मेरा साहित्यिक जीवन

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डॉ धनीराम प्रेम

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मेरा साहित्यिक जीवन

डॉ धनीराम प्रेम

और अधिकडॉ धनीराम प्रेम

    हिंदीभाषी जनता मुझे लेखक के रूप में दो वर्षों से जानती है और संपादक के रूप में केवल चार महीनों से; परंतु हिंदी-साहित्य से मेरा संबंध बहुत पुराना है। उस बात को आज लगभग अठारह वर्ष व्यतीत हो गए। इन अठारह वर्षों में मैंने साहित्य की कुछ अधिक सेवा नहीं की, और जो कुछ की भी है उसका दर्जा भी ऊँचा नहीं है। परंतु इन पंक्तियों में मैं उन बातों का विवरण नहीं लिख रहा हूँ; यहाँ तो मैं केवल उन उतार-चढ़ावों तथा कठिनाइयों का संस्मरण लिखूँगा, जो प्रत्येक नवयुवक लेखक के मार्ग में अनिवार्य रूप से आती हैं और जिनका वर्णन संभव है अन्य मुझ जैसे बिल्कुल ही नए लेखकों को कुछ लाभ पहुँचा सके।

    मुझे अपने माता-पिता का कुछ ध्यान नहीं है। मेरी तीन वर्ष की आयु के पहले ही वे इस लोक को छोड़ चुके थे। माता का स्नेह क्या होता है, यह मैंने कभी नहीं जाना। मुझे भली-भाँति याद है कि जब मैं हिंदी की लोअर प्राइमरी कक्षा में पढ़ता था, तब इसी भाव को व्यक्त करते हुए मैंने कुछ दोहे लिखे थे। वे दोहे डिप्टी इंस्पेक्टर महोदय ने बहुत पसंद किए और उनके लिए पाव भर जलेबी उन्होंने पुरस्कार-स्वरूप भेंट भी की। आजकल हिंदी-साहित्य में जो पुरस्कार की दर है, उसको देखते हुए वह पुरस्कार बहुत था और उससे जो प्रोत्साहन मिला था, उसका तो मूल्य लगाया ही नहीं जा सकता।

    हिंदी की पढ़ाई समाप्त करके अलीगढ़ के धर्म समाज हाईस्कूल (अब कॉलेज) में मैंने नाम लिखाया। वहाँ अलीगढ़ के प्रसिद्ध साहित्य-सेवियों का अड्डा था। धीरे-धीरे उसमें मैंने भी कुछ प्रवेश पा लिया। पं. गोकुलचंद्र शर्मा उन दिनों 'प्रणवीर प्रताप' पुस्तक लिखकर प्रसिद्धि पा चुके थे। कुछ दिनों बाद हम लोगों ने वहाँ 'हिंदी-साहित्य सभा' तथा 'हिंदी पुस्तकालय एवं वाचनालय' की स्थापना की। उन दिनों कविता की ओर मेरी अभिरुचि अधिक थी। परंतु उस रुचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का कोई समुचित साधन वहाँ नहीं था। फिर भी स्थानीय पत्रों में कभी-कभी कुछ लिखता ही रहा। एक बार वयोवृद्ध कवि प० नाथूराम शंकर शर्मा 'शंकर' की दृष्टि मेरे एक पद्य पर पड़ गई। उसको पढ़कर 'शंकर' जी ने लिखा—

    'प्रियवर प्रेम की पद्य पढ़ी। परम प्रसन्नता प्राप्त हुई। अभी अभ्यास की अधिक आवश्यकता है। आशा है आगे चलकर प्रेम एक उच्च कवि की पदवी प्राप्त करेंगे।'

