सिर हथेली पर लिए फिरते हैं, उसी प्रकार उस समय जर्मनी की लड़ाई चल रही थी और मदरसों से सरकार की विजय के लिए प्रार्थनाएँ की जाती थीं। मैं इस बात में अपने मदरसे में अगुआ था। जब कभी कलेक्टर मिस्टर जापलिंग मोहनलालगंज जाते थे, तब उनको प्रसन्न करने के लिए जलसा होता। उसमें मैं ख़ूब कविताएँ पढ़ता। यह शौक़ मुझे पहले से था। इसका नतीजा यह हुआ कि साहब बहादुर मुझसे बहुत ख़ुश थे। तहसीलदार साहब भी अब मुझसे बड़े प्रेम के साथ मिलते थे। जनता भी मेरा आदर करती थी। मैं बाज़ार जाता तो लोग मुझे बुलाकर अपने पास बिठाते और मुझसे कविताएँ सुनते। इतने में मेरा इम्तिहान आया। भगवान का नाम लेकर इम्तिहान में शरीक हुआ, परचे लिखे और मकान आया। अब मेरे सामने कोई प्रोग्राम न था। एक दिन तहसीलदार साहब से भेंट हो गई। उन्होंने देहात में रंगरूट भर्ती करने के लिए मुझे अपने साथ रख लिया। मैं देहात के जलसों में आल्हा उड़ाने लगा—बड़े-बड़े जलसे होने लगे। साहब कलेक्टर भी मुझसे बड़ी ख़ातिर से पेश आते। जलसों में धूम मच गई। साहब को जलसों में मेरे बिना मज़ा न आता था। मेरा दिमाग़ सातवें आसमान पर था। लोग मेरे पिता से मेरी तारीफ़ करने लगे। पिताजी को भी संतोष हुआ कि ख़ैर लड़का कुछ निकला तो। उन्हें यह आशा बँधी कि अब कोई अच्छी जगह मिल जाएगी। मुझे किसी जगह की इच्छा न थी। मैं तो कलेक्टर साहब की मीठी-मीठी बातों में ऐसा फँस गया था कि स्वर्ग का सुख भी मुझे तुच्छ जँचता था। लड़ाई के ज़माने में सरकार की तरफ़ से यह वादा किया गया कि जो लड़ाई में मारा जावेगा, उसके वारिसों को 5 बीघे ज़मीन गुज़ारे के वास्ते दी जाएगी। व्याख्यानों द्वारा देहाती भाइयों को मैंने यह समझाया। इस लोभ में सैकड़ों आदमी भर्ती होना शुरू हुए। जब तक लड़ाई जारी रही, मैं यही काम करता रहा। इसी बीच गज़ट आया। मैं तीसरे दर्जे में पास हो गया था। मुझे फ़िक्र हुई कि अब आगे पढ़ना चाहिए। मैंने साहब से कहा कि अब आप मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आगे तालीम हासिल करूँ। साहब बोले तुम घबराओ नहीं, हम तुम्हारा इंतज़ाम कर देंगे। अभी तुम सरकारी काम करो। साहब को जब मालूम हो गया कि यह अब पंजे से निकल जाएगा तो रुपयों से मेरी ख़ातिर होने लगी। एक तरफ़ बड़े-बड़े राजाओं से क़र्ज़ा लिया जाता था, दूसरी तरफ़ हमारे जैसे पिट्ठुओं की पूजा होती थी। यह दाँव-पेच मैं उस वक़्त न जानता था। जो लोग चंट थे, उन्होंने लड़ाई के ज़माने में ख़ूब कमाया। फी रंगरूट 50 रुपए सरकार से पाते थे, परंतु मैं तो यों ही व्याख्यान देता था। जो कुछ तहसीलदार साहब से मिल जाता था, वही बहुत था। जो कलेक्टर साहब का मित्र हो, उसे रुपए की क्या परवाह! यहाँ तो कलेक्टर के साथ मोटर में बैठकर जाना ही स्वर्ग का राज्य था। उस वक़्त मैं अपने आपे में नहीं था। मारे घमंड के पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे। ठाट के साथ तहसीलदार के हमराह घूमता था। बड़े बड़े ज़मींदार और ताल्लुकेदार सिर आँखों पर बिठाते थे। ज़रा से इशारे पर जो चाहता था, कर लेता था। जब मकान जाता, तो घर वाले भी बड़े चाव से मिलते थे। पिताजी के हर्ष का तो पारावार न था।
 
