नए शहर को शाम में नहीं सुबह में देखना चाहिए

nae shahr ko shaam mein nahin subah mein dekhana chahiye

ममता सिंह

ममता सिंह

नए शहर को शाम में नहीं सुबह में देखना चाहिए

ममता सिंह

और अधिकममता सिंह

    किसी नए शहर को पहली बार शाम को नहीं सुबह में देखना चाहिए क्योंकि शहरों के कई पाठ, कई रूप होते हैं... आप किसी सड़क से एकदम भोर में गुज़रिए फिर उसी सड़क पर देर शाम को जाइए आपको उसमें ज़मीन आसमान का अंतर दिखेगा...

    कि अलस्सुबह शहर बिल्कुल अजनबी नहीं लगते, लगभग हर शहर में सुबहें आम इंसानों की तरह होती हैं, बनावट सजावट से दूर… ज़िंदगी की जद्दोज़हद से जूझते हुए... जैसे किसी दोशीज़ा की असली ख़ूबसूरती देखनी हो तो उसे सुबह-सुबह देखना चाहिए बिना मुँह धुले, बिना सजे सँवरे शाम तक तो शृंगार पटार करके बिजली की रोशनियों की जगमग में चेहरे हों या शहर सब सुंदर लगते, भव्य दिखते...

    दिनारंभ होने से पहले ही शहर अपनी तरह से कुनमुनाता है, अधिकतर रात में देर तक जागकर काम करने वाले अमीर लोग इस वक़्त अपने सुविधाजनक घरों में अपनी सबसे गहरी, अच्छी नींद में होते हैं, उधर फ़ुटपाथ पर सोने वाले लोग अपनी दिनचर्या की शुरुआत कर चुके होते हैं, जैसे-जैसे दिन चढ़ेगा, उजाला होगा हमारी नज़रों से यह हाशिए के लोग छुपते जाएँगे और चारों ओर बड़ी-बड़ी कारों में बदहवास भागते, वातानुकूलित ऑफ़िसों में मोटी तनख़्वाहों पर काम करने वाले लोग, बड़े-बड़े भव्य मॉल, बाज़ार, शो रूम दिखने लगेंगे...

    दिन उगने पर जादू के ज़ोर से सड़क किनारे अलसाए से पड़े कुत्ते, म्यूनसिपैलीटी के नल पर कपड़े धोते लोग, ख़ाली निगाहों से शून्य में एकटक देखता चीथड़ों की गठरी पहने बंदा, रेलिंग पकड़कर कौतुक से नीचे झाँकता बच्चा, नाइट गाउन पहने पानी की लाइन में खड़ी औरत, कचरे से काम की चीज़ें बीनते लोग, मंडी में सब्ज़ी, फल की दुकानों पर मोलभाव करते आढ़ती नेपथ्य में चले जाते हैं... रंगमंच पर बचते हैं बस विज्ञापन...सपनों से भरे विज्ञापन, सपनों से सुंदर मॉडल्स के साथ... गुटखे का विज्ञापन हो या घर का, कार का विज्ञापन हो या मसाले का, अस्पताल का विज्ञापन हो या मॉल का सब एक से बढ़कर एक भव्य, सब एक से बढ़कर एक मोहक...अभी नकद पैसे नहीं हैं तो कोई बात नहीं ई.एम.आई है, क्रेडिट कार्ड है न...

    सुबह शहर में आपको निखालिस इंसान मिलेंगे, बल्कि शहर ही अपने असली रूप में आपके सामने प्रकट होगा... शाम होते-होते शहर हो या इंसान वह एक उत्पाद में बदल जाता है...

    किसी नए शहर में जाने पर आपकी नज़र किस पर पड़ती है सुबह वाले शहर पर या शाम वाले!

    हमारी यादों में कौन-सा दृश्य जगह पाता है!

    हमारी स्मृतियाँ किस रस, स्वाद, गंध को ग्रहण करती हैं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ममता सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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