आत्म कथा

aatm katha

ठाकुरदत्त शर्मा

और अधिकठाकुरदत्त शर्मा

     

    मैं ईश्वर को मानने वाला हूँ, और मेरा विश्वास है कि उसका अनुग्रह किसी भी महान कार्य की सिद्धि के लिए परमावश्यक है। परमेश्वर की यह कृपा थी कि मेरे द्वारा एक ऐसी औषधि का आविष्कार हो, जिससे जनता को लाभ पहुँचे; नहीं तो मेरे लिखने-पढ़ने तक का भी कोई प्रबंध न था। अल्पायु में ही विद्यानुराग न-जाने कैसे उत्पन्न हो गया था कि घर के पढ़ने में अड़चनें पड़ने पर भी मैंने एफ. ए. तक विद्याभ्यास किया। मिडिल में पढ़ते हुए ईश्वर जाने कैसे मुझे वैद्यक का शौक़ हो गया कि फ़ालतू समय में बोर्डिंग के सामने एक वैद्य से वैद्यक पढ़ना भी आरंभ कर दिया। यह शौक़ बढ़ता गया और अंतिम एफ. ए. में—यद्यपि वज़ीफ़ा ले रहा था—मैंने कॉलेज छोड़कर वैद्यक पर ही अपना समय लगाया। जब काम करने का समय आया तो घर से विरोध हुआ। वह नौकरी चाहते थे, मुझे वैद्यक से प्रेम था। मै लाहौर चला आया और अपनी धर्मपत्नी के चाँदी के कड़े बेचकर 27 रुपये से काम आरंभ कर दिया। यह मेरी सारी पूँजी थी। रात-दिन परिश्रम किया—ईश्वर की अपार दया हुई, मेरा नाम तथा काम बढ़ने लगा।

    स्कूल में पढ़ते हुए ही हृदय में यह महत्वाकांक्षा उत्पन्न हुई थी कि कोई ऐसी औषधि निकालनी चाहिए, जो लगभग बहुत-सी औषधियों का गुण रखती हो। उन्हीं दिनों इस प्रकार की एक औषधि बना भी ली थी।  उस पर रात-दिन विचार करने लगा। उसकी परीक्षा की, घटाया-बढ़ाया और सन् 1901 में 'अमृतधारा' के आविष्कार की घोषणा कर दी। जिसने इसकी परीक्षा की वही अचंभित हुआ। ऐसा कोई भी पुरुष न निकला, जिसने अमृतधारा को प्रत्येक घर में रहने योग्य औषधि न बताया हो। जो औषधियों के बक्स घर में रखते थे, उन्होंने इस शीशी से सब का काम लेना शुरू किया। जिसने एक बार इसको आजमाया, उसने सदा के लिए इसे अपना साथी बनाया। इसी वास्ते इसकी दिन-प्रतिदिन उन्नति होती गई। सन् 1904 में 'देशोपकारक' पत्र जारी हुआ और सर्वसाधारण ने इस किंकर की योग्यता को सराहा। फिर तो सारे देश में अमृतधारा और उसके आविष्कारकर्त्ता का नाम प्रसिद्ध होने लगा। उसके साथ ज्यों-ज्यों मेरी लेखनी से वैद्यक पुस्तकें निकलीं, त्यों-त्यों ख्याति और भी बढ़ती गई। इस समय तक 27 वर्ष से 'देशोपकारक' पत्र निकालने के अतिरिक्त लगभग 5 दर्जन पुस्तकें लिखी जाकर प्रकाशित हो चुकी हैं।

    प्रभु की कृपा से दिन-दूनी और रात-चौगुनी उन्नति होती गई। 5 रुपये के किराए के मकान को छोड़कर फिर 40 रुपये के किराए के मकान में आना पड़ा। और कई क्लर्क काम करने लगे। सन् 1910 ई. में एक नया मकान रेलवे-रोड पर ख़रीदा गया, जिसका उद्घाटन-संस्कार चीफ़ कोर्ट पंजाब के जज सर प्रतुलचंद्र चैटर्जी के कर-कमलों से लाहौर के प्रतिष्ठित लोगों के एक बड़े जलसे में हुआ। सन् 1914 ई. में मकान को और भी बढ़ाना पड़ा और एक विशाल भवन लाखों रुपये का तैयार हुआ। इस दूसरे खंड का उद्घाटन लाहौर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर मिस्टर एफ. डबल्यू. कैनवे साहब ने वैसे ही जलसे में किया जिसमें सर मोहम्मद शफ़ी साहब बैरिस्टर और राय बहादुर दीवान बहादुर कुंजविहारी थापर आदि महानुभावों की मनोरंजक वक्तृताएँ हुईं, जिनमें कार्यालय की जन-सेवा का वर्णन किया गया। इस विशाल भवन के पूर्व की ओर जो सड़क बनी है, उसका नाम म्युनिसिपल कमेटी ने अमृतधारा-रोड रक्खा है और सामने एक कूचे का नाम ठाकुरदत्त स्ट्रीट रक्खा गया।

