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मेरी साहित्यिक मान्यताएँ

meri sahityik manytayen

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

मेरी साहित्यिक मान्यताएँ

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    यदि मान्यताओं की दृष्टि से देखा जाए तो मेरा काव्य मुख्यतः मान्यताओं ही का काव्य रहा है। पल्लव काल तक मेरी लेखनी कला पक्ष की साधना करती रही है। पल्लव की भूमिका में मेरे कला संबंधी विचार व्यक्त हुए हैं, किंतु उसके बाद की मेरी रचनाओं में इस युग के मान्यताओं संबंधी संघर्ष को ही वाणी मिली है। साहित्यिक मान्यताएँ जीवन की मान्यता से पृथक् नहीं हो सकती, अतएव साहित्यिक मान्यताओं के मूलों को खोजने के लिए लोक जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना स्वाभाविक हो जाता है। युग की संक्रमणशील परिस्थितियों के कारण मेरा मन अंजाने ही इस युग की महान् विचार एवं भावक्रांति के भँवर में पड़ गया और उससे बाहर निकलने के लिए युगमानस का मंथन करना तथा जीवन मूल्यों के सोपान पर आरोहण करना मेरे लिए अनिवार्य हो गया।

    कुछ लोग कविदर्शन को तर्क को कसौटी में कसकर उसमें एक बाहरी संगति खोजते हैं और अपनी व्यावसायिक दृष्टि की परख में उसमें तरह-तरह के खोट निकालते हैं। ऐसे लोग निश्चय ही कविता का दुरुपयोग कर उससे अनुचित काम लेना चाहते हैं। कविदर्शन तर्क सम्मत नहीं, भावना तथा प्रेरणा-सम्मत होता है। तर्क बुद्धि के खड़े किए बौने अवरोधों को वह हँसते-हँसते लाँघ जाता है। यदि आप उसे अपनी भावना से ग्रहण करने तथा कल्पना का अंग बनाने में असमर्थ हैं तो वह आपकी पकड़ में नहीं सकता। बहुत लोग कल्पना के धन-संचरण को समझने में अक्षम होने के कारण उसके ऋण पक्ष पलायन ही को महत्त्व देते हैं। ऐसे लोगों के पास काव्य से संस्कार ग्रहण करने के लिए उपयुक्त मानसिकता नहीं होती। इन कठिनाइयों का ज्ञान होते हुए भी मुझे यह कहने में हिचक नहीं मालूम देती कि जीवन मूल्यों में दार्शनिक से भी गहरी अंतर्दृष्टि कवि के पास होती है।

    मेरे साहित्यिक मूल्यों की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति ‘ज्योत्स्ना’ नामक मेरे भावना रूपक में मिलती है जिसमें इस युग की खर्व वास्तविकता को अतिक्रम कर मेरी जीवन दृष्टि एक अधिक व्यापक तथा पूर्ण क्षितिज में मानवता के नवीन जीवन की अवतारणा करने का प्रयत्न करती हैं।

    मानव-समाज के रूपांतर की भावना का उदय मेरे मन मे ज्योत्स्ना काल ही में हो गया था। ‘ज्योत्स्ना’ में मन स्वर्ग से अनेक नवीन सृजन शक्तियाँ भू-मानस पर अवतरित होती है। दूसरे शब्दों में ज्योत्स्ना, जो उस नाटिका की नायिका भी है—अनेक उच्चतम भावनाओं तथा आदर्शों को मानवीय परिधान पहनाकर उन्हें लोक मानस में मूर्तित करती है। भौतिक आध्यात्मिक समन्वय तथा रूपांतरित भू-जीवन के मूल्यों की नीव-जिन्हें मेरी आगे की रचनाओं में अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति मिल सकी है मेरे मन में इसी काल में पड़ गई थी। ‘युगांत’ तक मेरी भावना में नवीन के प्रति एक आग्रह उत्पन्न हो चुका था जिसे मैंने द्रुतझरों जगत के जीर्णपत्र हे स्रस्त ध्वस्त हे शुष्क शीर्ण अथवा ‘मा कोकिल, बरसा पावक कण, रच मानव के हित नूतन मन’ आदि रचनाओं में वाणी दी है। इस नवीन भावबोध के सम्मुख मेरा पल्लव युग का कलात्मक रूप-मोह पीछे हटने लगा था। मेरा मन युग के आंदोलनों, विचारों, भावों तथा मूल्यों के नवीन प्रकाश से ऐसा आंदोलित रहा कि पल्लव-गुंजन काल की सूक्ष्म कला-रुचि को मैं अपनी रचनाओं में बहुत बाद को परिवर्तित एवं परिणत रूप में, संभवतः, अंतिमा—वाणी के छंदों में पुनः प्रतिष्ठित कर सका हूँ, जिनमें उसका विकास तथा परिष्कार भी हुआ है और उसमें कला-वैभव के साथ भाव-वैभव भी उसी अनुपात के अनुभ्यूत हो सका है, जो पल्लव-गुंजन काल की रचना में सभव था।

    युगवाणी और ग्राम्या काल में अनेक नवीन सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण मेरे मन में उदय हुए हैं। इनमें मेरी कल्पना ने अनेक अनुद्घाटित नवीन भूमियों तथा क्षितिजों में प्रवेश किया है। वह केवल मेरे भावप्रवण हृदय का आवेग ज्वार था जो विगत युगों की भौतिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक मान्यताओं से ऊब खोझकर, अपनी अबाध जिज्ञासा के प्रवाह में, अंधरूढ़ियों के बंधनों तथा निषेध वर्जनों के अवरोधों को लाँघता हुआ, पार्थिव-अपार्थिव नवीन चैतन्य के धरातलों तथा शिखरों की ओर बढ़ता एवं आरोहण करता गया। वास्तव में वह आरोहण मेरे लिए स्वयं एक कलात्मक अनुभव तथा सांस्कृतिक अनुष्ठान रहा है। इन अनेक अनुभूतियों के क्षितिजों को पार कर ‘स्वर्ण किरण’ में मेरा मन एक व्यापक सामंजस्य की भूमि में पदार्पण कर सका है। उसके बाद की रचनाओं में वह भाव चैतन्य कभी भी मेरी आँखो के सामने ओझल नहीं हुआ है। सौंदर्यबोध तथा भाव ऐश्वर्य की दृष्टि से उत्तरा को मैं अपनी सर्वोत्कृष्ट रचनाओं में मानता हूँ। उत्तरा के पद नव मानवता के मानसिक अरोहण को सक्रिय चेतन आकांक्षा से झंकृत हैं। चेतना की ऐसी क्रियाशीलता मेरी अन्य रचनाओं में नहीं मिलती। उत्तरा के गीतों से ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जो युग मानव के भीतर नवीन जीवन आकांक्षा के उदय को सूचना देते हैं। अपनी रचनाओं से मैंने अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को नवीन मानवता की कल्पना से मंडित कर वाणी देने का प्रयत्न किया है। आध्यात्मिकता के पैर मैंने सदैव पृथ्वी पर स्थिर रखे हैं। मानवता के स्वर्ग को मैंने भौतिकता के ही हृदय कमल में स्थापित किया है। आध्यात्मिकता के निष्क्रिय निषेधात्मक ऋण पक्ष की अवहेलना कर मैंने उसे भू-जीवन के विकास तथा जन मंगल का साधन बनाने का प्रयत्न किया है। मैंने भौतिक प्राध्यात्मिक दोनों दर्शनों से जीवनीपयोगी तत्वों को लेकर, जड़ चेतन संबंधी एकांगी दृष्टिकोण का परित्याग कर, व्यापक सक्रिय सामंजस्य के धरातल पर नवीन लोक जीवन के रूप में सर्वांगपूर्ण मनुष्यत्व अथवा मानवता का भाव-दर्शन प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार मान्यताओं की दृष्टि से मैंने अपनी रचनाओं में जीवन-सत्य और जीवन-सौंदर्य का उपयोग लोकजीवन मांगल्य के लिए ही करना काव्योचित समझा है। वाणी की ‘आत्मिका’ शीर्षक रचना में मैं अपने मान्यताओं संबंधी दृष्टिकोण को अधिक परिपूर्ण अभिव्यक्ति दे सका।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 271)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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