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जीवन के अनुभव और उपलब्धियाँ

jivan ke anubhav aur uplabdhiyan

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

जीवन के अनुभव और उपलब्धियाँ

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    हम एक ऐसे महान् युग में पैदा हुए हैं, और इसमें ऐसी महत्त्वपूर्ण क्रांतियाँ और परिवर्तन, मानव जीवन के बाहरी-भीतरी क्षेत्रों में आज उपस्थित हो रहे हैं कि साधारण से साधारण मनुष्य का जीवन भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। एक युगजीवी की तरह मेरे मन को भी अनेक विचारों तथा अनुभवों ने स्पर्श किया है जो एक प्रकार से स्वाभाविक ही है। वैसे मनुष्य को अपने जीवन में छोटे-मोटे अनेक प्रकार सदैव मनुष्य के भीतर के अनुभव होते रहते हैं और उन अनुभवों की प्रतिक्रियाओं के मूल नहीं होते, अधिकतर, बाहर ही होते हैं। अपने युग में हम स्वामी दयानंद या रामकृष्ण परमहंस और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों के लिए कह सकते हैं कि उनकी अनुभूतियों एवं उपलब्धियों के मूल मुख्यत: उनके भीतर रहे हैं, क्योंकि वे एक विशेष मनःस्थिति लेकर पैदा हुए थे, और मानव जीवन तथा लोकजीवन या विश्व-जीवन संबंधी प्रतिक्रियाएँ उनके मन में उनकी विशेष प्रकार की अंत:स्थिति के कारण, जनसाधारण से बिल्कुल ही भिन्न, एक विशेष प्रकार की हुई है, उनके जीवन का एक विशेष लक्ष्य रहा है, और उसी की प्रेरणा से उन्होंने मानव जीवन को एक व्यापक धरातल पर समझने तथा उसे अपने विचारों-अनुभवों तथा क्रियाकलापों से प्रभावित करने का प्रयत्न किया है। किंतु अधिकांश मनुष्यों के लिए यह कहा जा सकता है कि वे मुख्यत: बाहर के ही जगत की छोटी-बड़ी घटनाओं से किसी किसी रूप में प्रभावित होते हैं और उन्हीं की प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप अपने अनुभवों के कोष की वृद्धि करते हैं। इन दोनों कोटियों के बीच में कुछ ऐसे भी भावप्रवण तथा संवेदनशील व्यक्ति होते हैं जिसका अपना विशिष्ट अनुभवों का संचय होता है और जिन्हें अपने युग की जीवन-चेतना अधिक गंभीर अर्थों में स्पर्श करती है।

    इस दृष्टि से जब मैं, अपने जीवन के बारे में सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि मैंने अपने को अनुभवों की सीमाओं में नहीं बँधने दिया है और अपने स्वभाव तथा परिस्थितियों का समानरूप से अध्ययन कर अपने हृदय को उनकी प्रतिक्रियाओं से मुक्त रखने का प्रयत्न किया है और उसे सदैव नवीन के प्रति जागरूक तथा सचेष्ट रखा है। आज का युग परिस्थितियों की चेतना को जितना अधिक महत्त्व देता है मेरे मन ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया और सीमित तथा विरोधी परिस्थितियों में भी में आगे बढ़ने के लिए निरंतर प्रेरणा ग्रहण करता रहा हूँ। परिस्थितियों को ही सब कुछ मान लेने पर मन निष्क्रिय हो जाता है और उसकी स्वतंत्र संकल्प करने की शक्ति को धक्का लगता है। आज गुणात्मक तथा व्यक्तिपरक मान्यताओं की उपेक्षा कर जो एक यांत्रिक सामूहिक जीवन संचरण को इतनी प्रधानता दी जा रही है, उसका मुख्य कारण परिस्थितियों के सत्य को अधिक महत्त्व देना ही है। आज मनुष्य के भीतर ह्रास और विकास—दोनों प्रकार की शक्तियाँ कार्य कर रही है। ह्रोसोन्मुखी मानव-चेतना की विकीर्ण शक्तियों को संयमित करने के लिए समूहीकरण की योजना की आवश्यकता अनिवार्य होने पर भी उसे सर्वाधिक महत्त्व देकर, यांत्रिकता के स्तर पर परिचालित करना मानव विकास के लिए उतना ही घातक भी है; क्योंकि उससे मनुष्यत्व के विशेषीकरण के गुणात्मक संचरण को क्षति पहुँचती है और जिस व्यापक भूमिका में मानव चेतना पदार्पण करने जा रही है उसके लिए उसका गुणात्मक विकास अत्यंत आवश्यक है। आज के विश्व-जीवन में मुख्य विरोध तथा असंतोष का कारण यही विशेषीकरण तथा समाजीकरण के संचरणों का असंतुलन है। आज ह्रास और अभ्युदय की शक्तियों को हमें इसी नवीन परिप्रेक्ष्य में समझ कर उनका पुनर्मूल्यांकन करना है। इसी अंतर्दृष्टि से आज हम आर्थिक राजनीतिक आंदोलनों के उत्पीड़न तथा आधुनिक सुधारवादी धार्मिक-नैतिक आंदोलनों की संकीर्णताओं से मानवता की रक्षा कर सकते हैं।