    हाईस्कूल की छोटी कक्षा में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी के लिए ये शब्द कितने उत्साहवर्द्धक प्रतीत हुए होंगे, इसका अनुमान पाठक सहज ही लगा सकते हैं। इन शब्दों को पढ़कर मेरी रुचि कविता की ओर और भी बढ़ी; परंतु इस बार मेरी छंद-ज्ञान की इच्छा भी बलवती हो गई। मैं एतदर्थ हिंदी के एक प्रसिद्ध विद्वान तथा कवि से मिला; परंतु उन्होंने मेरे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया। पहली ही बार वह शिक्षा देने लगे—'आप कविता सीखकर क्या करेंगे? इसमें क्या धरा है? विद्यार्थियों को इस झमेले में नहीं पड़ना चाहिए।' बस, मेरे लिए यह काफ़ी था। तभी से कविता की ओर से मेरी रुचि हटती गई और कुछ ही दिनों में मैंने सब कुछ लिखना बंद कर दिया।

    उन दिनों गवर्नमेंट की ओर से मेरे एक संबंधी मेरे अभिभावक नियत किए गए थे, जो मेरी जायदाद की देख-रेख करते थे। कई कारणों से उनसे मेरी कहा-सुनी हो गई और फल यह हुआ कि मुझे उनके विरुद्ध मुक़दमा चलाना पड़ा। मुक़दमा तो चला दिया; परंतु उसके कारण जो कठिनाइयाँ मेरे सामने आईं, वे अकथनीय हैं। उस समय मेरी अवस्था केवल 14 वर्ष की थी और इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसा व्यक्ति था जो एक पैसे से भी सहायता कर सकता या रहने के लिए दो हाथ स्थान दे सकता। भाग्य के फेर से अपनी संपत्ति होते हुए भी मुझे पथ का भिखारी बनना पड़ा। उस समय मैं 'हिंदी-पुस्तकालय' के मकान में ही रहता था और एक प्रेस में कुछ देर पते लिखने का काम करके कुछ पैसे नित्य लाता था, जिनसे भोजन तथा स्कूल की फ़ीस का काम चलाता था। यह क्रम लगभग दो वर्षों तक रहा; परंतु इन दो वर्षों में मुझे साहित्य-संबंधी कुछ कार्य करने का अपूर्व अवसर मिल गया। 'हिंदी-पुस्तकालय' में रात-दिन रहने तथा वहाँ का इंचार्ज होने के कारण मुझे अनेक विषयों पर पुस्तकें पढ़ने का सुभीता था। सबसे अधिक चाव मुझे उपन्यास, कहानियाँ तथा नाटक पढ़ने का था। यद्यपि हिंदी की उच्च परीक्षाएँ देने के लिए काव्य की पुस्तकें भी पढ़नी पड़ती थीं। उन्हीं दिनों मैंने प्रेमचंदजी को पहचाना था उनकी पुस्तकों द्वारा। मैंने उनके सभी ग्रंथ पढ़ डाले थे, कुछ तो कई-कई बार। उन्हीं को पढ़कर मेरे हृदय में दो लालसाएँ पैदा हुईं। एक तो प्रेमचंदजी के दर्शन करने की और दूसरी कहानियाँ लिखकर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने की। भाग्यवश दूसरी लालसा को पूरा करने का साधन भी उन दिनों मुझे मिल गया था। मैं जिस प्रेस में कार्य करता था, उसी से एक पाक्षिक पत्र निकलता था। संपादक अलीगढ़ से बहुत दूर रहते थे। अतः कभी-कभी उनका कुछ कार्य मुझे भी देखना पड़ता था। ऐसे ही अवसरों पर कभी-कभी मैं अपना भी कोई लेख दे देता था। इस प्रकार मैंने कुछ कहानियाँ लिखीं और उस पत्र में तथा अन्य स्थानीय पत्रों में छपवाईं।

