Font by Mehr Nastaliq Web

मेरी मनोकामना का भारत

meri manokamana ka bharat

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

अन्य

सुमित्रानंदन पंत

मेरी मनोकामना का भारत

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    मेरी मनोकामना का भारत! मन में प्रश्न उठता है, क्या हम आज सचमुच भारत के रूप में, भारत ही के लिए सोचते हैं? क्या आज मानव-मन देश-देशांतर के अंतराल को अतिक्रम नहीं कर चुका है? क्या आज एक विश्व-जीवन, एक भू-जीवन अथवा एक मानवता की सुनहली कल्पना हमारे मन में अस्पष्ट आकार ग्रहण नहीं कर रही है आज का विज्ञान ज्ञात-अज्ञात रूप से जिसकी सुदृढ़ नींव डाल रहा है, आज की राजनीतिक आर्थिक संस्थाएँ जिसके विराट् भवन की रूप रेखाओं का ढाँचा निर्माण करने में अप्रत्यक्ष रूप से संलग्न है, आज का दार्शनिक जिसके शुभ्र शिखर पर मंगल कलश स्थापित करने के स्वप्न देख रहा है और आज का कवि एवं कलाकार जिसमें मांसल रंगों का वैचित्र्य तथा अकृतिम सौंदर्य भरने की साधना में लगा हुआ है, वह एक मानवता की कल्पना तथा एक भू जीवन का स्वर्ग ही तो है।

    हाँ, निश्चय ही, आज जब हमारी मनोकामना का द्वार खुलकर भारत के भविष्य को अथवा उसके भावी रूप की आँखों के सामने उद्घाटित करना चाहता है तो वह वास्तव में भावी विश्व जीवन और भावी मानवता के ही चित्र का अनावरण कर रहा है। भूत विज्ञान की सहायता से आज मनुष्य देश अथवा दिक् प्रसार को अतिक्रम तथा हस्तगत कर एक दूसरे के सन्निकट आता जा रहा है और विभिन्न देशों तथा राष्ट्रों की जीवन-रचनाएँ अथवा शासन विधान परस्पर आर्थिक-राजनीतिक संबंध स्थापित कर अनिवार्यतः एक विश्व सत्ता अथवा अंतर्राष्ट्रीय सत्ता का अंग बनती जा रही है। निकट भविष्य में मनुष्य को बृहत्तर ज्ञान की सहायता से काल के व्यवधान को भी अतिक्रमण करना है, और अतीत के गहरे गर्तों से ऊपर उठकर, इतिहास की कुहासे की भित्तियों को छिन्न-भिन्न कर, जातियों, धर्मों, रीतियों, रूढ़ियों के छोटे-बड़े अंधकार भरे कक्षों तथा खंडहरों से बाहर निकलकर, एक महत्तर शिवतर मानव-संस्कृति के प्रांगण में समवेत होना है।

    भारत का, अथवा किसी अन्य देश का भविष्य की विराट् मानवता के निर्माण में आत्म-दान अथवा आत्म-प्रसार ही उसका वह वरेण्य रूप होगा जिसकी कि आज मन कामना करता है। मानव सभ्यता का संघर्षों, युद्धों, विद्रोहों एवं विप्लवों से भरा हुआ इतिहास, व्यापक दृष्टि से मानव विकास की एक अवश्यंभावी अनिवार्य अवस्था अथवा स्थिति भर थी। मनुष्य का मन पृथ्वी के जीवन के अंधकार को टटोलता हुआ, धीरे-धीरे परिवारों, संघों, संप्रदायों, देशों तथा राज्यों के अनुरूप विभिन्न प्रचार-विचारों तथा जीवन-प्रणालियों में संगठित एवं विकसित होकर अब एक एसी स्थिति पर पहुँच गया है जहाँ उसकी चेतना इतिहास के इन छोटे-मोटे घेरों में बँधकर नहीं रह सकती है। वह अपने अतीत की सीमाओं के बंधनों को तोड़कर विश्वऐक्य तथा लोकसाम्य पर प्रतिष्ठित बृहत्तर मानवता के आदर्श को अपने जीवन में चरितार्थ करना चाहता है।