    परमेश्वर की कृपा से इतना काम बढ़ा कि जहाँ पहले एक ही आदमी दवाई बनाता, बंद करता, रोगियों को देता और बाहर भेजता था, अब दर्जनों कर्मचारी यह कार्य करने लगे और अमृतधारा व अन्यान्य औषधियाँ, जिनकी संख्या 4 सौ के लगभग है, इतनी अधिक बाहर जाने लगीं कि डाक-विभाग ने अमृतधारा के नाम से एक डाकघर खोल दिया—पुस्तकों और सूची-पत्रों आदि की छपाई का काम इतना बढ़ गया कि सन् 1916 ई. में एक प्रेस भी खोलना पड़ा, जिसने बढ़ते-बढ़ते एक बड़े छापेखाने का रूप धारण कर लिया और जिसमें हर प्रकार की छपाई (लियो, टाइप व ब्लॉक) का काम घर और बाहर का किया जाता है।

    सन् 1924 में मैंने विलायत की यात्रा की, फिर 1927 में पुनः यात्रा की, वहाँ जाकर क्या देखा और क्या पाया, उसका विवरण 'सैरे यूरोप' नामक पुस्तक के प्रथम और द्वितीय भाग में मैंने दे दिया है। यूरोप के सारे देशों में भ्रमण करके वहाँ की चिकित्सा प्रणाली से अभिज्ञता प्राप्त करके, अब विद्युत-चिकित्सा के बहुत से यंत्र लाया हूँ और इस नूतन चिकित्सा-प्रणाली को भी जारी कर दिया गया है।

    मैंने आयुर्वेद की सेवा करने की सदैव चेष्टा की है और मैं जब उस समय में, जबकि देशी चिकित्सा की ओर से लोगों की रुचि कम हो रही थी, इस समय की तुलना करता हूँ और देखता हूँ कि यथेष्ट रूप से लोगों की रुचि फिर इस ओर बढ़ रही है, तो मैं आनंदित होता हूँ; क्योंकि इस रुचि-परिवर्तन में थोड़ा-सा मेरा भी भाग है, जिसका उल्लेख करने की मुझे आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

    भगवान से यही प्रार्थना है कि देशी चिकित्सा की ओर लोगों की रुचि बढ़े। देशी चिकित्सा-प्रणाली की उन्नति करने के लिए अच्छे-अच्छे कॉलेज, अच्छे-अच्छे औषधालय स्थापित हों, जो कि अपने नूतन अनुसंधानों को सन्निविष्ट करके देशी चिकित्सा को उत्तम से उत्तम रूप में उपस्थित करें। मेरी तो अब यह प्रार्थना है कि वह अपनी भक्ति प्रदान करे और बहुत शीघ्र इस योग्य बनाए कि जीवन का तीसरा युग प्रारंभ हो।

    कुछ विशेष उपयोगी बातें

    'हंस' के सहकारी संपादक जी ने निम्नलिखित प्रश्न करके लेख को पाठकों के लिए उपयोगी बनाने का यत्न किया है—
    (1) आपके जीवन में विश्वास ने कहाँ तक साथ दिया है?
    (2) आपने अपने साथियों का व्यवहार कैसा पाया और उनके साथ कैसा व्यवहार किया?
    (3) विज्ञापन को आपने क्या समझा और उससे कैसा लाभ उठाया?
    (4) आपने जीवन में सत्य का निर्वाह कैसा किया?
    (5) आपने अपने स्वास्थ्य के लिए कैसी दिनचर्या का पालन किया?
    (6) देशी औषधालयों के प्रति आपका क्या विचार है?
    (7) आपने विलायत में क्या देखा, वहाँ की किस बात ने आपको प्रभावित किया?