    यह विश्वास मेरे मन में दिन पर दिन दृढ़ होता जा रहा है कि विज्ञान केवल मनुष्य के बाह्य जीवन के ढाँचे का ही निर्माण कर सकता है। नवीन मानवता क्या है, उसके क्या उपादान हों, इसका निर्णय विज्ञान नहीं कर सकता, उसके लिए हमें अन्यत्र अनुसंधान करना होगा। विज्ञान अधिक से अधिक हमारी बौद्धिक प्रक्रिया को तीव्र बना सकता। हृदय के क्षेत्र से वह अनभिज्ञ है, वह मानव हृदय की रचना या संस्कार नहीं कर सकता। वह देश पर विजय प्राप्त कर सकता है, पर काल को हस्तगत नहीं कर सकता। काल की संपदा को दुहने के लिए, काल के विकासशील अंतर में प्रवेश करने के लिए हमें दूसरे साधनों का अवलंब ग्रहण करना होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि मनुष्यत्व के संस्कार का प्रश्न इस युग में अछूता ही रह गया है। विज्ञान ने हमारे भौतिक परवेश तथा रहन-सहन की परिस्थितियों में रूपांतर उपस्थित कर उनका परिष्कार किया है पर वह मनुष्य के अंतस्तल में प्रवेश कर तथा उसके भीतर के हिस्र बर्बर पशु का उन्नयन कर उसे अधिक संस्कृत, उदात्त या सुंदर नहीं बना सका है। बल्कि इस वैज्ञानिक युग में मनुष्यत्व के ह्रास ही के चिह्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं। मनुष्य के अंत सत्य का बोध प्राप्त करने के लिए तथा उसे वैयक्तिक-सामूहिक रूप में विश्व जीवन में मूर्त एवं प्रतिष्ठित करने के लिए हमें समदिक-दृष्टि विज्ञान के साथ ही अन्य ऊर्ध्वचेतन, सांस्कृतिक अनुष्ठानों तथा उपायों की भी आवश्यकता पड़ेगी। आज विगत ऐतिहासिक युगों की खंड मानव-चेतनाओं तथा संस्कृतियों को व्यापक मानवता के रूप में संयोजित करने के लिए हमें मानव मन की गहराइयों में नवीन आध्यात्मिक प्रकाश डालकर मानव-प्रवृत्तियों का पुनर्मूल्यांकन करना होगा और विगत युगों की खर्व, बौनी मनुष्यता को अधिक व्यापक, उन्नत भूमिका में पदार्पण करवाना होगा—अन्यथा हम वैज्ञानिक सुविधाओं एवं साधनों का उपयोग विकसित मनुष्यत्व का निर्माण तथा लोक कल्याण के लिए करने के बदले लोक संहार तथा सभ्यता के विध्वंस के लिए ही करेंगे, जिसकी इस युग में, तथाकथित वैज्ञानिक चेतना के प्रतिनिधि, बड़े-बड़े राष्ट्र आज शीत युद्ध तथा आणविक विस्फोटों के परीक्षणों द्वारा तैयारी कर रहे हैं।