    प्रश्न यह है कि भारत मानवजाति के इस स्वप्न को साकार करने में किस प्रकार सहायता कर सकता है? क्या वह अपने को स्वयं वसुधैव कुटुंबकम् का मूर्तिमान उदाहरण बना सकता है? यदि हाँ तो वह किस प्रकार? साधारणत यह सुना जाता है कि भारतवर्ष आध्यात्मिक देश है। वह ऐहिक तथा लौकिक जीवन के विरुद्ध—अथवा उसका निर्माण करने में अक्षम, पारलौकिक अतींद्रिय ध्येय से अनुप्राणित, असीम के भारहीन बोझ से दबा हुआ, अपनी सीमाओं से अनभिज्ञ, यथार्थ से शून्य, शाश्वत आनंद का अभिलाषी तथा मनुष्य के प्रति विरक्त और देवताओं के प्रति आसक्त है। किंतु विचारपूर्वक देखा जाए तो यह केवल हमारे मध्ययुगीन ह्रास की विचारधारा है, और जब भी सभ्यताएँ अथवा सस्कृतियाँ ह्रास की ओर उन्मुख होती हैं तब मनुष्य के मन में जीवन के प्रति विरक्ति, नैराश्य, अवसाद की भावना तथा अदृष्ट पर विश्वास घर कर लेता है। यदि सचमुच ही भारत की आध्यात्मिकता की आधारशिला यही थोथी दार्शनिकता होती तो वह पूर्वकाल में इतनी विशाल संस्कृतियों तथा जीवन-सौंदर्य से पूर्ण कलाओं को जन्म नहीं दे पाता। भारतवर्ष आध्यात्मिक देश अवश्य रहा है और अब भी है; और संभवत: यह उसका अंतर्जात स्वभाव या गुण होने के कारण, आगे भी, वह आध्यात्मिक ही रहेगा। पर उसकी यह प्राध्यात्मिकता क्या है, उसका वास्तविक अर्थ जान लेना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि वही उसके भावी व्यक्तित्व की भी कुंजी है। और उसकी आध्यात्मिकता, मध्ययुगों के अंधकार से मुक्त होकर, यदि अपने मौलिक रूप में प्रकाशमान हो सकी तो वह समस्त विश्व कल्याण के लिए भी एक अमूल्य अक्षय देन होगी।