    ये प्रश्न बड़े गंभीर हैं। इनका उत्तर थोड़े शब्दों में भी हो सकता है और प्रत्येक के लिए एक पृथक लेख भी हो सकता है। नं. 5, 7 पर तो एक पुस्तक लिखी जा सकती है। नं. 7 का पूर्ण उत्तर हमारी लिखी 'सैरे यूरोप' नाम की पुस्तक में है। हम यहाँ पर थोड़ी-सी बातें इन दोनों प्रश्नों के विषय में पहले लिखना चाहते हैं।

     

    यूरोप

    यूरोप की किस बात ने सबसे अधिक प्रभावित किया, इसका कहना कठिन है; क्योंकि बहुत-सी बातों के प्रभाव मौजूद हैं। उनको तुला पर चढ़ाना आसान काम नही है। मैं इनमें से एक प्रभाव लिख देता हूँ, जो कि मुझ पर हुए बड़े-बड़े प्रभावों में से एक है। प्रत्येक यूरोप जाने वाले व्यक्ति पर प्रभाव करने वाली एक चीज़ उनकी—सामाजिक व्यवस्था है। इसके कई उदाहरण हैं—(1) किसी जगह कोई धक्कम-धक्का दिखाई नहीं दिया। विशाल समूह भी जहाँ इकट्ठे देखे, वह स्वयं ही एक ओर से जा रहे हैं, एक ओर से आ रहे हैं। पिछला आगे जाने की कहीं कोशिश नहीं करता। मैंने स्टेशनों पर, थिएटरों या सिनेमा पर बड़ी लंबी-लंबी कतारें लगी देखी हैं। जो आता है पहले के पीछे खड़ा हो जाता है; बारी-बारी से टिकटें लेता है। कोई बड़ा हो या छोटा, अफ़सर हो या नौकर, पंक्ति से आगे-पीछे नहीं होता। दुकानों में, बाज़ारों में, जलसों में, मीटिंगो में यही नियम काम करता है। रेलों में देखा कि जितने मनुष्यों के लिए स्थान है, उससे एक भी अधिक आ जाए तो वह खड़ा तो भले रहे; परंतु कभी किसी को मुख से यह न कहेगा कि मुझे भी बैठने को जगह दो। इस विषय में हम अभी बहुत पीछे हैं। करोड़ों में अभी सहस्र भी इस नियम का पालन नहीं करते। मेलों में, तीर्थों पर, बीसियों मृत्यु केवल इसके न होने से होती हैं।

    दूसरे, इनके खाने पीने, पहनने के भी नियम हैं। संसार के किसी भाग में चले जाइए, यूरोपियन लोग कहीं भी हों, उनके खाने के नियम-काल वही होंगे। मैं देखता था कि गर्मी के दिनों में हमारे यहाँ के तीसरे पहर की भाँति सूर्य होता था कि उनका रात्रि का खाना समाप्त हो जाता था; क्योंकि सर्दी-गर्मी के समय में कोई अंतर नहीं, चाहे दिनमान कितना ही बदल जाए। इसलिए वे चार या कभी छः बार खाते हुए भी इतने चौके में दिखाई नहीं देते, जितने हम दिखाई देते हैं। हमारे घरों में तो एक नौ बजे खा लेता है तो दूसरा एक बजे खाना उचित समझता है। घरवाली या नौकर प्रातः से लेकर दोपहर तक प्रातः के भोजन ही में लगे रहते हैं। इधर मेहमान जिस समय भी घर में आ जाए, यही समझता है कि भोजन तैयार मिलेगा। पहनना-ओढ़ना भी व्यवस्था के अनुसार होता है। अगर वेष बदलता है तो सबका बदल जाता है। नियम में भंग नहीं होता।

