फेरीवालों की आवाज़ें

pherivalon ki avazen

महेश्वर दयाल

महेश्वर दयाल

फेरीवालों की आवाज़ें

महेश्वर दयाल

और अधिकमहेश्वर दयाल

    दिल्ली के फेरीवालों की एक बड़ी विशेषता यह थी कि अपने सौदे को एक बड़ी लच्छेदार आवाज़ में और अकसर सुरीले स्वर में और कभी-कभी तो गाकर बेचते थे। किसी साहित्यकार ने सच आवाज़ें सुनकर ऐसा लगता था कि इस्फ़हान के शहर चौक में ग़ज़ल पढ़ रहे हैं। दिल्ली के बारे में यह भी मशहूर था कि यहाँ हर आदमी चाहे वह पढ़ा-लिखा था या नहीं कलापूर्ण रूचि और संवेदनशील रखता था। फेरीवाले जो भी आवाज़ लगाते, वह आमतौर पर उनका अपना आविष्कार होता या अगर किसी और का भी होता तो उसमें अपनी तरफ़ से भी कुछ-न-कुछ जोड़ लेते। लेकिन जो कुछ भी कहते गागर में सागर भर देते और सुननेवालों को बढ़ा आनंद आता। आदमी को अगर चीज़ भी लेनी होती तो भी फेरीवाले की आवाज़ सुनकर उसे रस आने लगता और उसे ख़रीदने की इच्छा उसके मन में पैदा हो जाती।

    फेरीवालों का गाकर अपने सौदे को बेचने का रिवाज़ मुग़लों के ज़माने में शाहजहाँ के काल से शुरू हुआ। शाहजहाँ की इच्छा थी कि फेरीवाले उसकी नई राजधानी शाहजहाँनाबाद में अपनी चीज़ों को साफ़ और ऊँची आवाज़ में बेचें ताकि घर की औरतें अपने घरों की ड्योढ़ी पर ज़रूरत की चीज़ें ख़रीद सकें और फेरीवाले तथा राह चलते लोग उन्हें देख सकें।

    गर्मियों में आम, ख़रबूज़े, ककड़ी, तरबूज़ वगैरह की बहार होती। आमवाला चिल्लाता—

    केराने का लडुवा, सरौली की बहार

    लड्डू हैं पाल के, पाल के लड्डू

    बासी परांठे के संग खा लो

    रस के घड़े हैं ये चूसनेवाले।

    ख़रबूज़ेवाला लहक-लहककर गाता और सबसे बाज़ी ले जाता—

    नन्हें के अब्बा चक्कू लाना चख के लेना,

    सच्ची कहना फीके या मीठे!

    बीच में कोई शकरकंदवाला बोल उठता—

    बिन कढ़ाई का हलवा, शकरकंदी।

    ककड़ियोंवाला ककड़ियों को पानी से तर करता रहता और चिल्लाता—

    लैला की उँगलियाँ, मजनूँ की पसलियाँ

    तैरकर आई हैं बहते दरियाव में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत (भाग-2) (पृष्ठ 24-25)
    • रचनाकार : महेश्वर दयाल
    • प्रकाशन : एनसीईआरटी
    • संस्करण : 2022

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