    इसमें कोई भी संदेह नहीं कि प्रत्येक देश, जाति या मनुष्य अपने ही भीतरी स्वभाव तथा अंतश्चेतना की दिशा में विकास पाकर प्रगति कर सकता है। और भारत भी अपने भावी राष्ट्र-निर्माण के लिए दूसरा मार्ग नहीं ग्रहण कर सकता। वर्तमान काल में विश्व शक्तियों का जिस प्रकार विभाजन हुआ है उसे देखकर, ज्ञात-अज्ञात रूप से, भारत उसी व्यापक ध्येय से अनुप्राणित भी हो रहा है। भारतीय चिंतकों तथा मनीषियों का सदैव से यह अनुभव रहा है और अपने ह्रास तथा अंधकार के युगों में भी वे इसे पूर्णत: नहीं भुला सके हैं कि बहिर्मुखी यथार्थ के सत्य पर ही मानव-जीवन आधारित नहीं है। वही मानव का पूर्ण सत्य नहीं है और बाहरी शक्तियों के ही इंगित पर मानव जीवन का संचालन नहीं किया जा सकता, और वह मात्र बाह्य आदर्शों से प्रेरित होकर कल्याण के पथ की ओर ही अग्रसर हो सकता है। भारत भौतिक शक्तियों की महत्ता तथा उपयोगिता को स्वीकार करता है पर उन्हीं को संपूर्ण सत्य नहीं मानता। उसे बाह्य जगत के अतिरिक्त मानव के अंतर्जगत की शक्तियों का भी अनुभव तथा ज्ञान है। उसका मानस-जीवन प्रसार से ऊपर और भी सूक्ष्म प्रसारों पर विचरण करना जानता है। उसे बुद्धि तथा मन के शिखरों के पीछे और भी उच्च ज्योतिर्मय सत्य के शिखरों का अस्तित्व बोध है। अतएव वह मनुष्य के समतल जीवन की पूर्णता तथा सार्थकता के लिए मानव चेतना की ऊर्ध्वमुखी शक्तियों का उपयोग भी आवश्यक समझता है, जिनके समन्वय तथा सामंजस्य से ही उसकी दृष्टि में लोक-कल्याण की साधना संभव हो सकती है। किंतु इस ऊर्ध्व आध्यात्मिक उड़ान को भी भारत के मानस ने संपूर्ण सत्य कभी माना क्योंकि कोरी आध्यात्मिकता इस धरती पर केवल शून्य के बल पर नहीं पनप सकती। इस असीम से परिणीत आध्यात्मिकता के साथ ही भारत वर्ष के पास अत्यंत प्रबल तथा प्रखर बौद्धिकता तथा जीवनांदमयी उर्वर प्राणशक्ति भी रही है। अपनी बहुमुखी बौद्धिकता से उसने मानव जीवन के सत्य का सूक्ष्म विश्लेषण कर उसे युग-युग के अनुरूप अनेक नियमों, दर्शनों तथा सामाजिक विज्ञानों में सँवारा है। और अपनी प्रचुर अक्षय जीवनी शक्ति तथा नव नवोन्मुखी प्रतिभा के कारण उसने सदैव सृजन-शील रहकर अनेकों कला-कौशलों को जन्म दिया है। आज गाँधी जी के लोकोत्तर व्यक्तित्व के रूप में भारत के उस सुप्त मानस संचय का पुनर्जागरण हुआ है। वह फिर से जाग्रत तथा सक्रिय होकर नई दिशाओं की ओर प्रवाहमान हुआ है और उसने वर्तमान विश्व समस्याओं का अध्ययन कर उनके भीतर से अपना गंतव्य खोजना आरंभ कर दिया है। आज के जन जीवन संहारकारी युद्धों की संभावनाओं में समस्त संसार के मध्य भारतवर्ष विश्व शांति की धरोहर रूपी हिमालय की तरह अपने ध्येय पर अटल रहेगा, इसमें मुझे संदेह नहीं है। भारत को सदैव मेरे मन ने विश्व के मानस संचय के रूप में अथवा ज्ञान के प्रतिनिधि के रूप में देखा है। उसके शारद व्यक्तित्व की कल्पना मेरे भीतर शांति, ज्योति, मानव प्रेम तथा जीवन सौंदर्य की सुनहली रेखाओं से मंडित होकर उतरी है। आज भारतवर्ष के भविष्य के संबंध में अनेक प्रकार की धारणाएँ विचारवान लोगों के मन में उठ रही हैं। बहुतों का विश्वास है कि भारत के पूर्ण विकास तथा उन्नति के लिए लोक साम्य तथा न्याय पर आधारित एक व्यापक सामाजिक विधान की आवश्यकता है जो सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शोषण एवं असंगतियों से पूर्णतया मुक्त होगा। इस मत से मैं पूर्णतः सहमत हूँ। मैं भारतवर्ष को सर्वप्रथम अन्न वस्त्र से भरा-पुरा, प्रसन्न तथा जीवन-मांसल देखना चाहता हूँ, जिससे वह और भी मनोयोगपूर्वक सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हो सके। पश्चिम से जो समाजवादी आर्थिक तथा राजनीतिक मान्यताएँ हमें मिली है उनका उपयोग तथा प्रयोग हमें अपनी परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुरूप अवश्य करना चाहिए। इस दृष्टि से हमारी मध्ययुगीन अनेक धार्मिक-सांप्रदायिक प्रवृत्तियाँ हमारी उन्नति के पथ में बाधक बन सकती है, जिनको हमें पूर्ण शक्ति से रोकना चाहिए। बहुत से लोग अभी हमारे देश में अतीत के ग्राम जीवन और संस्कृति का पुनर्जागरण चाहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि ऐसे भावुक व्यक्ति आज देश का हित करने के बदले उसकी प्रगति के पथ में काँटे ही बो रहे हैं। इन में से जो पुराने ढंग के धार्मिक विचार के लोग हैं वे कुछ जीर्ण-शीर्ण नैतिक आदर्शों तथा रूढ़ि-रीतियों में पथराए हुए आचारों को ही मानव-जीवन की निधि तथा सर्वस्व समझ बैठे हैं। ऐसे लोगों से भी सतर्क रहने की हमें आवश्यकता है। जो विचारक यह मानते हैं कि हमें अपने अतीत की परंपराओं में जो सर्वश्रेष्ठ है उसे ग्रहण तो करना चाहिए किंतु साथ ही मानव सभ्यता के विकास में प्राप्त नवीन मानसिक तथा भौतिक शक्तियों का भी नवीन भारत के जीवन निर्माण में उपयोग करना चाहिए, वे मुझे सत्य के अधिक निकट लगते हैं।