    आज का मनुष्य चक्की के दो निर्मम पाटो के बीच पिस रहा है। उसके बाह्य जीवन की परिस्थितियाँ भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों के कारण इतनी अधिक सक्रिय हो गई है कि वह उन्हें सँभाल नहीं पा रहा है और अपनी नई भौतिक शक्ति के मद से उन्मत्त होकर भीषण आत्मविनाश की ओर अग्रसर हो रहा है। आज का युग जैसे एक भयानक असंतोष तथा विद्रोह के भूकंप के ऊपर खड़ा है और किसी भी दिन वह अपना संतुलन खोकर अंधकार के गहरे गर्त में गिर सकता है। यह अंधकार का गर्त बाहर से भी अधिक उसके भीतर की ओर बढ़ रहा है। अपने उच्च स्तर पर आज मानव-चेतना पिछले युगों की मान्यताओं तथा रूढ़ि-रीतियों के पाश में बँधी हुई, निष्क्रिय तथा पंगु होकर अपने सूनेपन के औदास्य में खो गई है। मनुष्य के भीतर युगों से प्रेतों की तरह खडी जाति-पाँतियों, धर्मों, संप्रदायों, आचारों तथा नैतिक दृष्टिकोणों की अध दीवारें आज जैसे संक्रांति काल के अंधकार में सशंकित एवं पुनर्जीवित हो एक-दूसरे से टकराकर विश्व-मानवता की प्रगति में बाधक सिद्ध हो रही है। विज्ञान ने बाहर की परिस्थितियों पर प्रकाश डालकर तथा उनका पुननिर्माण कर उन्हें सँवार अवश्य दिया है किंतु मानव-मन की भीतरी परिस्थितियाँ अभी अपने को तदनुरूप नवीन आध्यात्मिक प्रकाश में नहीं सँजो सकी है। उन्हें अपनी सीमाओं को पहचानकर अपने को अधिक व्यापक बनाना है जिससे वे मानवता की नवीन चेतना का गौरव वहन करने के योग्य बन सकें।

    अपने अनेक अनुभवों से मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि इस युग में मानव-प्रवृत्तियों तथा जीवन-मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक है। मनुष्य की पिछली मान्यताएँ आज उसके विकास के पथ को प्रशस्त बनाने के बदले दुर्लघ्य अवरोध बनकर, उसकी प्रगति को रोके हुए हैं। विभिन्न धार्मिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोणों को अतिक्रम कर आज मानव चेतना को एक नवीन जीवन-भूमि में पदार्पण करना है जिसके बिना विगत दृष्टिकोणों में सामंजस्य स्थापित करना संभव नहीं है। अपने वर्तमान व्यक्तिगत, वर्ग तथा राष्ट्रगत स्वार्थों में विभक्त मानव चेतना विज्ञान की उपलब्धियों का भी यथोचित उपयोग नहीं कर सकती और ज्ञान, विज्ञान, अर्थ, यंत्र आदि सबंधी सभी प्रकार की उन्नति के होते हुए भी, मनुष्य अपनी वर्तमान मानसिक सीमाओं के रहते हुए, इस पृथ्वी पर शांति, जीवन-सौंदर्य तथा लोकमंगल के स्वर्ग को प्रतिष्ठित नहीं कर सकता, जिसके लिए आज युद्ध के बदले एक व्यापक संशक्त विश्व-व्यापी सांस्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता है, जो मनुष्य के भीतर-बाहर के जीवन में नवीन संयोजन स्थापित कर सकेगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 314)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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