लड़ाई क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुकी थी। नए कलेक्टर, जो पहले लखनऊ में सिटी मजिस्ट्रेट थे, जापलिंग साहब के साथ देहात में जाया करते थे। उन से भी मेरी गहरी छनती थी। उनके कलेक्टर होने पर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। मैंने चट उनकी मुबारकबाद की एक कविता बनाई और उनको सुनाई।  वह बहुत ख़ुश हुए। मुझे जो पुरस्कार मिला वह था मेज़ पर रक्खा हुआ गुलदस्ता। मैं उनके हाथ से गुलदस्ता पाकर फूला न समाया। मेरे लिए यही सौभाग्य की बात थी। एक आत्मीय ने मुझसे कहा—साहब से कोई जगह माँगो। मैंने उत्तर दिया—मैंने नौकरी के लालच से यह सेवा नहीं की है। बात यह थी कि मेरे दिमाग़ में यह बात समा गई थी कि जब मैंने कलेक्टर के साथ व्याख्यान दिए, उनके बराबर बैठकर गप्पें लड़ाईं तो उनसे नौकरी के लिए प्रार्थना करना हेठी बात है। मेरे दिल में स्वाभिमान का यह पहला अंकुर था जो कलेक्टर की सुहबत में बैठकर पैदा हुआ था। यद्यपि मैं सैकड़ों बार उनसे मिला था; पर अपने लिए मैंने उनसे कुछ नहीं कहा। मैं उनसे हाथ मिलाने को ही ग़नीमत समझता था।

इसके थोड़े दिन बाद एक दिन मुझे मालूम हुआ कि लड़ाई ख़त्म होते ही फ़ालतू सिपाहियों के नाम काट दिए गए और ख़र्च देकर उन्हें विदा कर दिया गया। मैं ज़रा सोच में पड़ गया। कुछ समझ में न आया। यह बात दिमाग़ में बैठ गई कि इन बेचारों को कुछ पुरस्कार तो ज़रूर मिलना चाहिए। उधर यह दूसरा गुल खिला कि जो आदमी लड़ाई में मारे गए, उनकी बेवाओं की परवरिश करने वाला कोई न था। उनके घर में कुहराम मचा हुआ था। जिन्हें यह आशा थी कि पति यदि सरकार की मदद में मर जाएँगे तो गुज़र करने को ज़मीन मिलेगी, उनकी अब कोई बात भी न पूछता था। कुछ सज्जनों ने यह समाचार मेरे पास पहुँचाए और मुझसे कहा—महाराज, साहब आपकी बड़ी ख़ातिर करते हैं, आपकी वहाँ तक पहुँच है, आप कुछ इनका प्रबंध करा दीजिए। उस वक़्त तो आप खूब लेक्चर झाड़ते थे। मैंने उनसे वादा किया—मैं साहब से कहूँगा, आप न घबराएँ। सरकार ने जो वादा किया है उसे ज़रूर पूरा करेगी और तुम्हारी परवरिश का बन्दोवस्त भी करेगी। इस बात में मैंने कोई कठिनाई न समझी। मेरा दिमाग़ तो बढ़ा हुआ था। मैं सीधा कलेक्टर के बंगले पर गया। वहाँ मेरे लिए कोई रोक-टोक न थी। मेरी अवस्था अभी सोलह-सत्रह साल से अधिक न थी, पर गोरे रंग का ख़ौफ़ मेरे दिल से जाता रहा था; इसलिए मैं बेधड़क चला जाता। जब मैं अंदर पहुँचा तो साहब कुछ लिख रहे थे। मैं सलाम करके बैठ गया। वह मेरी तरफ़ मुख़ातिब हुए और कुशल-प्रश्न के बाद पूछा—कैसे आए, कोई काम है या यों ही? मैंने संक्षेप में उन अबलाओं की कथा उनको सुनाई और कहा आप मेरे लिए चाहे कुछ न करें, मैं आपसे कुछ चाहता भी नहीं; पर उन बेचारियों के वास्ते आध सेर आटे का प्रबंध आप अवश्य कर दीजिए। साहब बहादुर मुस्कराकर बोले—वेल, अब हमारे हाथ में कुछ नहीं है, हम कुछ नहीं कर सकता। उनके ये शब्द सुनकर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। जहाँ अभी चंद मिनट पहले प्रकाश था, वहाँ अंधकार ही अंधकार नज़र आने लगा।
'बस एक पल में नज़र आने लगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा बदली।
फलक ने एक करवट ली, ज़माने की हवा बदली॥'

मेरे हृदय में एक प्रकार का ज्वारभाटा-सा उठने लगा। तुलसीदास का यह वचन याद आया—
'काम परे कछु और गति, काम सरे कछु और।
तुलसी भाँवर के परे, ताल सिरावत मौर॥'

यह शेर मुझे अक्षरशः सत्य प्रतीत हुआ— 
'मेरा दिल लेने के पहले, क्या ख़ुशामद तुमको थी।
कैसी आँखें फेर ली, मतलब निकल जाने के बाद॥'

पाँच मिनट तक तो निस्तब्ध बैठा रहा। उसके बाद मैं उठा, हाथ मिलाया और सलाम करके चलने लगा तो उन्होंने कहा—मिलते रहना, मुझे बहुत अफ़सोस है कि मैं तुम्हारा काम नहीं कर सका। क्या करूँ मजबूरी है। मैं बँगले से बाहर आया तो मेरे कानों में 'मजबूरी है' यह शब्द गूंज रहा था।

स्रोत :
  • पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 152)
  • संपादक : प्रेमचंद
  • रचनाकार : गंगा प्रसाद दीक्षित
  • प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
  • संस्करण : 1932

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