    वास्तव में, हमारे देश पर समय-समय पर इतनी विदेशी संस्कृतियों तथा सभ्यताओं के प्रभाव पड़े हैं कि हम उन सब के स्वस्थ तत्वों को आत्मसात् कर एक नवीन सभ्यता तथा संस्कृति को जन्म दे सकते हैं। किंतु इसके लिए हमें अपने मध्ययुगीन संकीर्ण दृष्टिकोणों तथा अनुर्वर पूर्वग्रहों से ऊपर उठना पड़ेगा और साथ ही आज के बहिर्मुखी विश्व जीवन में जिस अंतःसंतुलन की कमी है उसकी पूर्ति भी हमें अपनी आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि से करनी पड़ेगी। जो लोग आज के नवीन भौतिकवाद की शक्तियों का आँख मूंदकर अनुकरण करना चाहते हैं वे भी भावी मनुष्यत्व के सत्य से वंचित हैं क्योंकि यह नवीन भौतिकवादी दृष्टिकोण आज पश्चिमी देशों की जीवन समस्याओं का भी समाधान प्रस्तुत करने में असफल सिद्ध हो रहा है जहाँ कि इसने जन्म लिया है। यह दृष्टिकोण विश्व युद्धों को तो जन्म दे ही रहा है, यह पश्चिमी सभ्यता तथा संस्कृति के ह्रास का भी परिचायक है। इसका कारण यह है कि पश्चिम में इस युग में बहिर्जीवन या भौतिक जीवन के विकास के अनुपात में अंतर्जीवन अथवा आध्यात्मिक जीवन का विकास नहीं के बराबर हो सका है। विज्ञान ने बाह्य प्रकृति की विराट् प्रच्छन्न शक्तियों का उद्घाटन कर जो नवीन जीवनोपयोगी साधन मनुष्य को सौंपे हैं उनके अनुरूप मानसिक तथा आत्मिक विकास हो सकने के कारण मनुष्य उनका समुचित उपयोग नहीं कर सका है और वे उसके हाथों की निर्माण शक्ति को बढ़ाने के बदले संहार की शक्ति को ही बढ़ा रहे हैं। वास्तव में विज्ञान ने अभी तक मनुष्य के लिए जितनी निर्माण-सामग्री प्रस्तुत की है उसकी तुलना में विश्व विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों की वृद्धि कहीं अधिक परिमाण में हुई है, जिनकी संहार शक्ति से आज धरती पर से मानव सभ्यता एकदम ही विलुप्त हो सकती है। इसमें संदेह नहीं कि भौतिक विज्ञान के अभ्युदय के कारण युग-युग से निष्क्रिय मानव जीवन की परिस्थितियाँ नवीन शक्तियों का सजीवन पाकर अत्यधिक सक्रिय हो गई है और उनके आधार पर आज संसार में अनेक प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक आंदोलन मानव सभ्यता के लिए एक नवीन सामाजिक ढाँचा निर्माण करने का प्रयत्न कर रहे हैं। किंतु मानव समाज की जीवन-शैली परिवर्तित करने वाले इस प्रकार के बाहरी प्रयत्न मनुष्य चेतना का संस्कार कर उसे कोई नवीन दिशा नहीं दे पा रहे हैं। एक ओर मनुष्य की चेतना इन विश्व परिवर्तनों से सशंकित होकर एवं अपने पूर्व संकीर्ण जीवन अभ्यासों में संगठित होकर और भी व्यक्तिपरक तथा निर्मम होती जा रही हैं और दूसरी ओर वह सामूहिक अहंता के विद्रूप बोझ से दबती जा रही हैं। ऐसी अवस्था में इन आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों में स्वस्थ मानवीय सामंजस्य एवं संतुलन लाने के लिए आज एक व्यापक सांस्कृतिक संचरण की परम आवश्यकता है जो मानव-चेतना के अंतर्मुखी विकास का मार्ग भी प्रशस्त कर सके और मनुष्य के अंतर्जीवन को सँवार कर उसे सत्य के पूर्णतर रूप में प्रतिष्ठित कर सके।

    ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन के नेतृत्व के लिए मैं भारत को सब तरह से उपयुक्त मानता हूँ। क्योंकि मानव के अंतर्जगत का ज्ञान प्राप्त करने तथा अंत:साधना करने की ओर उसका स्वाभाविक झुकाव रहा है। उसने यथार्थ के गरल के साथ सत्य के अमृत का भी पान किया है और उसका ऐतिहासिक व्यक्तित्व एक प्रकार से मनुष्य के अमृतत्व का प्रतिनिधित्व करता आया है। जीवन की नवीनतम वास्तविकता का ज्ञान अन्य देशों से संचय कर वह उसे सार्वभौम कल्याण के लिए अधिक व्यापक तथा उन्नत दिशाओं की ओर प्रवाहित कर सकता है और एक ऐसी सर्वांगपूर्ण संस्कृति को जन्म दे सकता है जो मनुष्य के विवेक, उसके सौंदर्य-ज्ञान तथा उसके नैतिक संबोध के साथ ही उसकी प्राणशक्ति तथा दैहिक जीवन की आवश्यकताओं को भी पूर्णतया सामंजस्य की दिशा में प्रस्फुटित कर सके। ऐसे प्रयत्न इस युग में अवश्य ही एकदेशीय प्रयत्न बनकर नहीं रह सकते। उनकी सफलता के लिए अन्य देशों का सहयोग भी उतना ही आवश्यक है। किंतु इस युग में एक ऐसे सांस्कृतिक विश्व संचरण की अनिवार्य आवश्यकता है जो मानव जीवन के बाहरी ढाँचे को बदलने के साथ ही उसके मनोविन्यास का भी रूपांतर कर सके, इसमें मुझे रत्ती भर संदेह नहीं है।