    कुछ दिनों बाद ही असहयोग आंदोलन छिड़ गया। मैंने स्कूल छोड़ दिया और ग्रामों में प्रचार-कार्य करने लगा। यह क्रम एक वर्ष तक रहा। असहयोग की गति शिथिल हो जाने पर मुझे फिर से अध्ययन करने की इच्छा हुई। उसी समय मैंने सुना कि कानपुर का मारवाड़ी विद्यालय राष्ट्रीय था और उसके हेड मास्टर थे—श्रीयुत प्रेमचंदजी। एक साथ ही दो इच्छाओं की पूर्ति। मैंने एक पत्र श्री प्रेमचंदजी को डरते-डरते लिखा, डरते-डरते इसलिए कि प्रेमचंदजी उन दिनों भी बहुत बड़े आदमी थे और मैं था एक साधारण विद्यार्थी। मुझे उत्तर की आशा नहीं थी; परंतु मेरे हर्ष का कोई पारावार था जब मैंने प्रेमचंदजी के हाथ का लिखा हुआ पत्र पाया। उस पत्र में उन्होंने लिखा—'प्रियवर, आपने जो कुछ कहानियाँ लिखी हैं, मुझे भेज दो, मैं देखकर सम्मति लिख दूँगा। जो छप चुकी हैं, वे भी देखने को भेज दीजिएगा। यदि आप कानपुर आना चाहते हैं तब तो यहाँ बातें हुआ ही करेंगी।' प्रेमचंदजी के हृदय की इस विशालता पर मैं उन दिनों मुग्ध हो गया था और उनको पढ़कर आज तक मुग्ध हूँ। उनकी कहानियों के लिए मैं उनका बड़ा आदर करता हूँ; परंतु उनका सबसे अधिक आदर मैं उनके मधुर और ऊँचे व्यक्तित्व के लिए करता हूँ। मैं तब से अनेक बड़े लेखकों—देशी तथा विदेशी—से मिला हूँ; परंतु ऐसे विशाल हृदय मैंने बहुत कम देखे हैं। वह पत्र मुझे कानपुर खींच ले गया। मारवाड़ी विद्यालय के दफ़्तर में प्रेमचंदजी का प्रथम दर्शन हुआ! उक्त विद्यालय में मैट्रिक क्लास होने से मुझे एक दूसरे विद्यालय में जाना पड़ा; परंतु प्रेमचंदजी की ताकीद के अनुसार समय-समय पर उनके दर्शन करता रहा। वह क्रम भी अधिक दिनों तक रहा। प्रेमचंदजी कानपुर से बनारस चले गए और मैं चला गया—जेल।

    जेल में समय ख़ूब मिला। एक वर्ष था, बिना पढ़े-लिखे कटता कैसे। साधन मिल गए और ख़ूब ही पढ़ा तथा ख़ूब ही लिखा; परंतु लिखा सब कुछ राजनैतिक। कविता की पुरानी रुचि फिर प्रकट हो गई और कभी-कभी जो चीजें लिखीं, वे पीछे से एक संग्रह के रूप में प्रकाशित हुईं। परंतु उनसे भी अच्छी चीज़ थी 'तपस्वी मोहन' नाटक। यह नाटक कानपुर में तीन बार खेला गया था; परंतु पीछे पुलिस ने इसका खेला जाना संयुक्त प्रांत भर में रोक दिया। मुझे उसके विषय में सबसे पहले मालूम पड़ा स्वर्गीय श्रद्धेय गणेशशंकरजी विद्यार्थी से। फ़तहपुर जेल था और मध्यरात्रि की घड़ियाँ। अपने मिट्टी के ओटे पर कुछ-ही देर सो पाया था कि किसी ने जगा दिया।

    'कौन है?—मैंने पूछा।

    'उठिए, यह देखिए?—शब्द जेलर का था।

    'इस रात में क्या दिखाने आए हैं? क्या बेड़ियाँ पहनाकर कहीं तबादला करना है?—मैंने द्वार तक आकर पूछा।

    'आपके लिए एक साथी लाया हूँ!’—द्वार खोलकर जेलर ने कहा!

    'साथी!'—कहकर मैंने उधर देखा!

    'हाँ, प्रेम!'—कहकर गणेशजी आगे बढ़े और मेरे गले से लिपट गए।

    मैंने उन्हें अनेक बार देखा था; परंतु उन्होंने मुझे नहीं देखा था। हम लोग कभी आमने-सामने मिले थे।

    'आपने तो मुझे कभी देखा भी नहीं था!'—मैंने कहा।

    'मैंने तुम्हारा रूप तुम्हारे नाटक में देख लिया था?—वे हँसकर बोले।

    हम लोग कई दिनों तक साथ-साथ रहे, साथ-साथ खाया, हँसा-रोया। उन्हीं दिनों उन्हीं की सलाह से मैंने कविता लिखना छोड़ दिया और केवल नाटक लिखना ही निश्चित किया और वहीं कुछ और नाटक लिखे जो राजनीतिक होने के कारण आज तक बस्ते में बँधे रखे हैं। हाँ, तब से पद्य लिखने का अवसर नहीं आया। यह मेरे ऊपर गणेशजी की छाप थी, जिसको मैं अब तक नहीं भूला हूँ। मैं अब मानता हूँ कि हर एक नवयुवक की कवि बन जाने की इच्छा एक अनधिकार चेष्टा है। कविता बड़ी ऊँची चीज़ है और कवि-सम्मेलन के लिए कुछ तुकों को मिलाकर कवि बनने का कार्य बड़ा उपहासास्पद है। यदि उसी इच्छा को, परिश्रम के साथ, साहित्य के किसी अन्य अंग की पूर्ति में लगाया जाए तो कहीं अधिक श्रेयस्कर हो।

    जेल से बाहर आकर मैंने बंबई का नेशनल मेडिकल कॉलेज पढ़ने के लिए पसंद किया। बंबई जैसे नगर में कोई हिंदी-साहित्य-सभा हो, यह बात मुझे बहुत अखरी। हमारे कॉलेज में संयुक्त प्रांत के विद्यार्थी केवल तीन थे, कुछ हिंदी-मध्यदेश के भी थे; परंतु हिंदी की ओर सहानुभूति तो सभी की थी। अतः विद्यार्थियों की एक मासिक पत्रिका में मैंने एक लेख 'Hindi, the lingua franca of India' शीर्षक प्रकाशित कराया। इस लेख के कारण मुझे अनेक मराठी, गुजराती, मद्रासी आदि मित्रों की सहायता मिली और हम लोगों ने कॉलेज में एक 'हिंदी-साहित्य-सभा' की संस्थापना कर ही दी। एक बार इसी सभा की ओर से हम लोगों ने एक नाटक भी खेला। इस नाटक के समय मैंने श्री नाथूरामजी प्रेमी तथा अन्य कई हिंदी-प्रेमी सज्जनों से जान-पहचान कर ली। कुछ दिनों बाद मुझे एक सूचना मिली कि बम्बई के हिंदी-भाषी नागरिक अपनी एक सभा स्थापित करना चाहते हैं। मैं अपने एक मित्र के साथ वहाँ गया; परंतु वह सभा उस समय स्थापित हो सकी। उसमें संयुक्तप्रांतीय घिस-घिस गई थी। पदों के ऊपर झगड़ा हो रहा था।

    बंबई में रहकर ही मैंने कुछ लेख लिखकर हिंदी के पत्रों को प्रकाशनार्थ भेजे थे। कुछ उनमें से स्वीकृत हो गए, कुछ अस्वीकृत होकर वापस लौट गए। किसी ओर से भी उस समय मुझे प्रोत्साहन नहीं मिला। मुझे इससे बड़ी निराशा हुई और मैंने लेख लिखना ही बंद कर दिया।

    जब मैं विलायत को रवाना हुआ तो जहाज़ पर चढ़ते ही मैंने कुछ लेख कई मासिक पत्रों को भेजे और मुझे आश्चर्य हुआ जब कि वे सब स्वीकृत हो गए और दो-तीन महीनों में ही छपकर मेरे पास पहुँच गए। कुछ दिनों में ही मैं अधिक विद्वान नहीं हो गया था। यही नहीं, बल्कि लंदन पहुँचकर मैंने एक मासिक पत्र में अपना वह लेख छपा हुआ देखा जो मैंने पाँच वर्षों पूर्व उस पत्र को भेजा था और जो उस दिन से अप्रकाशित पड़ा हुआ था। इन सब बातों को देखकर यह कहना ठीक है, कि हिंदी में लेखों का आदर नहीं; बल्कि लेखकों की किन्हीं विशेष योग्यताओं का आदर है। ऐसी दशा में बिल्कुल ही नए लेखक स्वयं अपना मार्ग बनावें।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 34)
    • संपादक : प्रेमचंद
    • रचनाकार : डॉ धनीराम प्रेम
    • प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
    • संस्करण : 1932

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