    काम करने में भी पूरी व्यवस्था काम करती है। जब काम का समय होता है, इतनी लगन से काम करते हैं कि चित्त प्रसन्न हो जाता है। एक होटल से मुझे एक नौकर स्टेशन पर छोड़ने ले जा रहा था। सारी लॉरी में मैं अकेला था। उससे कहा—'भीतर स्थान है, आ बैठो।' उत्तर दिया—'नहीं, मैं ड्यूटी पर हूँ।' सुकुमार मिसें भी 8-8 घंटे खड़ी मशीन की भाँति कार्य करती हैं। काम करने वाले बैठना जानते ही नहीं। जब कार्य का समय समाप्त हुआ कि मनोरंजन के लिए वह पूर्ण स्वतंत्र हो जाते हैं और छुट्टी के दिनों में खेलकूद, मन-बहलाव में समय लगाते हैं। छुट्टी प्रत्येक को आवश्यक है। घर के काम करने वालों को भी सप्ताह में एक दिन छुट्टी चाहिए। इतिवार को रेलें भी कम चलती हैं और रेल के नौकर में भी आधे एक सप्ताह में, आधे दूसरे सप्ताह छुट्टी करते हैं। स्वास्थ्य और स्वच्छता का मूल्य छोटे नौकरों को भी ज्ञात है। यूरोप में तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो किसी मशीन को चाबी लगा दी है जो विशेष नियमों के भीतर चलती-फिरती दिखाई देती है।

     

     

    स्वास्थ्य रक्षा

    प्रश्न नं. 5 के विषय में मुझे इतना ही कहना है कि मैंने व्यायाम तथा सादे, निरामिष भोजन को स्वास्थ्य के लिए आवश्यक समझा और आज तक इस नियम का पालन करता हूँ। 51 वर्ष की आयु में वैसे ही कार्य कर सकता हूँ, जैसे युवावस्था में कर सकता था। अपनी शक्तियों को व्यर्थ व्यय न किया जाए तो यह दोनों नियम मनुष्य को सदैव तरुण रख सकते हैं।

     

    विज्ञापन के लाभ

    प्रश्न नं. 3 का उत्तर यह है कि विज्ञापन तिजारत के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि प्राणी के लिए प्राण। विलायत वालों ने इससे बड़ा काम लिया है और दिन-दिन ले रहे हैं। यहाँ तक कि दान लेने के लिए भी अब विज्ञापन निकाले जाते हैं। मेरा अनुभव है कि सर्व प्रकार के विज्ञापनों में, पत्रों में विज्ञापन देना शेष सब विधियों से अधिक लाभदायक है; विज्ञापन को झूठे लोगों ने बदनाम कर दिया है। जो इसको विज्ञापन समझते हैं कि झूठी सच्ची बातें लिखकर लोगों को धोखा दिया जाए, वे अपने पैर में आप कुल्हाणी मारते हैं। ऐसी काठ की हंडिया बहुत देर नहीं चढ़ी रहती। 
    मेरा तो यह मत है कि विज्ञापन सुंदर तो अवश्य हो; परंतु सच्चा होना चाहिए। मैं तो विज्ञापन लिखते समय इस बात का ध्यान रखता हूँ कि मेरे क़लम से कोई ऐसी बात न निकले, जिसको मैं असत्य समझता हूँ। सच्चाई से लिखे हुए विज्ञापन अधिक लाभदायक होते हैं। आपके प्रश्न नं. 4 का उत्तर भी इसी में आता है। जहाँ तक संभव हुआ लेन-देन में मेरा व्यवहार सदा से निर्दोष ही रहा है। 
    शेष प्रश्नों के इससे भी संक्षिप्त उत्तर हो सकते हैं। साथियों या कार्यकर्ताओं के व्यवहार अच्छे-बुरे दोनों रहे। मैंने अपने हृदय से किसी के साथ बुराई करने की कोशिश नहीं की। न कभी हुकूमत का घमंड किया, न किसी का हक़ दबाने का विचार किया। ईश्वर पर विश्वास रखकर कार्य किया।

    मैं देशी औषधालयों में बहुत कुछ सुधार की आवश्यकता समझता हूँ। स्वच्छता एक आवश्यक अंग है, जो अतिशीघ्र आनी चाहिए। हमारे कतिपय औषधालयों या चिकित्सालयों को देखकर बुद्धिमान मनुष्य यह समझता है कि इनको स्वास्थ्य का भी ज्ञान नहीं है। व्यवस्था और स्वच्छता हमारे जीवन का अंग बनना चाहिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हंस (आत्मकथा अंक) (पृष्ठ 90)
    • संपादक : प्रेमचंद
    • रचनाकार : ठाकुरदत्त शर्मा
    • प्रकाशन : विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी
    • संस्करण : 1932

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