    वास्तव में विज्ञान ने मानव जीवन को सुख-संपन्न बनाने के लिए जिन संभावनाओं का द्वार हमारी आँखों के सामने खोल दिया है उन्हें हम इसीलिए चरितार्थ नहीं कर सकते हैं कि विज्ञान ने प्रकृति का जिस प्रकार उद्घाटन किया है उसी प्रकार वह मानव चैतन्य के सत्य का उद्घाटन नहीं कर सका है। यह मनुष्य के संबंध में केवल उसके जैविक अस्तित्व बोध की वृद्धि कर पाया है जो उसके पूर्ण अस्तित्व का केवल छिलका भर है। मानव सत्य का कोई ऐसा रूप वह हमारी आँखों के सामने खड़ा नहीं कर पाया है जो मानव में प्रेम, ज्ञान, सौंदर्य तथा आनंद की परिपूर्णता के ध्येय को, अथवा उसकी आत्मा की चिर अतृप्त पिपासा को शांत कर, चरितार्थता प्रदान कर सके। भौतिक विज्ञान हमें अन्न, वस्त्र, आवास तथा आवागमन की सुविधा देता है किंतु किसके लिए? वह कौन-सा, कैसा, संस्कृत, अतःस्थित, प्रबुद्ध मानव है अथवा होगा जो इन सुविधाओं का उपभोग तथा संरक्षण करने में समर्थ होगा? उस मनुष्य के मनुष्यत्व के बारे में विज्ञान एकदम चुप है। जब तक इन बृहत्तर सुविधाओं एवं ऐश्वर्यों के उपकरणों के साथ उस मनुष्य की भी रचना या सृष्टि नहीं होगी जो उन्हें कृतार्थता प्रदान कर सकेगा तब तक हमारे सामाजिक निर्माण के प्रयत्न विफल तथा असंभव ही से रहेंगे। अतएव जब मैं भारत की आध्यात्मिकता की बात कहता हूँ तो मेरा अभिप्राय उस आध्यात्मिकता से है जो मानव-जीवन के सत्य का अथवा उसकी आत्मा का पूर्णतम उद्घाटन कर उसे सर्वांग विकसित इकाई के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। एक ऐसी आध्यात्मिकता जो मनुष्य के बौद्धिक, मानसिक, प्राणिक, कायिक तथा उसके भौतिक अस्तित्वों के जीवन को सर्वांगपूर्ण सक्रिय सामंजस्य में सवार कर उसे सुंदर से सुंदरतर, शिव से शिवतर तथा सत्य से बृहत्तर सत्य की ओर ले जा सके। यह एक अविश्वास मात्र है जो हम ऐसा समझते हैं कि आध्यात्मिकता केवल अभाव, दारिद्र्य तथा जीवन के प्रति विरक्ति तथा वितृष्णा के जंगल ही फूलती-फलती है और यह भी एक अपवाद-मात्र है जो कहते हैं कि आध्यात्मिकता जीवन संघर्ष से दूर कहीं हिमालय की चोटी पर या शून्य आकाश में निवास करती है। वास्तव में अध्यात्म मानव-जीवन का ही पूर्ण दर्शन है, उसमें मनुष्य की समस्त समस्याओं का समाधान मिलता है और वह इसी पृथ्वी पर मानव जीवन को पूर्ण रूप से चरितार्थ करने की शक्ति रखता है।

    मैं तरुण भारत की आँखों में इस नवीन मानव संस्कृति के स्वप्नों का सौंदर्य देखना चाहता हूँ। उसके मुक्त हृदय की धड़कन में व्यापक और उच्चतर भावनाओं के संगीत की झंकार सुनना चाहता हूँ। मैं उसके सौम्य आनंद में नवीन मनुष्यत्व की गरिमा की झलक देखना चाहता हूँ। भारत के नवोदित कवि विश्व जीवन के इस नवीन अरुणोदय के गीत गा सके और मानव-आत्मा के गहनतम सत्यों को वाणी दे सके। भारत के नवीन कलाकार मानव जीवन के अक्षय सौंदर्य तथा आनंद को अपने रंगों की तूली से अंकित कर सके। उसके वैज्ञानिक केवल बाहरी प्रकृति का ही उद्घाटन करके संतुष्ट हो जाए बल्कि मनुष्य के अंतर्जगत के रहस्यों की भी खोज कर सके और उन दोनों को मनुष्य के कल्याण के लिए उपयोग में ला सके। भारत का समाजशास्त्र सामाजिक विकास के नियमों के साथ ही मानव के आत्मिक विकास के नियमों का भी अध्ययन करे और एक सर्वांगपूर्ण सामाजिकता में मनुष्य को सृजनात्मक श्रम का आनंद प्रदान कर सके। इस नवीन मानव-संस्कृति में विश्व ऐक्य को महिमा के साथ ही प्रत्येक देश की विशिष्टता तथा व्यक्ति के स्वभाव वैचित्र्य की सुंदरता भी पूर्ण रूप से प्रस्फुटित होकर अपने को चरितार्थ कर सके। ऐसी ही मनोकामना मेरी अपने भारत के भविष्य के प्रति है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 308)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY